कांग्रेसी लौटेंगे तो भाजपा के चाणक्य कहां जाएंगे?

 

राजनीति में 'घर वापसी' कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब यह वापसी विचारधारा और निष्ठा के नाम पर की जाए, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले कई नेताओं की मौजूदा स्थिति न केवल उनके अपने लिए, बल्कि भाजपा के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। ये नेता, जो कभी कांग्रेस में अपनी जमीन खो चुके थे, भाजपा में नई उम्मीदों के साथ आए थे। लेकिन आज उनका भाजपा में दम घुट रहा है, और वे फिर से कांग्रेस की ओर मुड़ने को बेताब हैं।

इस घटनाक्रम के पीछे कई पहलू हैं। पहला, भाजपा में इन कांग्रेसी नेताओं को वह स्वीकार्यता नहीं मिली, जिसकी उन्होंने उम्मीद की थी। मूल भाजपाइयों ने इन्हें कभी अपना माना ही नहीं। सालों-साल संघ की शाखाओं में भाग लेकर और पार्टी की जमीनी राजनीति में खून-पसीना बहाकर तैयार हुए भाजपा कार्यकर्ता, इन 'बाहरी' नेताओं को दिए गए पदों और जिम्मेदारियों को लेकर पहले दिन से ही असहज थे। संघ और भाजपा के संगठनात्मक ढांचे से पूरी तरह अनजान ये कांग्रेसी नेता भाजपा की विचारधारा को समझने में असफल रहे।

दूसरा, भाजपा में शामिल इन नेताओं को चुनावी समीकरण साधने के लिए तो लाया गया था, लेकिन इनमें से अधिकांश को जनता ने सिरे से नकार दिया। जो नेता चुनाव लड़ने की स्थिति में थे, वे हार गए। और जो केवल सत्ता के समीकरणों में फिट होने आए थे, वे पद और महत्व न मिलने के कारण हाशिये पर चले गए। अब जबकि अगले चुनाव दूर हैं और भाजपा में इन्हें आगे बढ़ने की कोई संभावना नहीं दिख रही, तो वे अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतित हैं।

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि भाजपा के 'स्वघोषित चाणक्यों' की रणनीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। भाजपा ने कांग्रेस से आए इन नेताओं को जिस तरह सिर-आंखों पर बिठाया, वह मूल भाजपाइयों के त्याग और समर्पण के प्रति एक तरह का अपमान साबित हुआ। वर्षों तक पार्टी की विचारधारा के लिए संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर इन 'आयातित' नेताओं को प्रमुखता देना क्या सही फैसला था?

अब अगर ये कांग्रेसी नेता भाजपा छोड़कर फिर से कांग्रेस में लौटते हैं, तो यह भाजपा के चाणक्यों की सबसे बड़ी असफलता मानी जाएगी। पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता यह सवाल जरूर उठाएंगे कि आखिर इन नेताओं को शामिल करने का क्या औचित्य था? क्या जनता और पार्टी कार्यकर्ता अब भी उन चाणक्यों पर भरोसा करेंगे जिन्होंने केवल तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए पार्टी की आत्मा को दांव पर लगा दिया?

इस पूरे घटनाक्रम पर कांग्रेस भी कम उत्साहित नहीं होगी। कांग्रेस नेताओं कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के हालिया बयानों से साफ है कि भाजपा में असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं का उनसे संपर्क जारी है। लेकिन कांग्रेस भी इन नेताओं को अपनाने से पहले दो बार सोचेगी। कांग्रेस के अपने कार्यकर्ता सवाल करेंगे कि जब इन नेताओं ने संकट के समय पार्टी का साथ छोड़ दिया था, तो अब उन्हें वापस क्यों लिया जाए?

यह स्थिति उन पक्षियों जैसी है जो घने पेड़ को छोड़कर दूसरे पेड़ पर बसेरा बनाने जाते हैं, लेकिन वहां न तो छांव मिलती है, न सुरक्षा। भाजपा में शामिल हुए ये नेता न भाजपा के हो सके, न कांग्रेस के। और अब जब वे अपनी 'घरेलू वापसी' की योजना बना रहे हैं, तो यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि असली हार किसकी है—इन नेताओं की, भाजपा के चाणक्यों की, या कांग्रेस की राजनीति की।

इस पूरे घटनाक्रम से सबसे बड़ा सबक यह है कि राजनीति में विचारधारा और निष्ठा का महत्व कभी खत्म नहीं हो सकता। भाजपा में शामिल हुए कांग्रेसियों की 'फड़फड़ाहट' इस बात का प्रमाण है कि केवल पद और सत्ता की राजनीति लंबे समय तक टिक नहीं सकती। अब देखने वाली बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों इस स्थिति से क्या सबक लेते हैं और इन नेताओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं।

लेकिन इतना तय है कि इन कांग्रेसी नेताओं की वापसी अगर होती है, तो भाजपा के चाणक्यों की प्रतिष्ठा और उनकी रणनीतियों पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा होगा। जनता और पार्टी कार्यकर्ता क्या अब भी उन पर वैसा ही विश्वास करेंगे? या यह घटनाक्रम भाजपा के भीतर एक नई बहस को जन्म देगा, जहां निष्ठा और त्याग का महत्व फिर से प्राथमिकता में आएगा?

आने वाले दिनों में इस 'राजनीतिक घर वापसी' का नाटक और दिलचस्प होने वाला है।

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