भारत की विश्व को देन।



स्व. धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक स्वदेशी और भारतीयता में लिखा -

संसार भर में लोग एक दूसरे से सीखते ही रहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यूरोप ने छपाई की कला और प्रयोग विधि, नाविकों का कम्पास और उसकी प्रयोग विधि, बारूद बनाने का शास्त्र और विधि तथा कागज़ बनाने की विधि 13 वीं, 14 वीं शताव्दी में चीन से सीखी। इसी तरह चेचक का टीका ब्रिटैन में पहली बार 1720 में तुर्की से सीखकर लाया गया।  बाद में भारत से उन्होंने चेचक के टीके की अधिक परिष्कृत और उन्नत विधि सीखी। आधुनिक शल्य चिकित्सा का उद्गम भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान से जुड़ा है। 1790 - 1810 के बीच, विशेषतः पुणे क्षेत्र से अंग्रजों व यूरोपियों ने यह विज्ञान सीखा। 

1804 के एडिनबरो रिब्यू के अनुसार सन 1800 के आसपास भारतीय खेतिहर श्रमिक की वास्तविक मजदूरी दरें ब्रिटैन के खेतिहर मजदूरों से बहुत अधिक थीं। यह तथ्य भी अब सुविदित हो चुका है और स्वीकार किया जाता है कि 1800 के आसपास भारतीय कृषि उत्पादन ब्रिटैन के कृषि उत्पादन से बहुत अधिक था। भारतीय इस्पात अधिक श्रेष्ठ स्तर का था और देश के बहुत से इलाकों में उसका उत्पादन होता था। भारत के बुवाई यंत्र - हल आदि कृषि उपकरणों की क्षमता तत्कालीन ब्रिटैन की ऎसी बस्तुओं से कहीं अधिक थी। स्मरणीय है कि उक्त विवरण उस दौर के हैं, जब यूरोपीय राजनैतिक शक्ति ने भारत के अधिकाँश भाग को दमित कर दिया था। किन्तु वह गुलामी का प्रारम्भिक दौर था। 

स्पष्ट ही भारत उस दौर में भी सीखने से कहीं अधिक सिखाने की स्थिति में था।  फिर ऐसा क्या हुआ कि भारतीयों का आत्म विश्वास कम होता गया और वे हीन ग्रंथि का शिकार होते गए। इसके विषय में बहुत स्पष्ट शब्दों में समय समय पर भारतीय चिंतकों ने व्याख्या की है। मद्रास से प्रकाशित समाचार पत्र हिन्दू ने अपने दस जनवरी 1983 के अंक में जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय के पूर्व उप कुलपति डॉ. नायदम्मा के विचार कुछ इस प्रकार प्रकाशित किये -

पश्चिमी ढाँचे पर आधारित मौजूदा शिक्षा पद्धति ने न तो सही किस्म की मानवीय शक्ति उत्पन्न की, और न ही जनता की शिक्षा के स्तर को उन्नत बनाया। पारम्परिक तकनीकी और स्थानीय मेधा की अवहेलना से अपने लोगों का आत्म विश्वास घटा है और स्थानीय प्रौद्योगिकी द्वारा बुनियादी स्तर पर समस्याओं के समाधान की क्षमता पर भी असर पड़ा है। 

उक्त अभिमत से यह तो आभास मिल ही जाता है कि भारतीय प्रज्ञा समस्या को समझने और सुलझाने में सक्षम है। किन्तु इन सबसे परे भारत ने विश्व को जो दिया वह है वेदान्त दर्शन। जिसके उच्च आध्यात्मिक स्तर के सामने विज्ञान की नवीनतम खोजें भी कमतर प्रतीत होती हैं। स्वामी विवेकानंद ने जिसकी गूँज से समूचे विश्व को एकबारगी हतप्रभ कर दिया था। उनके विचारों की एक बानगी देखिये -

