शिवपुरी की सड़कों पर सरपट दौड़ती मौत – दिवाकर शर्मा
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✍🏻 दिवाकर शर्मा
सड़कें किसी भी शहर की पहचान होती हैं। इन्हीं सड़कों पर जीवन दौड़ता है, व्यापार फलता-फूलता है, और हर वर्ग के लोग अपनी रोजमर्रा की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए निकलते हैं। सड़कें केवल पत्थर और डामर से बनी कोई निर्जीव संरचना नहीं, बल्कि समाज की गति को दर्शाने वाली जीवंत धमनियां हैं। लेकिन शिवपुरी की सड़कों पर इन दिनों जीवन नहीं, बल्कि मौत दौड़ रही है। एक ऐसा अनियंत्रित प्रवाह, जिसमें सुरक्षा और व्यवस्था दम तोड़ चुकी है।
शहर की गलियों से लेकर मुख्य मार्गों तक, हर ओर बेतहाशा दौड़ती गाड़ियां दिखती हैं। ट्रक, ट्रैक्टर, बसें, कारें और बाइकों की रफ्तार ऐसी होती है, मानो सड़कें किसी रेस ट्रैक में बदल चुकी हों। न कोई नियम, न कोई अनुशासन, न कोई डर—बस एक अराजक उन्माद, जो हर दिन किसी न किसी निर्दोष की जान ले लेता है।
इन सड़कों पर चलने वाले आम नागरिकों के लिए अब यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि वे सही-सलामत अपने घर पहुंच भी पाएंगे या नहीं। पैदल चलने वालों के लिए तो जैसे कोई स्थान ही नहीं बचा। फुटपाथ अवैध कब्जों और दुकानों से घिरे हैं, और सड़कें रफ्तार के आतंक के हवाले हैं। साइकिल सवारों की तो बात ही छोड़ दीजिए—उनका जीवन एक निरंतर खतरे में डूबा हुआ संघर्ष बन चुका है।
प्रतिदिन कहीं न कहीं से यह खबर आती है कि कोई न कोई सड़क हादसे का शिकार हो गया। कहीं किसी स्कूली बच्चे को रौंद दिया जाता है, तो कहीं कोई बुजुर्ग लहूलुहान पड़ा मिलता है। कोई दुपहिया सवार तेज रफ्तार वाहन की चपेट में आकर सड़क किनारे दम तोड़ देता है, तो कोई ट्रक की चपेट में आकर गुमनाम मौत मर जाता है। अखबारों में छपने वाली ये खबरें कुछ देर के लिए लोगों को विचलित कर सकती हैं, लेकिन प्रशासन पर कोई असर नहीं डालतीं।
सबसे दुखद यह है कि इस अराजकता को रोकने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। पुलिस हेलमेट चेकिंग और चालान काटने में व्यस्त रहती है, लेकिन उन ट्रक-ट्रैक्टरों को अनदेखा कर देती है जो नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए शहर के बीचों-बीच दौड़ते हैं। शराब के नशे में धुत्त वाहन चालक बिना किसी डर के सड़कों पर कहर बरपाते हैं, मगर उनके खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई होती नहीं दिखती।
शहर के व्यस्ततम चौराहों पर लगे सीसीटीवी कैमरे केवल दिखावे के लिए हैं। ये कैमरे दुर्घटनाओं को कैद तो कर लेते हैं, लेकिन जिम्मेदार लोगों की आंखों तक यह सच्चाई कभी नहीं पहुंचती। ऐसा लगता है कि प्रशासन ने अपनी जिम्मेदारी केवल कागजी कार्रवाई और प्रेस कॉन्फ्रेंस तक सीमित कर दी है। हादसों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन सुरक्षा के उपाय नहीं किए जा रहे।
अगर कोई हादसे का शिकार हो जाए, तो उसे अस्पताल तक पहुंचाने वाला भी नहीं मिलता। राहगीर मदद करने से डरते हैं, क्योंकि कानूनी झंझट में फंसने का डर उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर देता है। सरकारी अस्पतालों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है—अगर कोई वहां तक पहुंच भी जाए, तो उसे समय पर इलाज मिलेगा या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं।
इन हादसों की आग सिर्फ उन घरों तक ही सीमित नहीं रहती जिनका कोई अपना सड़क पर दम तोड़ देता है। यह आग पूरे समाज को जलाती है, क्योंकि हर नागरिक इस अराजकता से प्रभावित हो रहा है। सवाल यह है कि कब तक शिवपुरी की सड़कें इसी तरह निर्दोषों की बलि लेती रहेंगी? कब तक प्रशासन मूकदर्शक बना रहेगा? क्या कोई ठोस नीति बनाकर इस खतरे को रोका जाएगा, या फिर हर दिन किसी न किसी परिवार की उजड़ती हुई दुनिया को बस एक और ‘दुर्घटना’ मानकर फाइलों में बंद कर दिया जाएगा?
शहर की जनता को अब अपनी सुरक्षा के लिए खुद आवाज उठानी होगी। यह केवल सरकार या प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह यातायात नियमों का पालन करे और दूसरों को भी जागरूक करे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग ही अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लें, तो आखिर इस समस्या का समाधान कौन करेगा?
शिवपुरी की ये सड़कें कब तक मौत की सरपट दौड़ का गवाह बनती रहेंगी? कब तक यहां बहने वाला खून केवल एक आंकड़ा बनकर रह जाएगा? ये प्रश्न जितने गंभीर हैं, उनके उत्तर उतने ही कठोर होने चाहिए। लेकिन प्रशासन के कानों तक ये चीखें कब पहुंचेंगी, यह कहना अभी भी मुश्किल है।
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दिवाकर की दुनाली से
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