शिवपुरीवासियों का "हिचका" कौन चुरा ले गया? - दिवाकर शर्मा

 

शिवपुरी का इतिहास उसकी हवा में है। यह शहर कभी रंगीन पतंगों और खुशहाल बच्चों के लिए जाना जाता था। हर गली, हर छत, और हर आंगन में बच्चों के किलकारियों की गूंज सुनाई देती थी। आसमान में पतंगें झूमती थीं, और हाथों में हिचके घूमते थे। यह हिचका केवल मांजा लपेटने का औजार नहीं था, यह उस स्वतंत्रता, रचनात्मकता और आनंद का प्रतीक था, जो शिवपुरी के बच्चों ने अपने बचपन में जिया।

एक समय था, जब शिवपुरी के बच्चे पतंगों के साथ बड़े होते थे। पतंग उड़ाना महज खेल नहीं था, यह एक कला थी। मांजे को सूतने, पतंगों को सही आकार देने और उन्हें हवा में संतुलित रखने की पूरी प्रक्रिया एक प्रकार का शिल्प थी। धूप, बारिश, सर्दी, गर्मी—कुछ भी इन बच्चों का उत्साह कम नहीं कर सकता था। दिन में आसमान में लहराती रंगीन पतंगें और रात में कैंडल बांधकर उड़ाई गई रोशनी भरी पतंगें, हर किसी के लिए एक आकर्षण का केंद्र हुआ करती थीं। यह केवल बच्चों का खेल नहीं था, बल्कि पूरे समाज की भागीदारी थी। बड़े, बुजुर्ग और युवा, सब पतंगबाजी के इस उत्सव में शामिल होते थे। शिवपुरी के आसमान में पतंगें उड़ती थीं, और उनके साथ उड़ते थे सपने, उम्मीदें और कल्पनाएं।

हिचका, जिसे अन्य जगहों पर गिरगिड़ी, लपेटा जैसे नामों से भी जाना जाता है, पतंग उड़ाने के इस पूरे अनुभव का केंद्र था। मांजे को सहेजने और पतंग को ऊंचाई तक ले जाने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। लेकिन हिचका केवल एक औजार नहीं था; यह आपसी सहयोग, सामूहिकता और बचपन की सरलता का प्रतीक था। हर बच्चे के पास उसका अपना हिचका होता था, जिसे वह अपने कौशल और प्यार से तैयार करता था। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, शिवपुरी का यह आनंद भी बदल गया। 2000 के बाद से, धीरे-धीरे पतंगें और हिचके गुम होने लगे। 80 और 90 के दशक में जन्मे बच्चे अब बड़े हो रहे थे। जीवन की जटिलताएं, स्कूलों और करियर की दौड़, और बदलते सामाजिक परिवेश ने उनका ध्यान मोड़ दिया। खेल के मैदान सिमटने लगे, और उनकी जगह वीडियो गेम्स और मोबाइल फोन ने ले ली। शहर का सामूहिक स्वरूप भी बदलने लगा। जिन मैदानों में कभी बच्चे खेलते थे, वहां अब इमारतें और बाजार खड़े हो गए। पतंग उड़ाने की कला, जो कभी एक सांस्कृतिक धरोहर थी, धीरे-धीरे मिटने लगी। राजनीति और व्यापार के बढ़ते प्रभाव ने सामाजिक मूल्यों को कमजोर कर दिया।

हिचका केवल एक साधारण यंत्र नहीं था। यह वह धरोहर थी, जो शिवपुरी के लोगों को आपस में जोड़ती थी। पतंग उड़ाने की प्रक्रिया में जो सामूहिकता और सहयोग था, वह बच्चों के साथ-साथ समाज को भी सिखाता था कि कैसे एक साथ मिलकर ऊंचाई पर पहुंचा जा सकता है। लेकिन आज वह सामूहिकता कहीं खो गई है। शहर की गुम होती पतंगें और सन्नाटे में डूबा आसमान इस बदलाव का गवाह हैं। जहां कभी पतंगों की लड़ाई होती थी, वहां अब एक अजीब सी खामोशी छाई है। जिन हाथों में कभी हिचके घूमते थे, वे अब मोबाइल फोन पर स्क्रॉल कर रहे हैं। आज शिवपुरी का आसमान सूना है। हिचके गुमनाम हैं। पतंगें कहीं और पलायन कर गई हैं। यह सवाल उठता है कि शिवपुरी का हिचका आखिर कौन चुरा ले गया?

क्या यह बदलाव समय का दोष है? या हम सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं? जिन व्यापारियों ने कभी पतंगों और मांजे की कला को प्रोत्साहित किया, उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थ के कारण इस परंपरा को खत्म कर दिया।

शहर, जो कभी आसमान को रंगीन बनाता था, आज खुद एक ऐसे दौर में फंसा हुआ है, जहां न खेल हैं, न मैदान। यह केवल पतंगों का खोना नहीं है; यह उस पूरे बचपन और उन मूल्यों का खोना है, जिसने शिवपुरी को कभी जीवंत बनाया था।

लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। आज भी, हर शिवपुरीवासी के भीतर वह हिचका कहीं न कहीं बचा हुआ है। शायद वह बचपन की स्मृति के रूप में हो, या एक अनकही ख्वाहिश के रूप में। जरूरत है तो बस उसे पहचानने और फिर से जीवित करने की।

शिवपुरी के आसमान को वापस रंगीन बनाना संभव है, अगर हम मिलकर इसे संजोने की जिम्मेदारी लें। पतंगें फिर से उड़ सकती हैं, हिचके फिर से घूम सकते हैं, और बचपन फिर से लौट सकता है। लेकिन इसके लिए हमें एक कदम उठाना होगा—अपने भीतर के उस हिचके को ढूंढने का।

तो, क्या हम तैयार हैं अपने शिवपुरी को उसकी खोई हुई उड़ान लौटाने के लिए?

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें