"शिवपुरी खाद्य विभाग की चटनी जाँच: असली खलनायक का पर्दाफाश!"

 



शिवपुरी में शादी समारोह का माहौल था, गाजे-बाजे के साथ बारातियों की मस्ती और रिश्तेदारों की गहमागहमी के बीच सभी लोग आनंद उठा रहे थे। सबकुछ सामान्य और अच्छा चल रहा था कि अचानक फूड प्वाइजनिंग की खबर से माहौल बदल गया। करीब सौ से ज्यादा लोग फूड प्वाइजनिंग की चपेट में आ गए, अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी। स्वास्थ्य विभाग हरकत में आया, अफसरों के बीच हलचल मच गई। अस्पताल के बिस्तरों पर भर्ती लोगों का हालचाल पूछने के बाद अधिकारी इस नतीजे पर पहुंचे कि दोषी कोई और नहीं बल्कि मासूम-सी चटनी है।


अब भला चटनी के सिर पर पाप मढ़ने का क्या मतलब? शादी-ब्याह जैसे पवित्र आयोजन में चटनी पर सारा दोष मढ़ना एक अलग ही सोच को दर्शाता है। मावा-पनीर जैसी महंगी और प्रतिष्ठित सामग्रियां मौजूद थीं, लेकिन इस फूड प्वाइजनिंग के रहस्य को सुलझाने में फूड विभाग की सारी जांच-परख सीधे चटनी पर आकर टिक गई। विभाग ने चटनी को तुरंत "खलनायक" करार दे दिया, जैसे किसी बॉलीवुड फिल्म में बिचारा दोस्तनुमा विलेन।


अब सोचने वाली बात है कि यह चटनी ऐसी भी क्या चीज़ है जिसे विभाग इतना गंभीरता से लेने लगा? हर घर की रसोई में एक वक्त आता है जब सब्जी न हो तो चटनी और रोटी से पेट भरने का इंतजाम कर लिया जाता है। शायद विभाग को यह बात समझ नहीं आई कि इस गरीब की साथी चटनी पर दोष मढ़ने से जनता की भौंहें तन जाएंगी। भला, शादी में मेहमान केवल चटनी खाने तो नहीं गए होंगे, फिर भी इस हद तक चटनी को दोषी ठहराना किस तर्क से समझा जाए?


शिवपुरी का फूड विभाग मानो चटनी के साथ 'फ्री फायर' खेलने में जुट गया हो। मावा, पनीर, दूध, मलाई सब बरी हो गए और यह साधारण सी चटनी हर सवाल का जवाब बन गई। जैसे कोई मास्टरमाइंड जिसकी चालाकी पर किसी को संदेह तक न हो, चटनी चुपचाप फूड प्वाइजनिंग की जड़ बन गई। मावा और पनीर का इस खेल में बाइज़्जत बरी होना एक अलग ही राजनीति की ओर इशारा करता है।


अब जनता भी जानती है कि शादी-ब्याह में व्यंजन तो तरह-तरह के होते हैं, फिर भी अचानक चटनी को अपराधी ठहरा देना एक हास्यास्पद ढंग है। अगर जांच ठीक से होती तो शायद मावा और पनीर के भी सैंपल लिए जाते, उनके भीतर की 'पवित्रता' का भी आंकलन होता। लेकिन यहां तो सीधे चटनी का अपमान कर दिया गया। यह तो वही बात हो गई कि पूरी बारात में दूल्हे का दोष छोड़कर घोड़ी को ही अपराधी करार दे दिया जाए।


स्वास्थ्य विभाग का यह रवैया दिखाता है कि कैसे अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जा सकता है। बड़े पैमाने पर मेहमानों की तबीयत बिगड़ने के बाद जांच के नाम पर एक ही निष्कर्ष निकालना—"चटनी ही खलनायक है"—वास्तव में एक मजाक जैसा लगता है। क्या फूड विभाग को यह एहसास नहीं हुआ कि शायद भोजन की बाकी सामग्री भी दोषी हो सकती है? कहीं न कहीं इस बात का अंदेशा रहता है कि मावा और पनीर की गुणवत्ता से जुड़े सवाल न खड़े हो जाएं, इसलिए ‘बदनाम होनी थी तो चटनी ही सही’ का फार्मूला अपना लिया गया।


एक और हैरत की बात है कि यह चटनी इतनी ‘खतरनाक’ साबित हो गई कि बाकी सभी सामग्री सीधे-सीधे बच निकली। शायद मावा और पनीर का ‘वीआईपी ट्रीटमेंट’ विभाग की प्राथमिकताओं में हो, जो चटनी जैसी आम और कम कीमत वाली चीज़ पर जांच की ‘जबरदस्त मार’ पड़ती है। आखिरकार, फूड विभाग भी तो अपनी शान बचाए रखना चाहता है। मावा और पनीर जैसे सम्मानित भोजन सामग्री की प्रतिष्ठा बरकरार रखनी होती है, वर्ना उनके सैंपल लेने से तो कई बड़े नाम कटघरे में आ सकते थे।


यह सोचने पर विवश करता है कि क्या वाकई चटनी इतनी कुख्यात है या यह विभाग की आसान जांच प्रक्रिया का नतीजा है। अगर ईमानदारी से देखा जाए तो स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी थी कि पूरे भोज्य पदार्थों की जांच करता, लेकिन किसी एक को दोषी ठहरा देना कहीं न कहीं इस मामले को ‘रफा-दफा’ करने की कवायद दिखती है।


अब जनता भी सावधान रहे, आने वाले समय में यदि किसी शादी में चटनी परोसी जाए तो वह वही ‘खलनायक’ चटनी हो सकती है, जिसने एक पूरे जिले को हिला दिया था। हालांकि असलियत शायद ही सामने आए, क्योंकि अब तो विभाग ने चटनी को ‘बली का बकरा’ बना दिया है।

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