प्राचीन काल में, जब धरती पर जीवन का उदय हुआ और समुद्री और स्थलीय जीव खुली हवा में सांस लेने लगे, उस समय आज के शिवपुरी जिले का एक भाग समुद्र से घिरा हुआ था। यह कल्पना ही रोमांचक है कि लाखों वर्ष पूर्व इस धरती पर सागर की लहरें हिलोरे मारती थीं। लेकिन एक दिन, किसी ज्वालामुखी ने इस शांत वातावरण को भंग कर दिया। समुद्र का पानी बहे जाने के बाद वहाँ से लावा निकलने लगा, जिसने वहां के समुद्री जीवों और शंखों को अपनी चपेट में ले लिया। अत्यधिक ताप और दबाव के कारण ये शंख और अन्य समुद्री प्राणी जीवाश्म बनकर पत्थरों में बदल गए, और आज भी ये कोलारस विकासखंड के कुंडा, कुदोनिया, राई और रामराई गाँवों के पर्वतीय क्षेत्र में मिलते हैं।
शंखचूड़ पर्वत की लोककथा
इस क्षेत्र के ग्रामीणों का मानना है कि यहाँ स्थित पहाड़ों का संबंध शंखचूड़ पर्वत से है, जिसका उल्लेख पौराणिक शास्त्रों में मिलता है। यह माना जाता है कि भगवान विष्णु ने शंखचूड़ नामक असुर का वध यहीं किया था। इस घटना को यहाँ के लोग धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण मानते हैं, और इस क्षेत्र में शंख प्राप्त होने को भगवान शिव का वरदान मानते हैं। वैज्ञानिक इन्हें जीवाश्म कहते हैं, लेकिन ग्रामीणों के लिए यह अद्भुत चमत्कार और आस्था का प्रतीक है।
शंख की ब्राह्मण कथा
लोककथाओं में इस क्षेत्र की पहाड़ियों से जुड़ी एक प्राचीन कहानी भी है। कहते हैं कि एक ब्राह्मण, जो भगवान शिव का अनन्य भक्त था, अत्यंत गरीब था। एक दिन भगवान शिव ने उसे वरदान स्वरूप एक शंख प्रदान किया, जिससे वह जो कुछ भी मांगता, उसे मिल जाता था। ब्राह्मण इस शंख से अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताएं पूरी करता था। एक दिन गाँव वालों ने उसकी समृद्धि का राज जानने की कोशिश की, और ब्राह्मण ने शंख की कहानी बता दी। ग्रामीणों ने उसकी परीक्षा लेने के लिए एक भंडारे की मांग की, जिसमें शंख ने सभी को स्वादिष्ट भोजन कराया, और उसके चमत्कार की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई।
जब यह बात बादशाह तक पहुंची, तो उसने वह चमत्कारी शंख हासिल करने का आदेश दिया। ब्राह्मण ने इसे देने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बादशाह ने उसे बंदी बना लिया। लेकिन ब्राह्मण ने शंख को पहाड़ों में कहीं छिपा दिया। राजसेना ने शंख की तलाश में पहाड़ियों को खंगाल डाला, लेकिन हर पत्थर तोड़ने पर शंख ही निकलने लगे। यह परमेश्वर का चमत्कार माना गया, और बाद में बादशाह ने ब्राह्मण को छोड़ दिया। असली शंख तो कभी नहीं मिला, लेकिन उसके अवशेष आज भी इन पहाड़ियों में मिलते हैं।
प्राचीन धरोहर: रामराई और राई गाँव
कोलारस के निकट स्थित राई गाँव, जो पहले श्रीवास्तव कायस्थ परिवार की जागीर थी, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रलयकाल के समय का एक प्राचीन मंदिर है, जिसे रामेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर के परिसर में भैरोबाबा की 15 फीट ऊँची प्रतिमा स्थित है। ग्रामीणों का मानना है कि भैरोबाबा एक समय जरूरतमंदों को कर्ज देते थे, जिसे पटिये पर रखा जाता था। हालांकि, एक धोबी द्वारा गधा बांधने की घटना के बाद भैरोबाबा ने कर्ज देना बंद कर दिया।
जल संरक्षण की समस्या
रामराई क्षेत्र में भैरोबाबा मंदिर के समीप कुछ कुंड और तालाब भी हैं, जिनसे ग्रामीणों की आस्था जुड़ी है। लेकिन वर्तमान समय में जल संरक्षण की उपेक्षा के कारण ये तालाब सूखे पड़े हैं। प्रशासन द्वारा इन्हें भरने के बजाय पानी को निकाल दिया जाता है, जिससे गर्मियों में पशु-पक्षी पानी के लिए तरसते रहते हैं। इस ऐतिहासिक स्थल के साथ जुड़ी गुफाएँ और द्वार भी देखने योग्य हैं, जो संभवतः प्राचीन ऋषियों की तपस्या स्थली रही होंगी।
यह अद्भुत जानकारी हमें शिवपुरी के वरिष्ठ साहित्यकार, लेखक, रंगकर्मी, अभिनेता और इतिहासकार श्री अरुण अपेक्षित जी की कृति "शिवपुरी – अतीत से आज तक" से प्राप्त हुई है। यह पुस्तक शिवपुरी के इतिहास को उजागर करने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, और इसके द्वारा इस क्षेत्र की समृद्ध धरोहर और पौराणिक कहानियों को जानने का अवसर मिलता है। यदि इस ग्रंथ को शिवपुरी का ऐतिहासिक दस्तावेज कहा जाए, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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