नालंदा विश्वविधालय की कहानी, उसी की जुबानी |

 



मैं नालंदा विश्व विद्यालय आज आपको अपना ऐसा गौरवशाली इतिहास बताने जा रहा हूँ जिसके बारे में आज की पीढ़ी कम ही जानती है। हाँ में वही विश्व विद्यालय हूँ जो एशिया का सबसे बड़ा विश्व विद्यालय हुआ करता था। लेकिन एक नरभक्षी, पागल राक्षस, क्रूर और सनकी, तुर्की शासक बख्तियार खिलजी ने मुझे और मेरे किताबों के भंडार को जलाकर राख कर दिया था। महीनों तक मैं जलता रहा, किसी ने मेरी सुध नहीं ली। मैं सबसे पहले अपने जलाने वाले के बारे में बताऊंगा, उसके बाद मेरी खोज कैसे हुई, उसके बाद मैं अपनी बनावट बताऊंगा, उसके बाद मैं आपको अपनी अलग अलग विशेषताओं से अवगत कराऊंगा, तो सबसे पहले मैं नालंदा को क्यों तहस नहस किया गया वो बताता हूँ।

मेरी कहानी सुनोगे भारत के लाड़लो तो आपकी आँखे भी भीग जायेगी, कृन्दन भरी आँखों और रुदे हुए गले के साथ मैं आज सुनाता हूँ अपनी कहानी, मेरे प्रांगण में १० हजार से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ाई करते थे, और उनको पढ़ाने के लिए १६०० के लगभग पंडित, आचार्य हमेशा मौजूद रहते थे।

एक समय की बात है, बख्तियार खिलजी नाम के क्रूर लुटेरे और मूर्ति पुजको के विरोधी की तबियत खराब हो गई थी। किसी गंभीर बीमार ने उसे जकड लिया था, उसने अपने नीम हकीमो से बहुत इलाज करवा लिए लेकिन उसकी तबियत ठीक नहीं हुई।

उस समय एक यात्री मेरे प्रांगण में घूमते हुए सभी विषय पर पढ़ाने वाले आचार्यो से मुलाकात करते हुए, मोहम्मद बख्तियार खिलजी के राज्य में जा पंहुचा वहा उसे पता चला कि वो अभी बीमार है तो मिल नहीं सकता। उस यात्री के विशेष आग्रह पर बख्तियार खिलजी मिलने के लिए तैयार हुआ, यात्री ने मिलते हुए बख्तियार खिलजी को सलाह दी कि विश्व प्रसिद्द नालंदा विश्वविद्यालय के औषधि विभाग के प्रमुख पंडित राहुल श्री बद्रा जी आपका इलाज करके आपको ठीक कर सकते है।

फिर क्या था पंडित राहुल श्री बद्रा जी से इलाज की इच्छा प्रकट की लेकिन बख्तियार खिलजी ने एक शर्त रखी कि मैं किसी भी प्रकार की भारतीय पद्धति से बनाई दवाई नहीं खाऊंगा, क्योंकि ये काफिर के द्वारा बनाई गई है, फिर कुछ समय के बाद राहुल श्री बद्रा जी एक कुरान की प्रति लेकर खिलजी के पास गए और ये सलाह दी कि प्रति दिन कुरान की ये प्रतिया आप पढोगे तो आप ठीक हो जाओगे ये मेरा दावा है!

उसके बाद कुछ दिनों तक खिलजी ने कुरान की वो प्रतिया दिन में कई बार पढ़ी और उसने महसूस किया कि उसकी तबियत अब ठीक होने लगी हैं। उसके बाद उसने पता लगाया कि मैं ठीक कैसे हो गया, तो उसे पता चला कि पंडित राहुल श्री बद्रा जी ने कुरान की प्रतियो पर दवाई का लेप लगा दिया था, उनको पता था कि कुरआन पड़ने वाले खिलजी हमेशा पन्ने पलटते समय हाथ पर धुक लगाता है। इस माध्यम से शरीर में दवाई का असर हुआ और वो ठीक हो गया, उसी के तुरन्त बाद खिलजी को यह बात सहन नहीं हुई कि मेरे नीम हकीमो से मैं ठीक नहीं हुआ परन्तु काफिर की दवाई से मैं ठीक हो गया, मेरे हकीमो से ज्यादा ज्ञान उन आचार्यो और पंडितो में है। मन ही मन में मेरे प्रति उसके मन में द्वेष पैदा हो गया। यह बात खिलजी को सहन नहीं हुई, क्योंकि वो एक मूर्तिभंजक था।

