संघ, भाजपा और "राष्ट्रीय अध्यक्ष" का सनसनीखेज़ नाटक – दिवाकर शर्मा
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भारतीय राजनीति में जब भी कोई बड़ा बदलाव होता है, तो उसकी पटकथा पहले ही लिख दी जाती है। मंच तैयार होता है, पात्र चुने जाते हैं, और पर्दे के पीछे बैठे रणनीतिकार अपनी चालें चलते हैं। लेकिन इस बार का खेल कुछ अलग है। मोहरे तैयार हैं, मगर बाजी किसके हाथ लगेगी, यह अभी भी अनिश्चित है। राजनीति की दुनिया में पद और सत्ता का संतुलन साधने के लिए हमेशा गहरे मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक समीकरणों की आवश्यकता होती है। यह कोई साधारण लड़ाई नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के दो सबसे मजबूत स्तंभों के बीच टकराव का केंद्र बन चुकी है। यह टकराव वैचारिक है, लेकिन इसकी छाया सत्ता तक फैली हुई है। जो भी इस जंग में विजयी होगा, वही आने वाले वर्षों में राजनीति की धारा तय करेगा। संघ और भाजपा के बीच यह खींचतान सिर्फ एक कुर्सी की लड़ाई नहीं, बल्कि पूरी विचारधारा की दिशा तय करने वाला संघर्ष बन चुका है।
"राष्ट्रीय अध्यक्ष" की कुर्सी केवल एक पद नहीं, बल्कि पार्टी की नीति, रणनीति और भविष्य की धारा को तय करने वाला केंद्र बिंदु है। इस बार यह पद खाली हो रहा है, और उसकी जगह कौन लेगा, इस पर दो ताकतवर गुटों में जबरदस्त रस्साकशी चल रही है। एक तरफ संगठन, जो चाहता है कि यह पद उन लोगों के पास जाए, जिनका संगठन से गहरा नाता रहा है, जो विचारधारा से जुड़े हैं और अनुशासन में यकीन रखते हैं। दूसरी तरफ पार्टी के अंदर बैठे रणनीतिकार, जो इस पद पर अपने सबसे विश्वस्त व्यक्ति को बैठाकर संगठन पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहते हैं।
पार्टी नेतृत्व को लगता है कि अब पार्टी इतनी मजबूत हो चुकी है कि उसे संगठन के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं, जबकि संगठन को लगता है कि अगर पार्टी अपने मूल ढांचे से हट गई, तो इसका भविष्य संकट में आ सकता है। इस विचारधारा के टकराव का असर यह है कि अब तक अध्यक्ष पद के लिए कोई नाम तय नहीं हो पाया है।
हाल ही में हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में इस मुद्दे पर जबरदस्त चर्चा हुई। इस बैठक में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया, जो मौजूदा नेतृत्व से जुड़ा हुआ था। यह वही नियम है, जिसे मौजूदा नेतृत्व ने ही लागू किया था—75 वर्ष की आयु के बाद राजनीति से अवकाश। यही नियम एक समय बड़े-बड़े दिग्गज नेताओं पर लागू किया गया था और अब वही नियम मौजूदा नेतृत्व के सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। संगठन चाहता है कि जब यह नियम तय किया गया था, तो उसका पालन भी किया जाए। लेकिन पार्टी के भीतर एक बड़ा वर्ग इसे लेकर चिंतित है। उन्हें लगता है कि इस नियम का सख्ती से पालन किया गया, तो सत्ता संतुलन बिगड़ सकता है।
संगठन ने अध्यक्ष पद के लिए दो नाम प्रस्तावित किए हैं, लेकिन पार्टी नेतृत्व इन नामों को लेकर असहज महसूस कर रहा है। इनमें से एक ऐसा व्यक्ति है, जिसने पहले भी संगठन और पार्टी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसे किनारे कर दिया गया। दूसरा नाम एक अनुभवी नेता का है, जो लंबे समय से राजनीति में सक्रिय रहा है और जिनकी संगठन पर अच्छी पकड़ मानी जाती है। लेकिन पार्टी नेतृत्व को यह दोनों नाम मंजूर नहीं। वे चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति इस कुर्सी पर बैठे, जो केवल नाममात्र का अध्यक्ष हो, असली फैसले वही लेते रहें, जो अब तक पार्टी को अपनी रणनीति से चला रहे हैं।
राजनीतिक गलियारों में इस वक्त एक और चर्चा जोरों पर है—क्या पार्टी का "चाणक्य" अब खुद को "चंद्रगुप्त" बनाने की तैयारी कर रहा है? बीते वर्षों में उन्होंने खुद को नंबर दो के रूप में स्थापित किया है और संगठन से अधिक सत्ता के समीकरणों पर नियंत्रण रखा है। लेकिन संगठन इस पर सहमत नहीं है। उनका मानना है कि पार्टी केवल सत्ता के बल पर नहीं, बल्कि विचारधारा के आधार पर आगे बढ़ती है।
अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस टकराव का अंत कहां होगा? क्या संगठन अपने प्रस्तावित नामों पर अडिग रहेगा, या फिर पार्टी नेतृत्व अपने पसंदीदा व्यक्ति को इस पद पर बैठाने में सफल होगा? इस पूरे घटनाक्रम में सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस बार संघ पहले की तुलना में अधिक सख्त नजर आ रहा है। वह चाहता है कि पार्टी की बागडोर ऐसे व्यक्ति के हाथ में दी जाए, जो पूरी तरह से संगठन की विचारधारा के प्रति निष्ठावान हो।
पार्टी नेतृत्व फिलहाल इस पूरे मामले पर चुप्पी साधे हुए है, लेकिन अंदरखाने बातचीत का दौर जारी है। सत्ता के गलियारों में गर्म चर्चाएं हैं कि यह फैसला जितना आसान दिख रहा है, उतना है नहीं। अब सबकी निगाहें राम नवमी के बाद होने वाली घोषणा पर टिकी हैं। यह केवल अध्यक्ष पद की नियुक्ति नहीं, बल्कि यह तय करेगा कि आने वाले वर्षों में पार्टी किस दिशा में जाएगी।
संघ अपने रुख पर अडिग है, जबकि पार्टी नेतृत्व इसे टालने की कोशिश कर रहा है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी संगठन और सत्ता में टकराव हुआ है, अंतिम फैसला संगठन के पक्ष में ही गया है। अब देखना यह है कि इस बार भी वही परंपरा कायम रहेगी, या फिर सत्ता की रणनीति इतिहास की धारा को मोड़ने में सफल होगी।
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दिवाकर की दुनाली से
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