स्वयं के उद्धारण से सामानता के आदर्श को प्रतिपादित किया ( पुण्यशलोक अहिल्याबाई होल्कर 300 वां जयंती वर्ष ) - इंजी . राजेश पाठक
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1767 में होल्कर वंश शासित मालवा के शासन-प्रशासन का संचालन पूर्ण रूप से अहिल्या बाई होल्कर अधीन आया। उनको पहले से ही इस महती कार्य में अपने पिता तुल्य ससुर मल्हार राव होल्कर का हाँथ बँटाते हुए अनुभव प्राप्त हो चुका था। एतिहासिक दृष्टि से देखें तो ये वो समय था जब हिन्दू मराठा वीरों ने 1751 में उड़ीसा के कटक तक ; 1757 में गुजरात के अहमदाबाद पर ; 1758 में पंजाब के आगे पेशावर के अटक तक; तथा दक्षिण के तमिलनाडु के तंजावूर में अपनी विजय पताका लहरा दी थी। और जब फ्रांसीसी और अंग्रेज भारत आए तो उनके सामने मुगल नहीं हिन्दू मराठा वीर मैदान में खड़े थे ।
लेकिन विदेशीयों से तो मुक्ति पा लेने में हिंदु सफल हो गए, फिर भी इस बीच आंतरिक स्तर पर पठानों, रुहैलों और पिंडारीयों की लूटमार ने एक नई चुनौती को जन्म दे दिया। मालवा भी इससे मुक्त न था। लूटेरों के आतंक से सीमावर्ती गाँव खाली होने लगे । अहिल्या बाई की ख्याति इस बात के लिए भी रही कि नायकों-सेनापति के चयन में उन्होंने योग्यता से कभी समझौता नहीं किया। वो अपनी बेटी का विवाह करना चाहती थीं । उन्होनें घोषणा करी जो इन लूटेरों से गाँव की रक्षा कर अपराध को नियंत्रित करेगा उससे अपनी बेटी का विवाह करेंगी । जात-पात-वर्ग के विचार से ऊपर उठते हुए अपनी बेटी के लिए वर चुनने में उन्होंने गीता के उपदेश को शिरोधार्य किया, जिसमें श्री कृष्ण कहते हैं : ‘‘चातुरवर्न्यम मया सृष्टम गुणकर्मविभागश’ अथार्थ, ‘ये चार वर्ण मेरे द्वारा गुण और कर्म के आधार पर सर्जित किये गए हैं [ जो कि जन्म के स्थान पर योग्यता एवं चरित्र पर आधारित हैं ]’.
महारानी की घोषणा पाकर अनेकों वीर सैन्य नायक इस कार्य में जुट गए। पर सफलता हाँथ लगी यशवंत राव फणसे को, जो कि सामान्य से एक सैन्य-टुकड़ी के नायक थे। अहिल्याबाई की पुत्री मुक्ताबाई से उनका विवाह हुआ।
महमूद गजनवी को हिंदुस्तान में मिली सफलता को लेकर अपनी कृति ‘सोमनाथ’ में आचार्य चतुर सेन लिखते हैं, हिंदुओं की और से जहां मुख्य रूप से क्षत्रिय युद्ध स्थल पर उतरते थे, तो मुसलमान की सेना का भर्ती-क्षेत्र असीमित था । उनकी ओर से पूरे समाज से हर कोई लड़ाई के मैदान पर अपना हुनर दिखा सकता था। । सामूहिक रोजा -नवाज़ , खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था । उनके सामाजिक जीवन में एक का मारना सबका मारना और एक का जीना सबका जीना था।
आचार्य चतुर सेन के इस सबक को आत्मसात करते हुए छत्रपती शिवाजी ने सह्याद्री पर्वत पर बसने वाले मावले बनबंधुओं को सेना में स्थान दिया। शिवाजी के सेनापति तानहाजी मलसुरे , मावले समाज के ही गौरव थे। अफजल खान और उसकी सेना का सम्पूर्ण नाश शिवाजी की सूझबूझ और मावले योद्धाओं के शौर्य का ही परिणाम था।
इसी प्रकार शिवाजी के आदर्श पर चलते हुए, यशवंत राव फड़से के आग्रह पर अहिल्याबाई नें जनजाति समाज के भील और घुमंतू समुदाय को सुरक्षा व आक्रमण विधा के सम्पूर्ण आयाम का प्रशिक्षण दिलवाकर गाँव -गाँव तैनात किया। और इस तरह यशवंत राव के नेतृत्व में लूटेरों के आतंक से सीमा को मुक्ति मिली, और स्थायी सुरक्षा व शांति का राज स्थापित हुआ ।
लेखक के विगत 25 वर्षों से लेख प्रकाशित हो रहे हैं। लेखक द्वारा लिखित लेख समय समय पर फ्री प्रेस जर्नल, द हिंदू, टाइम्स ऑफ इंडिया रीडर्स ब्लॉग, ईस्टर्न क्रॉनिकल कोलकाता, सेंटिनल असम, ऑर्गेनाइजर, हंस इंडिया, सेंट्रल क्रॉनिकल, उदय इंडिया, स्वदेश, नवभारत में प्रकाशित प्रकाशित होते रहे हैं.
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