"शिवपुरी का रहस्यमयी अड्डा: होटल के नाम पर कुछ और ही खेल?"
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शहर का दिल, माधव चौक। जहाँ रौशनी हमेशा जगमगाती है, जहाँ भीड़ की चहल-पहल कभी थमती नहीं, जहाँ हर तरफ चहकते चेहरे दिखाई देते हैं। लेकिन इस जगमगाहट के बीच एक अंधेरा भी है, एक ऐसा रहस्य जो धीरे-धीरे लोगों की फुसफुसाहटों में बदल रहा है। इस चौक के निकट स्थित एक होटल, जो दिन में एक सामान्य व्यापारिक प्रतिष्ठान की तरह दिखाई देता है, रात के अंधेरे में अपनी पहचान बदल लेता है। कुछ कहते हैं, वहाँ सब कुछ सामान्य है। लेकिन जिनकी नजरें सच को भांपने में माहिर होती हैं, वे इसे महज संयोग मानने से इनकार करते हैं।
शाम ढलते ही इस होटल के पास हलचल बढ़ने लगती है। अनजान गाड़ियाँ आकर ठहरती हैं, कुछ देर रुकती हैं, फिर ओझल हो जाती हैं। कुछ लोग धीरे-धीरे, नजरें चुराते हुए पिछले दरवाजे से भीतर जाते हैं, और फिर कब निकलते हैं, यह किसी को पता नहीं चलता। कुछ चेहरे बार-बार दिखाई देते हैं, तो कुछ ऐसे होते हैं जो सिर्फ एक ही बार नजर आते हैं, और फिर कभी नहीं दिखते। युवतियों और महिलाओं का अचानक से आना-जाना, देर रात तक ठहरने वाली गाड़ियों के भीतर बैठे लोगों की बेचैनी, और फिर होटल के कोनों में खड़े संदिग्ध चेहरों की निगाहें – यह सब क्या महज एक संयोग है?
लोगों की जुबान पर ताले लगे हैं, लेकिन उनकी आँखें बहुत कुछ कहती हैं। वे इशारों में कुछ समझाना चाहते हैं, लेकिन डर का एक अदृश्य साया उन्हें रोक लेता है। कोई भी खुलकर कुछ नहीं कहता, लेकिन उनकी बातों में छिपा भय इस ओर इशारा करता है कि यहाँ सब कुछ वैसा नहीं है, जैसा दिखता है। होटल की इमारत के भीतर छिपे राज आखिर क्या हैं? कौन लोग यहाँ आते हैं? वे क्यों आते हैं? और सबसे बड़ा सवाल – यहाँ से लौटने वाले क्या वही होते हैं, जो भीतर गए थे?
ऐसा नहीं है कि यह सब किसी की नजर में नहीं आया। आसपास के दुकानदार, राह चलते लोग, होटल के आसपास रहने वाले – सबने कभी न कभी कुछ न कुछ अजीब जरूर देखा है। लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं, किसी ने कुछ किया नहीं। क्या वजह हो सकती है? क्या यह डर है? या फिर यह कोई ऐसी साजिश है, जो शहर की आम जनता की पकड़ से बाहर है? और यदि यह सच है कि यहाँ कुछ संदिग्ध चल रहा है, तो अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
हैरानी की बात यह है कि शहर की पुलिस, प्रशासन, और जिम्मेदार अधिकारी इस होटल की गतिविधियों से अनजान नहीं हो सकते। तो क्या उनकी चुप्पी किसी दबाव का परिणाम है? क्या किसी बड़े हाथ ने इस जगह को अभयदान दे दिया है? या फिर वे खुद इस इंतजार में हैं कि कुछ बड़ा हो, कोई अनहोनी घटे, तब जाकर कार्रवाई की जाए? आखिर कितने और सुराग चाहिए? आखिर कब तक यह गूढ़ रहस्य ऐसे ही दफन रहेगा?
कहते हैं, हर शहर की कुछ अंधेरी गलियाँ होती हैं, जहाँ रोशनी जाने से कतराती है। क्या यह होटल भी उन्हीं गलियों का एक हिस्सा है? क्या इसकी दीवारों के भीतर कुछ ऐसा घटित होता है, जिसे आम नजरें नहीं देख सकतीं? और यदि ऐसा कुछ नहीं है, तो फिर लोगों की बातें, उनकी आशंकाएँ, उनका डर – आखिर यह सब क्यों है?
शहर के दिल में यह प्रश्न अब जोर पकड़ चुका है। लोगों की आँखों में संदेह है, उनके चेहरों पर सवाल हैं, लेकिन उनके होंठ अब भी सिल दिए गए हैं। परंतु सवाल अब भी जिंदा हैं – यह होटल एक आम विश्राम स्थल है, या फिर एक ऐसा रहस्यमयी अड्डा, जहाँ कुछ ऐसा घटित होता है, जो सभ्य समाज की परिभाषाओं के परे है? और यदि ऐसा कुछ है, तो अब तक इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
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दिवाकर की दुनाली से
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