फिर अचानक एक दिन मैंने असंख्य घोड़ों के पैरों की कम्पन को अपनी ओर आते महसूस किया, लेकिन मैं तो शान्ति और शिक्षा के लिए विश्व में विख्यात था। मुझे किस बात का डर लगेगा, खिलजी और उसके घुड़सवारों ने मेरे सभी दरवाजो को बाहर से बंद किया और एक टोली अंदर घुस गई, उसके बाद मैंने जो क्रूर खेल देखा मेरे प्रांगण में, जो मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता, कहना बहुत आसान है लेकिन जो मैंने अपने आचार्यो, पंडितो, और विश्व के अलग अलग कोने से आये विद्यार्थियों का खून टपकते हुए मैंने अपनी नंगी आँखों से देखा उसको बताना बड़ा कठिन है!

हजारो शिक्षकों को पल भर में मार दिया गया, शान्ति के सन्देश को फैलाने वाले असहाय, शस्त्र विहीन खाली हाथ वाले मौजूद सभी को खिलजी ने मार दिया, कुछ भागने में कामयाब हो गए जो कुछ महत्वपूर्ण पांडुलिपियों को कपड़ो में छुपा के अपने साथ लेकर तिब्बत की और भागे और उन्ही पांडुलिपियों से ज्ञान और विज्ञान का प्रसार तिब्बत में हुआ!

मैंने अपनी नंगी आँखों से वो खुनी खेल देखा है, जो कृदन दृश्य, १० हजार विद्यार्थियों के साथ साथ सभी आचार्य पंडितो और शिक्षकों को मार दिया, उनका कसूर यह था कि वो शास्त्र में अपनी आस्था रखते थे शस्त्र में नहीं, उन सभी को शस्त्र त्यागने का दंड मिला, किसी भी संस्कृति को जीवित रखने के लिए शस्त्र और शास्त्र दोनों की बराबर आवश्यकता होती है सनातन धर्म प्रत्येक देवी देवता की मूर्ति हाथ में शस्त्र उठाए इसी बात की प्रेरणा देती है कि शस्त्र की उतनी उपयोगिता है जितनी भी शास्त्र की।

खिलजी ने आदेश दिया कि मेरे पुरे परिसर को आग लगा दी जाए, मुझे खंडित करके तहस नहस कर दिया जाए, मेरे बच्चों अगर मुझमें प्राण होते, मैं चल फिर सकता तो मैं सभी शोध पत्रों को छुपा देता ताकि मेरी आने वाली पीढ़ी हजारो सालो की मेहनत को पढ़कर फिर से ज्ञान प्राप्त कर सके, लेकिन मैं यह कर ना सका।

मुझे सबसे जयदा तकलीफ उस समय हुई जब मेरे परिसर में मौजूद पुस्तकालय में आग लगा दी, मेरे बच्चों उस पुस्तकालय में भारत का भविष्य था, धु धु कर जलते हुए मेरे परिसर में मौजूद तीनो पुस्तकालय की इमारत देखकर, मैं खुद को रोक ना सका, और जोर जोर से चिल्ला कर रोने लगा, लेकिन मेरी कोई सुनने वाला नहीं था, वहा पर सब मूर्ति पुजको के विनाश करने वाले ही मौजूद रहे, मुझे और मेरे परिसर को भी मूर्ति पुजको के साथ मूर्तियों को सहेज कर रखने का दंड मिला!

मैं पूरी तरह धु धु कर जलता रहा और मैंने आँख बंद कर ली, पुरे ०६ महीनों तक मेरी विश्व विख्यात पुस्तकालय में आग जलती रही, और भारत का भविष्य जलते हुए मैंने उसके ताप से महसूस किया!

