"सपनों की जमीन या बर्बादी का जाल?" - दिवाकर शर्मा
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दिवाकर की दुनाली से ✍️✍️
शिवपुरी का बाजार इन दिनों अजीब सी हलचल से भरा हुआ है। जमीनों के सौदों का ऐसा जुनून छाया है कि मानो शहर के प्रॉपर्टी डीलरों ने एक नई दौलत की दुनिया खोज ली हो। हर गली, हर मोहल्ले में इन्हीं के चर्चे हैं। कहते हैं कि जमीनों के बढ़ते दाम इनके कारण हैं, लेकिन हकीकत इससे कहीं ज्यादा गहरी और काली है।
यह जमीन का खेल साधारण नहीं, बल्कि एक ऐसे नशे में तब्दील हो चुका है, जिसने इन्हें असलियत से कोसों दूर कर दिया है। शहर की अधिकांश जमीनें इनके कब्जे में हैं। किसी आम आदमी का घर का सपना अब इनके कारण एक सपना बनकर ही रह गया है। इस खेल में न कोई विवाद मायने रखता है, न कोई नियम। हर वह जमीन, जिस पर कोई और कदम नहीं रख सकता, इन्हें जैसे पुकारती है।
शासन-प्रशासन और राजनीतिक रसूख का यह खेल सधे हुए कदमों से चलता है। ऐसे समझौतों और गठजोड़ों की कहानी है, जिनका दस्तावेज कहीं नहीं मिलता। विवादित जमीनें कैसे अचानक 'साफ' हो जाती हैं, यह सवाल हर किसी के मन में उठता है, पर जवाब देने वाला कोई नहीं।
इस खेल के खिलाड़ी अब केवल शिवपुरी तक सीमित नहीं हैं। उनकी धमक राजधानी के गलियारों में और अन्य जिलों के बड़े नामों के साथ गूंज रही है। पर इस गूंज के पीछे छिपी है बेचैनी और बर्बादी की सच्चाई। जमीन खरीदने का यह नशा इतना हावी हो चुका है कि उनकी रातों की नींद छीन ले गया है। कई खिलाड़ी तो कर्ज के ऐसे मकड़जाल में फंसे हैं कि बाहर निकलने का रास्ता उन्हें खुद भी नजर नहीं आता।
इन्हीं प्रॉपर्टी डीलरों ने अपने चारों ओर एक ऐसा आभामंडल रच दिया है, जो लोगों को भ्रमित करता है। जो उन्हें देखता है, वह उनकी संपत्ति और रसूख से प्रभावित होकर उसी रास्ते पर चल पड़ता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि जो दिख रहा है, वह महज एक छलावा है। यह ख्वाब की तरह सुंदर और हकीकत की तरह कठोर है।
इन ख्वाबों के पीछे की असलियत जब उजागर होती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जमीन का यह खेल केवल जमीन तक सीमित नहीं है; यह रिश्तों, भरोसे, और इंसानियत को भी निगलने की ताकत रखता है।
क्या यह खेल रुकेगा? शायद नहीं। क्योंकि नशे का अंत तभी होता है, जब नशा करने वाला खुद इसके परिणामों को भोगे। और शिवपुरी में, यह नशा अपने चरम पर है।
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विष्णु मंदिर के पीछे, गणेश कॉलोनी,
शिवपुरी (म.प्र.)
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