बांग्लादेश में हिंदुओं के नरसंहार पर अमेरिका की चुप्पी: क्या है वजह? - डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
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भारत गांधी का पैदा किया हुआ राजनीतिक देश नही सनातन राष्ट्र है। बंगाल ने उस संन्यासी को विस्मृत कर दिया, जिनका केवल चित्र मात्र ही आपके मन मस्तिष्क को हिंदुत्व के तेज से आलोकित कर देता है.......बंगाल ने उस संन्यासी "स्वामी प्रणवानंद" को भी भुला दिया। बंगाल समाज ने डायरेक्ट एक्शन डे के मुख्य सिपहसालारों में एक "बंगबंधु मुजीब" के लिए आहें भरी और अपने गौरव के रक्षक गोपाल पाठा को भूला दिया। तो जो हो रहा था वो तो होना ही था।
आख़िर ऐसी क्या मजबूरी है? कांग्रेस और राहुल गांधी को गाजा की चिंता तो है, मगर बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर बोलने में इनके होंठ सिल जाते हैं। हिंदुओं को सोता हुआ मानकर उन्हें जगाने में अगर आप कुछ सार्थक कार्य कर रहे हैं तो उसकी सूचना दें और लोगों से जुड़ने का आह्वान करें अथवा कोई उच्च विचार व्यक्त करें। जैसे प्रज्ञा प्रवाह ने संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार संगठन को बांग्लादेश के हिंदुओं के उत्पीड़न के विषय में ज्ञापन देने का आह्वान किया है। उसे अधिक से अधिक भरें और भेजे। इसी प्रकार 14 अगस्त, 15 अगस्त दोनों दिन विभाजन की विभीषिका में मारे गए हिंदुओं के लिए श्राद्ध संकल्प दिवस घोषित किया है, उसमें सहभागिता करें । इसी प्रकार के सार्थक कार्यों में सहयोग करें। विलाप करना बंद रखें और हिंदू समाज की निंदा की हमारे किसी भी पटल पर अनुमति नहीं है। आप अपने दायरे में गालियां देते रहे।
विगत कुछ दिनों से बांग्लादेश में हिंदू तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की लक्षित हत्या, लूटपाट, आगज़नी, महिलाओं के साथ जघन्य अपराध तथा मंदिर जैसे श्रद्धास्थानों पर हमले असहनीय है। बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से अपेक्षा है कि वह तुरंत सख़्ती से ऐसी घटनाओं पर रोक लगाये और पीड़ितों के जान, माल व मान के रक्षा की समुचित व्यवस्था करे। व विश्व समुदाय तथा भारत के सभी राजनीतिक दलों से भी अनुरोध है कि बांग्लादेश में लक्षित हत्या, लूटपाट, आगज़नी, महिलाओं के साथ जघन्य अपराध तथा मंदिर जैसे श्रद्धास्थानों पर हमले के शिकार बने हिंदू, बौद्ध इत्यादि समुदायों के साथ एकजुट होकर खड़े हों।
आह_बंगाल - बंगाल में पिता-पुत्र द्वय थे- देवेंद्रनाथ ठाकुर और रवींद्रनाथ ठाकुर। पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर ने बंगाल में 18वीं सदी में वो काम शुरू किया जिसे बहुत बाद महाराष्ट्र में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने शुरू किया। देवेंद्रनाथ ठाकुर हिन्दू किशोरों और तरूणों के शारीरिक सौष्ठव (बॉडी बिल्डिंग) के आग्रही थे और इसकी आवश्यकता समझते थे, इसलिए काव्य, नृत्य और विविध ललित कला में प्रवीण बंग युवकों को उनकी रुचि के प्रतिकूल भी उन्होंने अखाड़ों में भेजना शुरू हुआ और बंगाल में एक नवीन जागरण का उषाकाल शुरू हुआ।