पूरी तरह तहस नहस वीरान खड़ा में कई शताब्दियों के धूल मिट्टी से मैं आँखों से ओझल हो गया, मेरा खंडहर रूपी देह जो बचा था वो धूल और मिटटी के निचे दब गया और अन्दर ही अन्दर अपने वजूद को मिटते हुए अन्धकार में दिन बिताते गया।

फिर एक दिन ऐसा आया जब मेरी खोज करने वाले एक अंग्रेज अफसर को १९वी सदी में, एक चीनी यात्री की एक डायरी मिली, जिसमे उस यात्री ने मेरे बारे में कुछ लिखा हुआ था। एक दिन वो अंग्रेज अफसर डायरी में लिखे हुए पते पर पंहुचा तो उसे ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला, लेकिन वही टहलते हुए उसे कुछ, ०५वी शताब्दी की ईंटो के अवशेष मिले, उसने हल्के से अपने ही हाथो से खरोच कर देखा तो नीचे एक के ऊपर एक ईंटो से सनी हुई दीवार महसूस हुई। फिर कुछ दिनों पश्चात उसने इस उस जगह खुदाई करके मेरे पुरे अवशेष को दुनिया के सामने ले आया!

उस चीनी की डायरी में लिखे यात्रा के विवरण के अनुसार नालंदा विश्वविधालय में १५०० शिक्षकों के साथ १० हजार से भी जय्दा विद्यार्थी, अध्ययन करते थे, लगभग १०८ विषय पर मेरी प्रांगण में पढ़ाई करते थे विद्यार्थी।

विश्व के कोने कोने से आने वाले विद्यार्थियों के लिए अलग अलग भाषाओ में पढ़ाई की व्यवस्था की गई थी, १०० से ज्यादा भवन और इमारते बनी हुई थी, हर भवन में कुए की व्यवस्था थी, जगह जगह स्टडी हॉल, प्रार्थना सभा हॉल और छात्रावास की व्यवस्था थी, छात्रावास में हर एक विद्यार्थी के लिए अलग अलग कमरे बने हुए थे, हर कमरे में रौशनी की व्यवस्था थी उस समय भी, और जब रौशनी नहीं रहती थी तो दीये रखने के लिए जगह बनी हुई थी!

कई देशो के विद्यार्थी मेरे प्रांगण में पढ़ने आते थे, उस डायरी के अनुसार १० विद्यार्थियों में से सिर्फ ०३ विद्यार्थी ही मेरे प्रांगण में पढ़ने योग्य माने जाते थे, अर्थात जो भी विद्यार्थी मेरे यहाँ पढ़ने के इच्छुक होकर आते थे उनका साक्षात्कार होता था, १० विद्यार्थियों में से सिर्फ ०३ ही प्रवेश पा सकते थे, १० किलोमीटर लम्बी और ०५ किलोमीटर चौड़ी परिधि के अंदर मेरा निर्माण था, आज भी विश्व में ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं हे जो मेरी टक्कर कर सके, १९वी सदी में मेरा ०५% भाग ही खुदाई करके निकाला गया, उसके बाद खुदाई बंद कर दी गई, लेकिन फिर दौर आया नरेंद्र मोदी जी का। उसके बाद २०१६ में मेरी फिर से खुदाई प्रारम्भ की गई, उसके बाद युनेस्को द्वारा मेरे प्रांगण को विश्व धरोहर में शामिल किया गया, इसलिए अभी मेरे अवशेषों को निकालने और सहेज कर रखने की जिम्मेदारी युनेस्को द्वारा संभाली जाती है!

मुझे मुख्यतः तीन राजाओं ने मिलकर बनाया था, जिसमे पहले राजा थे, कुमार गुप्त जो मगध के बहुत बड़े राजा थे, मगध की राजधानी राजगिरा होती थी, जो मेरे विश्वविद्यालय के प्रांगण से १५ किलोमीटर दूर स्थित थी, कुमार गुप्त ने ५०० ए डी, नालंदा विश्व विद्यालय के रूप में मेरी स्थापना की थी ०५वी सदी में, आप जिस स्थान पर आज आये हे वो लगभग १६०० वर्ष पूर्व एक विश्व विद्यालय हुआ करती थी।

फिर दूसरे थे कन्नौज के राजा हर्षवर्धन। उन्होंने मेरे प्रांगण की दूसरी मंजिल का निर्माण कराया लगभग ०७वी शताब्दी में, और मेरी ख्याति दूर दूर फैलने लगी। उसके पश्चात तीसरे थे राजा देवपाल जो बंगाल के राजा थे। वे ०९वी शताब्दी में आये और मुझे देखकर प्रसन्न हो गए, फिर उन्होंने मेरी ख्याति को और बढ़ाते हुए तीसरी मंजिल का निर्माण किया।

