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स्वतंत्र भारत की बौद्धिक गुलामी: वामपंथी इतिहास लेखन और कांग्रेस की सांस्कृतिक साजिश - दिवाकर शर्मा

 

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का हालिया बयान इस मानसिकता का सटीक उदाहरण है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के महाकुंभ स्नान पर टिप्पणी करते हुए कहा कि "गंगा में डुबकी लगाने से गरीबी खत्म नहीं होगी।" उनका यह कथन केवल एक राजनीतिक प्रहार नहीं था, बल्कि हिंदू आस्थाओं और परंपराओं को नीचा दिखाने का एक सुनियोजित प्रयास था। उन्होंने आगे कहा कि "आरएसएस-बीजेपी देशद्रोही हैं," और "अगर गरीबी और बेरोजगारी से मुक्ति चाहिए तो संविधान की रक्षा करें।"

भारत ने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की, परंतु यह स्वतंत्रता केवल राजनीतिक थी। एक अन्य प्रकार की दासता, जो विचारों और बौद्धिकता पर अंकुश लगाती है, देश पर तब से लेकर आज तक अदृश्य बेड़ियों की भांति लिपटी हुई है। यह दासता किसी विदेशी शक्ति द्वारा नहीं थोपी गई, बल्कि स्वयं इस राष्ट्र के भीतर से पल्लवित हुई, सत्ता-संरक्षक बनी, और अपनी जड़ों में विष बोती चली गई। दुर्भाग्यवश, इस मानसिक पराधीनता का आधार एक ऐसी विचारधारा बनी, जो भारत की परंपराओं, संस्कृति और इतिहास को नकारने में ही अपनी प्रगतिशीलता देखती रही। वामपंथी विचारधारा, विशेषकर मार्क्सवाद, जिसने एक समय रूस और चीन में क्रांति का स्वरूप धारण किया था, भारत में अपने अलग ही रूप में प्रकट हुई—ऐसे रूप में, जहां यह न केवल औपनिवेशिक मानसिकता को पोषित करने लगी, बल्कि उसे और अधिक गहराई से स्थापित करने में भी सहायक बनी।

भारतीय समाज की जड़ों को नष्ट करने की इस प्रक्रिया को जिस व्यक्ति ने सबसे अधिक संरक्षण दिया, वह स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। उनके भीतर पश्चिमी समाजवाद के प्रति एक गहरा आकर्षण था, जो उनकी नीतियों, उनके विचारों और उनके प्रशासनिक निर्णयों में झलकता था। उनके शासनकाल में ही इस देश में मार्क्सवादी बौद्धिकों का प्रवेश उन संस्थानों में हुआ, जो एक समाज की विचारधारा को गढ़ने का कार्य करते हैं—शिक्षा, इतिहास लेखन, सांस्कृतिक अध्ययन और नीति-निर्माण। यह प्रक्रिया इंदिरा गांधी के शासनकाल में और भी गहरी हुई, जब शासन तंत्र में कुछ चुनिंदा व्यक्तियों को वैचारिक संरक्षक के रूप में स्थापित कर दिया गया। पी. एन. हक्सर उन प्रमुख व्यक्तियों में थे, जिनके चारों ओर एक ऐसा दरबार बनने लगा, जहां वामपंथी विचारधारा को ही योग्यतम मापदंड माना गया।

यही वह समय था, जब इतिहास लेखन में एक नया युग आरंभ हुआ, जिसने भारतीय परंपराओं और संस्कृति को किसी विदेशी दृष्टि से नहीं, बल्कि भीतर से दूषित करने का कार्य किया। इतिहास केवल अतीत का दस्तावेज नहीं होता, यह समाज की सामूहिक चेतना का निर्माण करता है, यह उस भूमि के लोगों को उनके पूर्वजों से जोड़ता है, उनके भीतर गौरव और आत्मविश्वास उत्पन्न करता है। किंतु जब यह इतिहास एक योजनाबद्ध ढंग से विकृत किया जाता है, तब यह चेतना दुर्बल हो जाती है, वह गौरवशाली अतीत एक अपराधबोध में बदल जाता है और वर्तमान का मार्गदर्शन करने वाली परंपराएं रूढ़ियों का स्वरूप ले लेती हैं। नूरुल हसन, जिन्होंने इंदिरा गांधी के शासनकाल में शिक्षा मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, इस वैचारिक क्रांति के अगुआ बने। उनके प्रयासों से वामपंथी इतिहासकारों का प्रभुत्व न केवल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बल्कि देश के अन्य प्रमुख विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और अकादमिक केंद्रों पर स्थापित हो गया।