परंतु इन्हीं देवेंद्रनाथ ठाकुर के पुत्र हुए रवींद्रनाथ टैगोर...... बंग समाज में 100 में से अगर एक 1 ने देवेंद्रनाथ को स्वीकार किया तो 99 रवींद्र की तरफ चले गए और परिणाम....... अखाड़े में पौरुष प्रदर्शन की जगह पुनः प्रेम, विरह, प्राकृतिक सौंदर्य और प्रांतीयता की भावना के ज्वार ने ले ली। इसी बंगाल में दो कवि द्वय थे - बंकिमचंद्र चटर्जी और नजरूल इस्लाम
बंकिम ने "आनंद मठ" नाम से एक महाकाव्य रचा। विविध ललित कला में प्रवीण बंग युवकों और युवतियों में भवानंद और कल्याणी (आनंद मठ के अमर पात्र जिनके मुख से वन्दे मातरम् उच्चारित हुआ था) बनने की होड़ लग गई। परिणाम बंगाल ने भारत के स्वाधीनता समर में सबसे अधिक क्रांतिकारी दिए। परंतु फिर आए नजरूल इस्लाम......उन्होंने एक कविता लिखी -
मोरा एकी ब्रिंते दुति कुसुम हिंदू-मुसलमान, मुस्लिम तर नयन मणि, हिंदू ताहर प्राण।
(हम एक डंठल पर दो फूल हैं, एक हिंदू और दूसरा मुसलमान है / जबकि मुसलमान आंख की पुतली है, हिंदू आत्मा है)"
बंकिम के वन्दे मातरम् को आत्मसात कर चुके बंग समाज ने पुनः वही किया। वन्दे मातरम् का विस्मरण कर इस कविता को आत्मसात कर किया। परिणाम .....वहां ऐसा समाज तैयार हुआ जिसकी झलक आप तस्लीमा के नॉवेल लज्जा में कॉमरेड सुरंजन दत्त, उसकी बहन और उसके उनके कॉमरेड पिता सुधामय दत्त के रूप में देख सकते हैं। कितना और क्या लिखूं बंगाल पर?
इस बंगाल ने उस संन्यासी को विस्मृत कर दिया, जिनका केवल चित्र मात्र ही आपके मन मस्तिष्क को हिंदुत्व के तेज से आलोकित कर देता है.......बंगाल ने उस संन्यासी "स्वामी प्रणवानंद" को भी भुला दिया। इस समाज ने डायरेक्ट एक्शन डे के मुख्य सिपहसालारों में एक "बंगबंधु मुजीब" के लिए आहें भरी और अपने गौरव के रक्षक गोपाल पाठा को भूला दिया। तो जो हो रहा था वो तो होना ही था।
16 अगस्त, 1946 के कलकत्ता दंगों को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा 'डायरेक्ट एक्शन डे' के आह्वान से शुरू किया गया था। बंगाल, एक विशाल मुस्लिम आबादी के अलावा, वह स्थान भी था, जो इतिहासकारों के अनुसार, उनके बीच "राजनीतिक चेतना की पहली अभिव्यक्ति" देखी गई थी. यह ढाका में था कि अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का जन्म "उपमहाद्वीप के मुसलमानों के हितों को सुरक्षित करने" के लिए हुआ था। बड़े पैमाने पर हिंसा जल्दी से राष्ट्रव्यापी सांप्रदायिक दंगों में बदल गया, जिससे कलकत्ता में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बड़े पैमाने पर हिंसा हुई, शहर कट्टरपंथी भीड़ द्वारा जकड़ा हुआ था जो बड़े पैमाने पर हिंदुओं की हत्या कर दी और व्यापक विनाश का कारण बना , तब बंगाल के मुख्यमंत्री, हुसैन शाहिद सुहरावर्दी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मॉब्स को आश्वासन दिया था कि "सशस्त्र मुसलमानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए, क्या