शिवपुरी में 'शाम-ए-दीपावली': दीयों की रोशनी में मुशायरा या एक नई बहस?

 

शिवपुरी, अपनी संस्कृति और परंपराओं के लिए जाना जाता है, लेकिन हाल ही में एक नया चर्चा का विषय बना है - शाम-ए-दीपावली। दीपावली पर मुशायरे की अनोखी पहल ने जहां कुछ लोगों की भौंहें चढ़ा दी हैं, वहीं कुछ लोग इसे एक नए रंग में रंगी दीपावली के रूप में देख रहे हैं। हालांकि, आयोजक का नाम न होना और कहीं से भी कोई जानकारी न मिलना, इसे थोड़ा रहस्यमयी भी बना देता है। आखिर यह किसका प्रोग्राम है? कोई गुप्त संघटन है, या फिर यह 'आधुनिक टुकड़े-टुकड़े गैंग' का कोई नया अभियान?

गरबा से 'छपरी कार्यक्रम' तक: क्या ये नया ट्रेंड है?

जब गरबा जैसे पारंपरिक कार्यक्रम को लेकर 'नचनिया और छपरी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा, तो समझ में आया कि अब मनोरंजन भी विवादों का हिस्सा बन गया है। गरबा, जो धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, उसे इस तरह का नाम देना अपने आप में एक सवाल है। और अब 'शाम-ए-दीपावली' जैसा कार्यक्रम, जहां दीपों की रोशनी के बीच मुशायरा करवाने का ऐलान हो रहा है, एक और चर्चा का विषय बन गया है। यह तय करना मुश्किल है कि ये 'संस्कृति का संगम' है या फिर 'मिश्रण की गड़बड़ी'।

भदैया कुंड या भड़िया कुंड: नामों का खेल

शिवपुरी के प्रिय पर्यटन स्थल भदैया कुंड को 'भड़िया कुंड' लिखने वाले भला क्या सोच रहे थे? यह नामकरण तो वैसे ही विवादित हो गया जैसे कि दीपावली पर मुशायरे की बात। यह नामों की मिक्सिंग आखिर किस सोच का परिणाम है? क्या यह महज एक टाइपो है, या फिर किसी बड़े षड्यंत्र की आहट?

शिवपुरी की जनता शायद ऐसी 'सुगबुगाहट' को भांपने में माहिर हो गई है, और यह बात साफ है कि लोगों के अंदर गुस्सा पनप रहा है। दीपावली, जो रौशनी और खुशियों का त्योहार है, उसमें मुशायरा जैसी गतिविधियां लाना कहीं न कहीं इन पारंपरिक मूल्यों के साथ छेड़छाड़ की तरह लगता है।

'शाम-ए-दीपावली': दीपों के बीच शेरो-शायरी?

अब सवाल यह उठता है कि दीपावली पर मुशायरे की क्या आवश्यकता है? दीपावली तो लक्ष्मी पूजा, पटाखे, मिठाइयों और रोशनी का त्योहार है, फिर यह शेरो-शायरी बीच में कैसे आ गई? क्या शिवपुरी वाले लोग अचानक से मुशायरे के दीवाने हो गए हैं, या फिर यह एक नया प्रयोग है जो शायद काम न आए?

यदि किसी ने बिना जानकारी के यह कार्यक्रम रख दिया, तो उसे भी समझना चाहिए कि दीपावली पर लोग लक्ष्मी की पूजा के लिए तैयार होते हैं, न कि किसी उर्दू ग़ज़ल के लिए।

मजाक में ही सही, लेकिन एक सख्त संदेश

मजाक में तो कह दिया गया कि "पैर तले जमीन कब खिसक जाएगी पता ही नहीं चलेगा," लेकिन हकीकत यही है कि समाज में इस तरह की 'मिश्रण संस्कृति' अब बहुतों को नागवार गुजर रही है। यह जरूरी है कि आयोजक इस कार्यक्रम की मंशा साफ करें और जनता को यह बताएं कि आखिर दीपावली पर मुशायरा करने की योजना किसने बनाई और क्यों?

अगर यह सांस्कृतिक मेलजोल का हिस्सा है, तो भी ठीक है, लेकिन दीपावली की परंपरा को समझना और उसका सम्मान करना निहायत जरूरी है। अन्यथा, यह आयोजन भविष्य में विवाद का बड़ा मुद्दा बन सकता है।

शिवपुरी जैसे सांस्कृतिक धरोहर वाले शहर में शाम-ए-दीपावली जैसा अनोखा कार्यक्रम एक नई बहस को जन्म दे रहा है। लोगों की भावनाओं और परंपराओं को समझना और सम्मान देना आवश्यक है। दीपावली का त्योहार रोशनी, खुशियों और आस्था का प्रतीक है, और इस पवित्र मौके पर किसी भी कार्यक्रम का आयोजन समाज की सांस्कृतिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए ही किया जाना चाहिए।

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