यह वही समय था, जब विपिन चंद्र, सतीश चंद्र, आर. एस. शर्मा और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने इतिहास को पुनः रचने का कार्य किया। उन्होंने इसे एक ऐसी दिशा में मोड़ दिया, जहां औपनिवेशिक इतिहासकारों द्वारा गढ़े गए मिथक ही पुनः दोहराए जाने लगे। मुसलमान आक्रांताओं द्वारा किए गए विध्वंस, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों के ध्वंस और सांस्कृतिक विनाश को या तो पूर्णतः नकार दिया गया या फिर उसे एक नई व्याख्या देकर तर्कसंगत ठहराने का प्रयास किया गया। इतिहास लेखन का यह प्रयास केवल एक विचारधारा की सेवा में नहीं था, बल्कि इसका एक गहरा राजनीतिक उद्देश्य भी था—ऐसा इतिहास गढ़ना, जो कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों की वोट बैंक राजनीति को लाभ पहुंचा सके।

आज भी कांग्रेस और वामपंथी राजनीति इसी मानसिकता को आगे बढ़ाने में व्यस्त हैं। इनका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को कमजोर करना और उसे जनता के विश्वास से अलग करना रहा है। खड़गे के बयान में यह भी परिलक्षित होता है कि कांग्रेस की विचारधारा आज भी उस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाई है, जो भारत को उसकी धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से काटकर देखने की कोशिश करती थी। क्या खड़गे यही बयान किसी अन्य धर्म के धार्मिक अनुष्ठानों पर दे सकते थे? क्या वह कह सकते थे कि किसी अन्य समुदाय की प्रार्थनाओं या धार्मिक अनुष्ठानों से गरीबी समाप्त नहीं होगी? लेकिन हिंदू संस्कृति पर प्रहार करना, उसकी परंपराओं को अपमानित करना और फिर उसे तर्कसंगत ठहराने की कोशिश करना, यह एक गहरी साजिश का हिस्सा है।

यह कोई पहली बार नहीं है जब कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के लोग भारतीय आस्था और परंपराओं का उपहास उड़ाते नजर आए हैं। यह वही मानसिकता है, जिसने वर्षों तक हिंदू समाज को विभाजित करने के लिए जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया। मंदिरों पर हमले हों, हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों का मजाक उड़ाना हो, या फिर भगवान राम, कृष्ण और शिव जैसे सनातन प्रतीकों को विवादों में घसीटना हो—हर बार इन्हीं ताकतों ने इसे बढ़ावा दिया है।

यह स्पष्ट है कि कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा का एकमात्र उद्देश्य भारतीय संस्कृति, इतिहास और समाज की जड़ों को काटना और उसे एक ऐसे रूप में प्रस्तुत करना है, जहां भारत अपनी ही परंपराओं से कटकर किसी विदेशी बौद्धिक गुलामी का शिकार बना रहे। अब समय आ गया है कि इस मानसिकता के विरुद्ध एक नई वैचारिक क्रांति प्रारंभ हो, जहां भारत अपने इतिहास को अपनी दृष्टि से देखे, अपनी परंपराओं का सम्मान करे और अपने आत्मगौरव को पुनः स्थापित करे। केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं होती, जब तक कि एक समाज बौद्धिक रूप से स्वतंत्र न हो। यदि भारत को अपने गौरवशाली अतीत की ओर लौटना है, तो उसे अपनी बौद्धिक चेतना को पुनः जागृत करना ही होगा।

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