मेरे इस विश्वविख्यात के नाम और उपनामो के पीछे तीन राजाओ का नाम सबसे ऊपर लिखा जाता है जिनमे, गुप्ता वंश, हर्षा वंश, और पाला वंश, आज भी मेरे लिए ईश्वर स्वरूप उन राजाओ के पद चिन्हो की आहट में सुन सकता हूँ, मेरे यहां छात्रों के रहने के लिए ३०० कक्ष बने थे, जिनमें अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर कमरे दिए जाते थे। इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था। यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।

नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और विद्यालय के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।

यहाँ नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।

छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिन्ता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।

विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है। इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है। इसमें विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। इनके साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है। इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा १२वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं। बड़गांव नालंदा का निकटतम गांव है। यहां एक सरोवर और प्राचीन सूर्य मन्दिर है। यह स्थान छठ के लिए प्रसिद्ध है।

नालंदा से थोड़ी दूर पर सिलाव स्थित है जो स्वादिष्ट मिठाई “खाजा के लिए प्रसिद्ध है। इनके पास ही राजगृह है। मेरे प्रांगण में मौजूद पुस्तकालय पुरे ०९ मंजिला बड़ा था, जिसको कुछ इस्लामिक आक्रांताओं ने जला दिया, मेरी पुस्तकालय में तीन इमारतें हुआ करती थी, उनके नाम हुआ करते थे, रत्नाददि, रत्नसागर, और रत्ननीरजक। १२वी शताब्दी में जब खिलजी की क्रूर और मूर्ति भुजक विरोधी मानसिकता ने मुझे तहस नहस कर दिया, मेरे विश्व प्रेषित पुस्तकालय में आग लगा दी, और मैं पुरे ०६ महीनो तक धु धु कर जला, मेरे देशवासियो आपने उस पुस्तकालय में क्या खोया, वो आप अभी नहीं समझ सकते, हजारो वर्षो का शोध, लाखों पांडुलिपि, हजारों करोड़ों शोध पत्र, धु धु कर जल गए। ०६ महीने इसलिए लग गए क्योंकि उस समय कागज नहीं हुआ करते थे, अधिकांश पांडुलिपि और शोधपत्र ताम्रपत्रों पर उकेरे जाते थे, पूरे पुस्तकालय के प्रांगण का नाम धर्मा गंज हुआ करता था।

मेरे यहाँ आने के लिए आपको हवाई मार्ग और सड़क मार्ग, अथवा रेल मार्ग से यात्रा करनी पड़ेगी, हवाई मार्ग के लिए निकटम एयरपोर्ट यहाँ से ८९ किलोमीटर दूर निकटतम हवाई अड्डा पटना का जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है। रेल मार्ग के लिए नालंदा में भी रेलवे स्टेशन है, किन्तु यहां का प्रमुख रेलवे स्टेशन राजगीर है। राजगीर जाने वाली सभी ट्रेनें नालंदा होकर जाती है।

सड़क मार्ग: नालंदा सड़क मार्ग द्वारा कई निकटवर्ती शहरों से जुड़ा है, अगर आप राजगीर से आते है ८९ किमी दूर पड़ता हूँ, वही आप गया से आते हे ८९ किमी दूर स्थित हूँ लेकिन बोधगया से आते है तो में ११० किमी सड़क मार्ग द्वारा दूर मिल जाऊँगा!

तो महानुभावो मेरे बारे में आपके दिमाग में कुछ तो प्रतिक्रिया जरूर आयी होगी। वो मुझे कमेंट में जरूर बताइये ताकि मुझे पता तो चल सके कि आप मेरे बारे में क्या सोच रखते है। मिलता हूं।

साभार - व्हाट्स एप 

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2 टिप्पणियाँ

  1. नालंदा विश्वविद्यालय के बारे पढ़ा पढ़ कर मन बहुत दुखी हुआ,एक पागल के पागलपन ने विश्व की अनमोल धरोहर को बर्बाद कर दिया ।

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