पत्रकारिता और साहित्यिक सम्मान: वास्तविकता से दूर, एक ढोंग का खेल – दिवाकर शर्मा

 



समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य का रिश्ता बदलता गया है। कभी ये माध्यम सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का वाहक हुआ करते थे, मगर आज सम्मान और प्रशंसा की दौड़ में असली लेखन पीछे छूटता दिख रहा है। पत्रकारिता, जिसे कभी जनता की आवाज कहा जाता था, अब कुछ ऐसे लेखकों और समीक्षकों के हाथों की कठपुतली बन गई है, जो केवल सम्मान और प्रशंसा के लिए जीते हैं, जबकि साहित्यिक मूल्य और लेखन की गुणवत्ता हाशिए पर चली गई है।

सम्मान का ढोंग

आज का लेखक दो प्रकार का होता है—पहला, जो सम्मान और प्रशंसा के लिए लिखता है, और दूसरा, जो केवल लिखने के लिए। दुर्भाग्य से, जो केवल लिखने के लिए लिखते हैं, उनकी कृतियां पाठकों तक पहुँच ही नहीं पातीं। दूसरी ओर, जो सम्मान के लिए लिखते हैं, उनके पास एक मजबूत समीक्षकों और संपादकों का जाल होता है। वे हर बड़े साहित्यिक मंच पर अपनी जगह बना लेते हैं, भले ही उनकी कृतियों में वो गहराई और मौलिकता न हो, जिसकी आज के समय में सख्त ज़रूरत है।

यह विडंबना ही है कि अक्सर किसी "सम्मानित लेखक" की कृति को न तो कोई जानता है, न ही उस पर कभी चर्चा होती है। मगर, ये लेखक सम्मान समारोहों की पहली पंक्ति में जरूर दिखाई देते हैं। उनके ऊपर 'सम्मानित' शब्द का ऐसा आवरण चढ़ा होता है कि असली लेखक पीछे और नीचे रह जाते हैं।

समीक्षकों और संपादकों का खेल

पत्रकारिता में समीक्षकों और संपादकों की भूमिका हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। वे एक पुल के रूप में काम करते हैं, जो पाठक और लेखक के बीच संबंध स्थापित करते हैं। लेकिन जब यही समीक्षक और संपादक किसी विशेष 'सम्मानित' लेखक के चरणचुंबन में लगे रहते हैं, तब वास्तविक लेखक के लिए मंच का दरवाजा बंद हो जाता है।

समीक्षक और संपादक का गठजोड़ इस तरह से काम करता है कि उनके द्वारा 'चयनित' लेखक को हर प्रतिष्ठित पत्रिका और समाचार पत्र में जगह मिल जाती है। समीक्षाएँ प्रकाशित होती हैं, मानो वे महान साहित्यकार हों। लेकिन यह चर्चा केवल कागजों में सिमटकर रह जाती है, क्योंकि वास्तविक पाठक तक वह कृति कभी नहीं पहुँच पाती।

वास्तविक लेखकों की अनदेखी

जो लेखक अपने लेखन में वास्तविकता, संघर्ष, और समाज के मुद्दों को उठाते हैं, वे अक्सर इस तथाकथित साहित्यिक समुदाय द्वारा नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। उनके लिए न तो सम्मान होता है, न बड़े मंच, और न ही समीक्षकों की महिमा। वे बस अपने लेखन में लगे रहते हैं, बिना किसी मान्यता या प्रतिष्ठा की उम्मीद के। असली लेखन और रचनात्मकता को भुलाकर, यह समाज उस साहित्य को आगे बढ़ा रहा है जो केवल 'सम्मान' के लिए लिखा जाता है।

पत्रकारिता का गिरता स्तर

आज पत्रकारिता का गिरता स्तर भी इसी खेल का हिस्सा बन गया है। पत्रकार, जो कभी सच्चाई और जनहित के लिए लिखते थे, अब उन्हीं 'सम्मानित लेखकों' की तारीफों के पुल बांधते दिखाई देते हैं। वे जानते हैं कि अगर उन्हें साहित्यिक और सामाजिक ऊँचाई पर पहुंचना है, तो उन्हें इसी समूह के साथ चलना होगा। यह स्थिति पूरी पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा करती है, जहाँ वास्तविकता की जगह दिखावे और प्रतिष्ठा की भूख ने ले ली है।

यह समय है कि हम साहित्यिक सम्मान और पत्रकारिता की इस जटिल प्रणाली पर गंभीरता से विचार करें। वास्तविक लेखकों और उनके कार्यों को पहचान दिलाने की आवश्यकता है। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सच्चाई को उजागर करना और समाज में सकारात्मक बदलाव लाना था, न कि सम्मानित लेखकों के झूठे गौरव की महिमा गाना। हमें एक ऐसे साहित्यिक और पत्रकारिक समाज का निर्माण करना होगा, जहाँ असली लेखक और उनके कार्यों को उनका उचित स्थान मिले, और साहित्यिक सम्मान एक ढोंग न रहकर सच्ची उपलब्धियों का प्रतीक बन सके।

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