"भारतीय लोकतंत्र: प्राचीन स्वशासन परंपराओं से आधुनिक चुनौती तक का सफर"
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भारत के लोकतंत्र को लेकर चल रही वर्तमान चर्चाएँ न केवल इसकी ऐतिहासिक गहराई को समझने का अवसर प्रदान करती हैं, बल्कि यह भी प्रश्न उठाती हैं कि क्या हमारे वर्तमान लोकतंत्र का स्वरूप हमारे प्राचीन भारतीय मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप है। यह विचार विशेष रूप से तब प्रासंगिक हो जाता है जब हम देखते हैं कि विदेशी आक्रांताओं के आगमन से पूर्व भारत में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाएं कितनी गहरी और सशक्त थीं। भारत का प्राचीन समाज शासन और सामूहिक निर्णय की अवधारणाओं से परिचित था, जो पश्चिमी लोकतंत्र के आगमन से कहीं पहले विकसित हो चुकी थीं।
वर्तमान में नए संसद भवन के उद्घाटन से लेकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मीडिया की भूमिका, विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच संतुलन, और चुनावी पारदर्शिता जैसे विषयों पर जो बहसें चल रही हैं, वे भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप और उसकी जड़ों को समझने की आवश्यकता को और गहरा करती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए संसद भवन को "लोकतंत्र का मंदिर" बताया, लेकिन क्या यह आधुनिक लोकतंत्र वास्तव में उस स्वशासन के मॉडल को प्रतिबिंबित करता है जो भारत के प्राचीन गणराज्यों और पंचायतों में देखने को मिलता था?
प्राचीन भारत में गणराज्य और महाजनपद जैसे उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि यहां निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी को महत्व दिया जाता था। लिच्छवी और मल्ल गणराज्यों में नागरिक सभा के माध्यम से शासन होता था, जहां जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सकती थी। इन प्रणालियों में शासकों को धर्म, न्याय और सत्य के सिद्धांतों का पालन करना अनिवार्य था। इसके विपरीत, आधुनिक लोकतंत्र की संरचना पश्चिमी मॉडल पर आधारित है, जो भारतीय समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों से बहुत अलग है।
महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने इस बात को पहचाना और ग्राम स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत की। गांधीजी का मानना था कि केंद्रित सत्ता भारतीय समाज के लिए हानिकारक होगी। उनका विचार था कि स्वशासी गांव भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करेंगे। इसी प्रकार, रवींद्रनाथ ठाकुर ने चेतावनी दी थी कि पश्चिमी लोकतंत्र का मॉडल भारत की सांस्कृतिक विविधता को क्षति पहुंचा सकता है। उनका यह डर सही साबित होता दिखता है, जब हम आज भारतीय समाज में जातिगत और वर्गीय विभाजन को गहराता हुआ देखते हैं।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने भी यह चेताया था कि जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता स्थापित नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो पाएगा। आज भी, भारत के लोकतंत्र में सामाजिक न्याय और वंचित वर्गों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे प्रासंगिक बने हुए हैं। यह विडंबना ही है कि भारतीय संविधान के निर्माता द्वारा दी गई इस चेतावनी के बावजूद, लोकतंत्र अभी तक समाज के सबसे निचले तबके तक समान रूप से नहीं पहुंच पाया है।
मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा भी प्राचीन भारतीय परंपरा की तुलना में कमजोर नजर आता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ और परंपराएं विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्व देते थे। लेकिन वर्तमान समय में मीडिया पर दबाव, पत्रकारों की गिरफ्तारी, और सत्ता के इशारे पर चलने वाले समाचार तंत्र ने लोकतंत्र की इस प्रमुख आधारशिला को कमजोर कर दिया है।
इसके अलावा, चुनावी सुधार और पारदर्शिता जैसे विषयों पर चल रही बहस यह दिखाती है कि भारत में लोकतंत्र की प्रक्रियाएं अभी भी बाहरी प्रभावों से ग्रस्त हैं। प्राचीन भारत की पंचायती व्यवस्था, जहां प्रत्येक गांव स्वतंत्र रूप से अपने निर्णय लेता था, उसकी तुलना में आधुनिक लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और धनबल का प्रभाव कहीं अधिक है।
जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तो कई नेताओं ने चेताया था कि आधुनिक लोकतंत्र का स्वरूप भारतीय समाज के लिए उपयुक्त नहीं होगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इसे धीमी और अव्यवस्थित प्रक्रिया बताया, जबकि राम मनोहर लोहिया ने इसे पूंजीवादी शक्तियों के हाथ में जाने वाला उपकरण माना। इसी प्रकार, एम.एन. रॉय ने इसे साम्राज्यवादी ताकतों का उत्पाद बताया और "रेडिकल ह्यूमनिज्म" के सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
इन सभी विचारों का अध्ययन करते हुए यह स्पष्ट होता है कि भारत को एक ऐसा लोकतंत्र चाहिए जो उसकी प्राचीन परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों से मेल खाता हो। प्राचीन भारत के स्वशासन मॉडल ने जो समन्वय और सामूहिक जिम्मेदारी का उदाहरण प्रस्तुत किया था, उसे आज के लोकतंत्र में समाहित करने की आवश्यकता है।
भारत का आधुनिक लोकतंत्र विदेशी मॉडल पर आधारित है, जो भारत की विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के अनुरूप नहीं है। यह समय की मांग है कि हम अपने प्राचीन स्वशासन प्रणालियों को पुनर्जीवित करें और उन्हें आधुनिक संदर्भ में ढालें। तभी हम एक ऐसा लोकतंत्र स्थापित कर पाएंगे, जो न केवल शक्तिशाली होगा, बल्कि न्याय, समता और सांस्कृतिक विविधता के मूल्यों को भी संरक्षित रखेगा।
भारत के लोकतंत्र को भारतीय जनता की वास्तविक आवश्यकताओं और परंपराओं के अनुरूप होना चाहिए। यह समय है कि हम अपने अतीत से प्रेरणा लें और अपने लोकतंत्र को उन सिद्धांतों पर आधारित करें जो भारतीय समाज के मूल में हैं। तभी भारत का लोकतंत्र वास्तव में "लोकतंत्र का मंदिर" कहलाने योग्य होगा।
सन्दर्भ -
"हिंद स्वराज" - महात्मा गांधी
"द इंडियन पॉलिटी" - एम.एन. रॉय
"डेमोक्रेसी इन इंडिया" - रवींद्रनाथ ठाकुर
"भारतीय लोकतंत्र का पुनर्निर्माण" - दत्तोपंत ठेगड़ी
द हिस्ट्री ऑफ द गणराज्य" - के.पी. जायसवाल
"सोशल जस्टिस एंड द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन" - डॉ. बी.आर. अंबेडकर
"भारतीय लोकतंत्र और उसकी चुनौतियां" - राम मनोहर लोहिया
ग्राम पंचायत और स्वशासन" - धर्मपाल
लेख और शोध पत्र:
"The Ancient Indian Republics" - रघुनाथ प्रसाद
"Indian Democracy: A Colonial Legacy" - एन.सी. साहा
"Self-Rule in Ancient India" - सुनील कुमार
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दिवाकर की दुनाली से
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