शिवपुरी में यह अचानक क्या हो रहा हैं? - दिवाकर शर्मा
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शिवपुरी के आकाश में कोई अदृश्य बादल मंडरा रहा है। हवा में एक अजीब-सा कंपन है, जो दिखता नहीं, पर महसूस किया जा सकता है। ऐसा लगता है मानो शहर की आत्मा पर कोई बोझ पड़ गया हो, जैसे किसी ने इसकी शांति को अपहरण कर लिया हो। लोग सड़कों पर चल रहे हैं, पर उनकी चाल में आत्मविश्वास नहीं। बाजारों में चहल-पहल है, पर उस पुराने अपनत्व की सुगंध कहीं खो गई है। घरों में दीप जल रहे हैं, पर दिलों में अंधेरा छाया हुआ है। यह सब अचानक कैसे हो गया?
कभी यह शहर अपने सौहार्द और संस्कृति के लिए जाना जाता था। यहाँ के लोग मिल-जुलकर हर समस्या का समाधान निकाल लेते थे। गलियों में बैठकर राजनीतिक चर्चाएँ होती थीं, चाय की दुकानों पर दुनिया जहान की बातें होती थीं, मंदिरों और मस्जिदों के पास से गुजरते हुए लोग एक-दूसरे को मुस्कान भेंट करते थे। पर आज? आज यह शहर सहमा हुआ है, मौन धारण किए बैठा है, मानो किसी तूफान से पहले की निस्तब्धता छा गई हो।
आधी रात को नशे में धुत्त युवक सड़कों पर गाड़ियाँ दौड़ाते हैं, डिवाइडरों पर चढ़ा देते हैं, मानो यह उनकी निजी जागीर हो। दिन के उजाले में खुलेआम झगड़े होते हैं, और कोई हस्तक्षेप करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता। पत्रकारों को पीटा जाता है, और उनकी चीखें भी व्यवस्था के बहरे कानों तक नहीं पहुँच पातीं। घरों के बाहर बैठे व्यक्तियों पर गाड़ियाँ चढ़ा दी जाती हैं, और यह तक देखे बिना कि वह जीवित हैं या मृत, वाहन फर्राटे भरते हुए निकल जाते हैं।
ग्वालियर बायपास की सड़क पर चाचा अपनी भतीजी के साथ चल रहे थे, और कुछ आवारा मानसिकता के युवक उनके सामने गंदे-गंदे शब्द उछालते हैं। भतीजी शर्म और भय से सिर झुका लेती है, पर चाचा के भीतर का आत्मसम्मान विद्रोह कर उठता है। वह विरोध करता है, पर इस विरोध की कीमत उसे अपने ही लहू में डूबकर चुकानी पड़ती है। बेल्ट और पत्थरों से प्रहार कर दिया जाता है, सरेआम हमला किया जाता है, और भीड़ बस तमाशबीन बनी खड़ी रहती है।
क्या इस शहर में अब विरोध करना अपराध हो गया है? क्या अब सड़क पर चलते हुए भी लोग अपनी बहू-बेटियों को सुरक्षित नहीं महसूस कर सकते? क्या अब किसी की इज्जत से खेलना इतना आसान हो गया है कि चार गुंडे मिलकर किसी की अस्मिता पर हमला कर दें और कानून नाम की कोई चीज उनके रास्ते में न आए?
सबसे चौंकाने वाली बात यह नहीं कि यह घटनाएँ हो रही हैं, बल्कि यह है कि इन घटनाओं के बाद कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही। क्या इस शहर में विपक्ष नाम की कोई चीज नहीं बची? क्या सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोग इस भयावह अराजकता को देखकर भी अनदेखा करने का अभ्यास कर चुके हैं? क्या वे तब तक खामोश रहेंगे जब तक यह आग उनके दरवाजे तक नहीं पहुँच जाती?
यह असामाजिक तत्व अचानक से कहाँ से आ गए? क्या यह कोई बाहरी शक्ति है जो इस शहर को भीतर से खोखला करने में जुटी है? या फिर यह अपने ही लोग हैं, जिन्हें सिस्टम ने इतना निर्भय कर दिया है कि वे कानून को अपने जूते की नोक पर रखने लगे हैं? कौन इन्हें शह दे रहा है? कौन इनका समर्थन कर रहा है? कौन इनकी हिम्मत को खाद-पानी दे रहा है कि वे दिनदहाड़े गुंडागर्दी करें और पुलिस-प्रशासन को चुनौती देते हुए खुली हवा में सांस लें?
शहर के लोग भयभीत हैं, लेकिन यह भय कब तक रहेगा? कब तक लोग अपने ही घरों में दुबके रहेंगे? कब तक रात में देरी से लौटने वाले किसी अपने के सुरक्षित घर पहुँचने की प्रार्थना करेंगे? कब तक इस शहर की बेटियाँ डर के साए में बाहर निकलेंगी? कब तक आम आदमी अपने ही शहर में खुद को असहाय महसूस करेगा?
यह चुप्पी कब टूटेगी? क्या हमें इसी अराजकता के साथ जीना सीख लेना चाहिए? क्या हम अपने बच्चों को यही सिखाएँ कि अन्याय को देखकर मौन रहो, क्योंकि बोलोगे तो कुचले जाओगे? क्या हम इस भयावह परिदृश्य को अपनी नियति मान लें, या फिर इसके खिलाफ खड़े हों?
शिवपुरी की आत्मा पुकार रही है। यह शहर हमें पुकार रहा है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम कब और कैसे इस पुकार का उत्तर देते हैं। या फिर हम केवल यह सोचकर चुप बैठे रहें कि जब तक यह आग हमारे घर तक नहीं पहुँची, तब तक हम सुरक्षित हैं। लेकिन क्या वास्तव में कोई सुरक्षित है?
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दिवाकर की दुनाली से
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