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शिवपुरी: मौन समाज, भागती मासूम और बेखौफ दरिंदा – दिवाकर शर्मा

 

शिवपुरी की गलियों में चहल-पहल थी। बच्चे खेल रहे थे, बाजार अपनी रफ्तार में था, लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। पर उसी भीड़ के बीच एक मासूम बच्ची दौड़ रही थी—डरी हुई, सहमी हुई, किसी अदृश्य खतरे से बचने के लिए हांफती हुई। उसकी नन्हीं टांगें किसी से मदद मांग रही थीं, उसकी डरी हुई आँखें किसी को पुकार रही थीं। लेकिन यह समाज, जो हर बात पर बहस करता है, जो हर मुद्दे पर उंगलियां उठाता है, वह चुप था। उसकी दौड़ किसी की नज़र में नहीं आई, मगर सीसीटीवी कैमरे ने सच को कैद कर लिया।

वार्ड क्रमांक 2, शक्तिपुरम—एक आम सा मोहल्ला, रोज़मर्रा की जिंदगियों से भरा हुआ। पर उस दिन यह इलाका गवाह बना उस सिहरन भरे पल का, जब एक सात साल की मासूम के हाथों को एक दरिंदे ने अपने पंजों में जकड़ लिया। उसने झटका दिया, छूटने की कोशिश की, और फिर पूरी ताकत से भागी। वह भागती रही, क्योंकि यही उसकी आखिरी उम्मीद थी। अंधेरे में जाकर उसने अपनी सांसें संभालीं, लेकिन यह अंधेरा सिर्फ बाहर नहीं था—यह अंधेरा उस समाज के दिलों में भी था, जो अपनी आँखें मूँदकर खड़ा था।

यह कोई पहली घटना नहीं थी। कुछ समय पहले वार्ड क्रमांक 27, विष्णु मंदिर के पीछे भी ऐसा ही हुआ था। वहाँ भी एक मासूम किसी अनजाने भय से बचने के लिए एक घर का दरवाजा खटखटा रही थी। उसने भी दौड़ लगाई थी, उसने भी शरण मांगी थी। और शिवपुरी ने, जो वीरों की भूमि कहलाती थी, इन घटनाओं पर अपनी आँखें मूँद लीं।

पर क्या यह शहर वाकई वही है, जिसे न्यायप्रियता के लिए जाना जाता था? क्या अब यह कायरता की ओर बढ़ रहा है?

हमारी सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि हम तब तक नहीं जागते, जब तक कोई हादसा हमारे अपने दरवाजे तक नहीं पहुँचता। हम सीसीटीवी फुटेज देखकर अफसोस तो जताते हैं, पर उस दरिंदे के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाते, जो मासूम हाथों को जकड़ने की हिम्मत करता है। और इस चुप्पी की कीमत चुकानी पड़ती है उन मासूमों को, जिनकी दुनिया अभी रंगों से भरने वाली थी, लेकिन जिन्हें डर और भय के साए में जीने की मजबूरी दे दी गई।

इस घटना के आरोपी की पहचान दिलशाद पुत्र बाबू खान के रूप में हुई। पुलिस ने उसे पकड़ लिया है, पोस्को एक्ट और छेड़छाड़ के मामले में केस दर्ज किया जा चुका है। लेकिन गिरफ्तारी के दौरान जो हुआ, उस पर समाज सवाल उठा रहा है। कहा जा रहा है कि दिलशाद पुल से कूदा और उसके हाथ-पैर फ्रैक्चर हो गए। लेकिन सोशल मीडिया पर वायरल पोस्टें यह पूछ रही हैं कि यह कैसा फ्रैक्चर है, जिसमें दर्द का कोई अक्स तक नहीं दिख रहा?

पत्रकार राज्यवर्धन सिंह लिखते हैं—"फिल्म के इस स्क्रिप्ट राइटर पर कड़ी आपत्ति जताता हूँ। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उंगलियों को भी छुपाया गया हो। अगर फ्रैक्चर होता, तो सूजन दिखती। खैर, स्मैक के आदी अपराधियों से पुलिस भी दूरी बनाकर चलती है। कल को कुछ हो जाए तो कौन कोर्ट, मानवाधिकार आयोग और विभागीय जांच झेलेगा?"

दीपक कुशवाह सवाल उठाते हैं—"अपराधी मीडिया के सामने आँख मिलाकर देखता है, फिर किसी के इशारे पर आँखें नीचे कर लेता है। पुल से कूदा, पर खून की एक बूंद तक नहीं निकली? अपराधी से ज्यादा मर्यादा में तो पुलिस टीम खड़ी दिख रही है।"

भाजपा नेता सुरेंद्र शर्मा कहते हैं—"अगर जनता के मन में सवाल उठ रहे हैं, तो पुलिस को आरोपी का मेडिकल सार्वजनिक करना चाहिए, ताकि विश्वास बना रहे। डॉक्टरों के बयान आने चाहिए, कि हड्डी कहाँ से टूटी, बिना पैंट निकाले पैर का प्लास्टर कैसे हुआ?"

मोहन विकट की टिप्पणी भी यही संकेत देती है—"कैसी मार और कैसा फ्रैक्चर कि अपराधी के चेहरे पर शिकन तक नहीं है?"

मुकेश कुशवाह लिखते हैं—"अगर ऐसे ही संरक्षण मिलता रहा, तो बहन-बेटियाँ सुरक्षित कैसे रहेंगी?"

ये सारे सवाल हवा में तैर रहे हैं, लेकिन जवाब कहीं नहीं हैं। और यही इस समाज की सबसे बड़ी समस्या है।

आज शिवपुरी के सामने दो रास्ते हैं—या तो वह उस मासूम बच्ची के साथ खड़ा हो, जो अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रही थी, या फिर वह अपनी कायरता के साथ इस अंधेरे का हिस्सा बना रहे, जहाँ दरिंदे बेखौफ घूमते हैं। यह शहर क्या चुनेगा? यह समाज क्या तय करेगा?

अगर आज भी हम चुप रहे, तो कल कोई और मासूम दौड़ेगी। फर्क सिर्फ इतना होगा कि तब कोई दरवाजा भी नहीं खुलेगा।

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