उन्हें शहर में अपनी गतिविधियों को शुरू करने का फैसला करना चाहिए, 'इंडियाज पार्टिशन: द स्टोरी ऑफ इंपीरियलिज्म इन रिट्रीट' के लेखक डी एन पनिग्राही ने 1946 के कलकत्ता हत्याओं के शुरुआती दिनों के दौरान पुलिस और सेना की निष्क्रियता के बारे में भी बात की थी, ऐसा कहा जाता है कि सेना को इस आशंका में लाया गया था कि यूरोपीय लोगों पर हमला किया जाएगा, इस अराजकता के बीच में गोपाल चंद्र मुखर्जी का उदय हुआ, जिसे गोपाल पाथा के नाम से जाना जाता है, उन्हें एक नायक के नाम से माना जाता है, कलकत्ता में नेता, गोपाल मुखर्जी ने मुस्लिम भीड़ हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह दावा किया जाता है कि उनके प्रयासों ने कई हिंदुओं को मौत से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे उन्हें एक किंवदंती का दर्जा मिला ।
18 अगस्त से, गोपाल मुखर्जी ने हिंदू प्रतिरोध का नेतृत्व किया, हिंदू युवाओं को आक्रामकता के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित किया, उन्होंने बेघर और विधवाओं को आश्रय प्रदान किया, कहा जाता है कि उनके कार्यों से हजारों हिंदुओं को बचाने में मदद मिली। कोलकाता में, मुसलमानों ने हिंसा का खामियाजा भुगता और कहा जाता है कि वे भीड़ में शहर छोड़कर भाग गए थे गोपाल मुखर्जी और उनके लोगों ने मुस्लिम भीड़ हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध को हिंदुओं के बीच लक्षित करने के लिए कहा, जिन्होंने हिंदुओं पर हमला किया था।
20 अगस्त तक, यह स्पष्ट हो गया कि कलकत्ता, पाकिस्तान के एक हिस्से सहित बंगाल बनाने के मुस्लिम लीग के सपने को साकार नहीं किया जाएगा, मुस्लिम लीग ने हिंदू प्रतिरोध की ताकत का एहसास करते हुए गोपाल मुखर्जी से हत्याओं को समाप्त करने की अपील की, वह इस शर्त पर सहमत हुए कि मुस्लिम लीग पहले अपने सदस्यों को निर्वस्त्र करेगी और हिंदुओं की सभी हत्याओं को रोकने का वादा करेगी, गोपाल मुखर्जी एक कारण था जिसने कलकत्ता को पाकिस्तानी हाथों में पड़ने से बचाया, कहा जाता है कि उन्होंने महात्मा गांधी को हथियार सौंपने से इनकार कर दिया था, जिन्होंने दंगों के महीनों बाद हिंदुओं को अपने हथियार आत्मसमर्पण करने के लिए कहा था। द ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स भारत के इतिहास में एक दुखद प्रकरण था, लेकिन उन्होंने गोपाल मुखर्जी जैसे व्यक्तियों की भूमिका पर भी प्रकाश डाला, जिन्हें अब उनकी वीरता के लिए याद किया जाता है, वह इतिहासकारों के बीच एक चरित्र बना हुआ है ।
"एक भीड़ हिंसा आस्था समाज और उसकी संकीर्ण मानसिकता"- यह सोचना कि विकास, शिक्षा से ये समाज मानवता की ओर बढ़ेगा, मात्र एक भ्रम है। न उन्हें विकास से कोई लेना-देना है, न ही ज्ञान-विज्ञान से। उन्हें जब भी और जहां भी मौका मिलेगा, वही करेंगे जो वे सदियों से करते आए हैं। उनके लिए यही धर्म और आस्था है। वे चाहे ढाका विश्वविद्यालय में पढ़ें, जेएनयू में पढ़ें, या फिर कैम्ब्रिज या हार्वर्ड में, उनके कृत्य