सैकड़ो वर्षों से कुंभ, महाकुंभ का आयोजन भारत में किया जा रहा है। यह केवल संगम अथवा पवित्र नदियों में डुबकी लगाने का ही कुंभ नहीं है, वरन इसके अतिरिक्त यह कुंभ विभिन्न चिंतन,दर्शन विचारधाराओं के संगम का भी महाकुंभ होता है जिसमें वैचारिक मंथन के बाद वैचारिक अमृत की बूंदे प्राप्त होती है। यह "स्वयं के अस्तित्व को, इगो को, मै को उस कुंभ के अपार जनसमूह में समाहित कर हम" होने का भी कुंभ है, जहां हमारी सारी पृथक पृथक सकारात्मकताएं, विशिष्टताएं,नकारात्मकता सनातन के एक ही रूप और रंग,एक ही सकारात्मक ऊर्जा और आभा (ओरा) में विलीन होकर सामूहिकता का स्पंदन देती है, जो हमारे तन मन बुद्धि और आत्मा को भी शुद्ध और शांत कर देता है। जब सामूहिक चेतना, सामूहिक सकारात्मक ऊर्जा और उस ऊर्जा से प्रकट विराट आभामंडल कुंभ के चारों ओर फैलता है तो व्यक्तियों की समस्त नकारात्मकताए उसमें विलीन हो जाती है। शरीर और मन में नवीन सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होने लगता है
जिन लोगों ने संगम में डुबकी तो लगाई लेकिन उस अपार सामूहिक जनचेतना,सकारात्मक ऊर्जा का हिस्सा नहीं बन पाए,उस सामूहिक सकारात्मक ऊर्जा के साथ कदम से कदम मिलाकर चल नही सके उस सामूहिक चेतना,ऊर्जा के साथ डुबकी न लगा कर पृथक डुबकी लगाई,उन्हें संगम में डुबकी लगाने का तो पुण्य मिला लेकिन उस सामूहिक सकारात्मक चेतना और ऊर्जा का हिस्सा बनने से वंचित रह गए।उस अप्रतिम आनंद के भावों से वंचित रह गए।पवित्र नदियों के जल में डुबकी के पुण्य के अतिरिक्त उसी सामूहिक सनातन चेतना ,ऊर्जा और आनंद के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार जबकि देवों के गुरु बृहस्पति अपना एक चक्र पूर्ण करते हैं ऐसे समय में समस्त सनातनियों को एक स्थान पर एकत्र हो पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाकर तन मन को विचारों की शुद्धता का आयोजन की परम्परा प्रारंभ की थी
अरुषेन्द्र शर्मा
स्वदेशी चिंतक, विचारक
सीहोर (मप्र.)
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
एक टिप्पणी भेजें