रहस्यमयी कमरा, पीआर एजेंसियां और पत्रकारिता की नई कहानी - दिवाकर शर्मा

 


पत्रकारिता का मूल उद्देश्य था समाज के सामने सत्य को प्रस्तुत करना, असल समस्याओं को उजागर करना और जनमत को सही दिशा में प्रेरित करना। परंतु आज यह आदर्श एक रहस्यमयी कमरे के भीतर दब गया है। यह कमरा उन पीआर एजेंसियों और रणनीतिकारों का है, जो शब्दों, विचारों और मुद्दों को गढ़ने का काम करते हैं। इस कमरे में असल मुद्दों को दबाने और नए विमर्श पैदा करने की रणनीतियां बनाई जाती हैं।

इन रणनीतियों के तहत सबसे अधिक उपयोग होता है डाइवर्जन टेक्नीक (Diversion Technique) और डिस्ट्रैक्शन स्ट्रैटेजी (Distraction Strategy) का। जब कोई ऐसा मुद्दा उठता है, जो किसी नेता, सरकार या संगठन के लिए असहज हो सकता है, तो तुरंत एक बड़ा और भावनात्मक मुद्दा उछाल दिया जाता है। जनता का ध्यान उस मूल मुद्दे से हटकर नए मुद्दे पर केंद्रित हो जाता है। यह रणनीति इतनी प्रभावी है कि कभी-कभी जनता यह समझ ही नहीं पाती कि उसे असल में क्या देखना चाहिए था।

इसके साथ ही, एजेंडा सेटिंग (Agenda Setting) एक और महत्वपूर्ण तकनीक है, जिसमें मीडिया द्वारा किसी खास मुद्दे को प्राथमिकता दी जाती है। यह प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि जनता को लगता है कि वही मुद्दा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जबकि असल में यह केवल एक नियोजित रणनीति का हिस्सा होता है। उदाहरण के लिए, जब किसी नेता की आलोचना बढ़ जाती है, तो उनकी टीम मीडिया में कुछ ऐसे सकारात्मक मुद्दे लाती है, जो उनकी छवि को संवारने का काम करें।

व्हाटअबाउटरी (Whataboutism) इस खेल का तीसरा प्रमुख उपकरण है। जब किसी संगठन या नेता पर कोई सवाल उठता है, तो इसके जवाब में किसी अन्य मुद्दे या घटना का उदाहरण दिया जाता है। यह मूल चर्चा को भटकाने और आलोचना को कमजोर करने का प्रयास होता है। उदाहरण के लिए, यदि भ्रष्टाचार पर सवाल उठता है, तो जवाब में कहा जाता है कि "लेकिन फलां सरकार ने तो इससे भी बड़ा घोटाला किया था।" इस तरीके से असल सवाल का जवाब दिए बिना उसे दरकिनार कर दिया जाता है।

इन सभी तकनीकों को कार्यान्वित करने वाले वही लोग होते हैं, जो मास कम्युनिकेशन के छात्र या पत्रकार होते हैं। वे पीआर एजेंसियों में काम करते हुए शब्दों और विचारों को इस तरह से गढ़ते हैं, जिससे एक निश्चित एजेंडा पूरा हो सके। इन एजेंसियों के भीतर काम करने वाले लोगों को यह सिखाया जाता है कि कैसे जनता की भावनाओं को भुनाया जाए, कैसे सामाजिक मुद्दों को राजनीति के लिए उपयोग किया जाए, और कैसे मीडिया को अपने पक्ष में मोड़ा जाए।

इस पूरी प्रक्रिया के बीच मीडिया एथिक्स और पब्लिक कम्युनिकेशन जैसे शब्द खो से गए हैं। मीडिया एथिक्स पत्रकारिता में सत्य, निष्पक्षता, और जवाबदेही की बात करता है। यह कहता है कि पत्रकारिता का उद्देश्य जनता को सही जानकारी देना और समाज को सशक्त बनाना है। लेकिन पीआर एजेंसियों का मुख्य लक्ष्य अपने क्लाइंट को लाभ पहुंचाना होता है, चाहे इसके लिए सत्य को तोड़ा-मरोड़ा ही क्यों न जाए।

पब्लिक कम्युनिकेशन का उद्देश्य था जनता के साथ संवाद स्थापित करना और उनकी समस्याओं का समाधान ढूंढना। लेकिन आज यह केवल एकतरफा प्रक्रिया बन गई है, जिसमें जनता केवल वही सुनती है, जो उसे सुनाया जाता है। संवाद की जगह प्रचार ने ले ली है, और समस्याओं के समाधान की बजाय छवि निर्माण को प्राथमिकता दी जा रही है।

इस रहस्यमयी कमरे की शक्ति इतनी व्यापक हो गई है कि आज एक साधारण जन प्रतिनिधि भी इसके बिना अपने राजनीतिक जीवन की कल्पना नहीं करता। हर भाषण, हर ट्वीट, और हर बयान इस कमरे में तैयार होता है। हर शब्द का वजन तोला जाता है, हर वाक्य का असर समझा जाता है।

यह स्थिति समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए चिंताजनक है। जनता को ऐसे मुद्दे दिए जा रहे हैं, जो असल में उनके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं डालते, जबकि वास्तविक समस्याएं कहीं खो जाती हैं। पत्रकारों की भूमिका केवल सूचना देने की थी, लेकिन अब वे इस तंत्र का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

इस रहस्यमयी कमरे में क्या होता है, यह जानना मुश्किल है। लेकिन यह स्पष्ट है कि इस कमरे का उद्देश्य जनता को सशक्त बनाना नहीं, बल्कि उसे नियंत्रित करना है। सवाल यह है कि क्या हम इस तंत्र को पहचान पाएंगे? क्या हम अपनी प्राथमिकताओं को सही दिशा में मोड़ पाएंगे? या फिर यह खेल यूं ही चलता रहेगा, और समाज असल सच्चाई से वंचित रह जाएगा?

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