नहीं बदलेंगे। आप विकास की बात करेंगे, वे जनसंख्या बढ़ाने की। एक दिन ऐसा आएगा जब वे आपको आपकी ही भूमि से बेदखल कर देंगे। जिनकी अपनी जन्मभूमि और संस्कृति से कोई लगाव नहीं, उनके लिए केवल एक ही भूमि और संस्कृति प्रिय होती है। चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में रहें, उनकी प्राथमिकता रेगिस्तानी जीवन और हिंसात्मक इस्लामी संस्कृति ही रहेगी। उनके लिए हर वस्तु, स्त्री ही नहीं, केवल भोग की सामग्री है। वे कृतज्ञता के भाव से वंचित हैं, किसी के प्रति नतमस्तक नहीं होते। अगर वे अपनी ही समाज की महिला, जो उनकी उन्नति के लिए अथक प्रयास कर रही थी, उसके साथ ऐसा बर्बर व्यवहार कर सकते हैं, तो दूसरे समाज की महिलाओं के साथ उनकी क्रूरता की कल्पना भी की जा सकती है। आज जो हिंदुओं पर अत्याचार हो रहे हैं, वह उनकी परंपरा का ही हिस्सा है। शुतुरमुर्ग की तरह आंखें मूंद लेने से समस्या का समाधान नहीं होगा। उनकी वास्तविकता को स्वीकार कर जो उनसे जितनी जल्दी सतर्क होगा, वह उतना ही सुरक्षित रहेगा। मणिपुर और पूर्वोत्तर भारत के साथ म्यांमार में कई धार्मिक संगठन सक्रिय हैं। ये संस्थाएं मुंबई, पुणे, कोलकाता, बेंगलुरु, दिल्ली और चेन्नई के अलावा यंगून और म्यांमार के विभिन्न कस्बों में भी फैली हुई हैं। इनका एकमात्र उद्देश्य पूर्वोत्तर भारत, बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ हिस्सों को मिलाकर "ईसा का राज्य" स्थापित करना है।
जिस तरह के तत्वों ने बांग्लादेश में हिंसक सत्ता पलट की, वे भारत में सनातन धर्म के खिलाफ सक्रिय हैं। आपने देखा होगा कि जब आप सनातन के समर्थन में कोई पोस्ट करते हैं, तो उस पर कमेंट्स नहीं के बराबर आते हैं। वहीं इसके विपरीत, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर फेक न्यूज साइट्स का बाढ़ आया हुआ है, जो सनातन के खिलाफ भ्रामक प्रचार कर रहे हैं। इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को अमेरिका का समर्थन प्राप्त है। कोशिशें की जा रही हैं कि किसी न किसी बहाने भारत में भी अराजकता फैलाई जाए। याद रखिए, लगभग सभी मामलों में पैटर्न एक ही है। मणिपुर में अचानक बरसों से लंबित मुकदमे में हाईकोर्ट सक्रिय हो जाती है और एक फैसला सुनाती है। इसके तुरंत बाद मणिपुर में हिंसा भड़क उठती है। पुलिस और सुरक्षा बलों पर हमले होते हैं, और हथियार लूट लिए जाते हैं। बिल्कुल ऐसा ही बांग्लादेश में भी हुआ था।
गांधी-नेहरू पर भरोसा करने वाले जो हिंदू पाकिस्तान, बांग्लादेश में रह गए थे, वे धीरे-धीरे नष्ट होने के कगार पर पहुंच गए हैं। चिंता का विषय अब भारत में बने हुए 'बांग्लादेश और पाकिस्तान' हैं। ये केवल बंगाल, कश्मीर या केरल में नहीं, बल्कि देश के कोने-कोने में हैं। ऐसे में, कौन उन्हें बचाएगा? सरदार पटेल ने कहा था कि जब हिंदुओं के साथ नहीं रहने की बात थी तो पाकिस्तान मिलने के बाद दिल क्यों बदल रहा है? लेकिन उनकी गलती यह थी कि उन्होंने गांधी के सामने अपनी बात पर अड़े नहीं रहे। धीरे-धीरे, यही समस्या हिंदू संगठनों में भी देखी जा रही है। हिंदू से ज्यादा, अब वे 'देश-देश' बोलने लगे हैं। लेकिन हिंदू और भारत में आखिर अंतर क्या है? संविधान कितने दिनों का है? तिरंगा कितने दिनों तक चलेगा? तिरंगा तभी तक लहराएगा जब तक हिंदू हैं। हिंदुओं की शक्ति और संख्या के कारण ही संविधान चलेगा, और इसी संविधान के तहत हिंदुओं की संख्या घटाने का काम हो रहा है।
भाजपा की मजबूरी है कि उसे संविधान के हिसाब से चलना है, लेकिन हिंदू संगठनों को इस बात पर अडिग रहना चाहिए कि हिंदुस्थान संविधान से बड़ा है। गांधीवाद का कीटाणु जब तक जीवित रहेगा, देश में अलगाव के कैंसर को कोई नहीं मिटा सकता। नेहरू की चालाकी थी कि उसने गांधी को भगवान बना दिया। जब जनसंघ या संघ के पास शक्ति नहीं थी, तब तक गांधी की अदूरदर्शिता का विरोध होता रहा, लेकिन जैसे-जैसे शक्ति बढ़ी, बड़प्पन भी बढ़ता गया। इसी बड़प्पन के चलते गांधी की स्वीकार्यता भी बढ़ती गई। इस्लाम के जन्म से लेकर आज तक के दुनिया भर के झगड़े देखने के बाद भी हम गांधी की अदूरदर्शिता या मूर्खता को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाए। आज के कथित महात्मा के प्रति भी यही दृष्टिकोण होना चाहिए। उनके किताबी ज्ञान का सम्मान करते हुए, उनके पैर छू लेना चाहिए, लेकिन राष्ट्रधर्म का पालन करते हुए उन्हें आदर्श मानने के बजाय उनके विचारों का खंडन करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। धर्मगुरु भी यदि व्यक्तिगत सम्मान या स्वार्थ के कारण अधर्म को प्रोत्साहित करते हैं, तो उनका विरोध करना ही उचित होगा। वरना नई पीढ़ी उनके कहे को ही धर्म मानती रहेगी। धर्मगुरुओं और उनकी मनमानी व्याख्याओं के बिना भी धर्म जीवित रहेगा। सनातन हिंदू धर्म का अस्तित्व मंदिरों, संत महात्माओं, और ग्रंथों के बिना भी बना रहेगा। मोदी जी ने सत्ता हासिल न की होती, तो शायद ऐसे कानून बन गए होते कि मेरे इस लेख के लिए मुझे जेल में डाल दिया गया होता। बाकी इस संविधान के चलते उनसे ज्यादा अपेक्षाएं नहीं की जा सकती। वे भारत के इस्लामीकरण को कुछ समय के लिए टाल सकते हैं, लेकिन रोक नहीं सकते। हिंदू संगठनों को साहस कर यह कहना कि आज के बांग्लादेश की समस्या गांधी की अदूरदर्शिता या मूर्खतापूर्ण जिद का परिणाम है। हिंदुत्व को बचाने के लिए, गांधी को हटाना जरूरी है, वरना उनकी छवि, जो देश के हर कोने में लगी हुई है, हिंदुओं को यही सिखाती रहेगी कि सारे धर्म समान हैं। अगर तुम्हारे भटके हुए मुसलमान भाई तुम्हें मारना चाहें या महिलाओं से बलात्कार करें, तो इसे वीरता के साथ सहन करो। यह देश गांधी की कुनीतियों के कारण यह नहीं समझ पाया कि मुसलमान जितनी आबादी है, उससे ज्यादा जमीन लेकर भी यहीं क्यों रहें? भारत में हिंदुत्व को बचाना है तो गांधी को हटाना जरूरी है।
डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर सहायक प्रोफेसर
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।
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