जिस प्रकार किसी फूल में से सूक्शामातिसूक्ष्म परमाणुस्वरुप तन्मात्राएँ गंध के रूप में बाहर निकलकर वातावरण को सुगन्धित करती हैं, उसी प्रकार प्रतिदिन हमारे शरीर से भी शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्तिराशी बाहर निकलती रहती है | जहां पर लोग ईश्वर की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है | जितने अधिक परिमाण में मनुष्य वहां जाते हैं, उतना ही बह स्थान अधिकाधिक पवित्र होता जाता है, साथ ही वहां जाने बाले मनुष्यों में भी पवित्रता का संचार होने लगता है | यहाँ तक कि यदि किसी मनुष्य में सत्वगुण नहीं भी है, तो भी वहां जाने पर उसके ह्रदय में सत्व गुण का उद्रेक होगा | पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं, फिर उस स्थान की पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है | किन्तु यदि उस स्थान पर सदा असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे, तो वह स्थान भी अन्य स्थानों के समान अपवित्र बन जाएगा | इमारत के गुण से नहीं, वरन मनुष्य के गुण से ही मंदिर पवित्र माना जाता है | इसी मूल को हम भूल जाते हैं और गाडी को बैल के आगे जोतना चाहते हैं | वस्तुतः सत्वगुण संपन्न मनुष्य अपने चारों और सत्वगुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रात दिन प्रभाव डाल सकते हैं | मनुष्य यहाँ तक पवित्र हो सकता है कि उसकी पवित्रता मूर्त हो जाती है और जो कोई भी उस साधू के संपर्क में आता है, बह भी पवित्र हो जाता है |

मानसिक शक्ति की इतनी सुन्दर व्याख्या कभी किसी ने नहीं की होगी। यही तो है विश्व को भारत की देन। वेद वाक्य हैं -

उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान्निबोधत |

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया

दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ||कठोपनिषद||

(निराश मत होओ, मार्ग बड़ा कठिन है – छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम, फिर भी निराश मत होओ, उठो, जागो और अपने चरम आदर्श को प्राप्त करो |)

जब विज्ञान का अध्यापक कहता है कि सब कुछ उस एक शक्ति का ही विकास है, तब क्या वह तुमको उपनिषदों में वर्णित उस ब्रम्ह की याद नहीं दिलाता –

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव |

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ||कठोपनिषद||

(जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत में प्रविष्ट होकर नाना रूपों में प्रगट होती है, उसी प्रकार सारे जीवों की अंतरात्मा में वह एक ब्रम्ह नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है, तथा वह जगत के बाहर भी है)|

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानं कर्मसंगिनाम |

जीवयेत सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरेत ||

(ज्ञानियों को चाहिए कि वे अज्ञानी, कर्म में आसक्त व्यक्तियों में बुद्धिभेद उत्पन्न न करें | विद्वान् व्यक्ति को स्वयं युक्त रहकर उन लोगों को सब प्रकार के कार्यों में नियुक्त करना चाहिए |) किसी की गति को विचलित मत करो, किन्तु सभी को उच्च से उच्चतर मार्ग पर जाने में सहायता दो |

अंत में -

मुग़ल सम्राट औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने फारसी भाषा में उपनिषदों का अनुवाद करवाया था | सन १६५७ ईसवी में वह अनुवाद समाप्त हुआ था | शुजाउद्दौला की राजसभा के सदस्य फ्रांसीसी रेसीडेंट जेंटिल साहब ने वह अनुवाद वर्नियर साहब के माध्यम से आन्केतिल दुपेरों नामक सुप्रसिद्ध सैलानी और जेंदावेस्ता के आविष्कर्ता के पास भेज दिया था | उन्होंने उसका लेटिन भाषा में अनुवाद किया | सुप्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शापेनहार्वर का दर्शन इन्ही उपनिषदों द्वारा विशेष रूप से अनुप्राणित हुआ है | इस प्रकार सर्व प्रथम यूरोप में उपनिषदों के भावों का प्रवेश हुआ | शापेनहार्वर के अनुसार – समस्त संसार में उपनिषद् के समान हितकारी और उन्नायक अन्य कोई अध्ययन नहीं है | जीवन भर उसने मुझे शान्ति प्रदान की है और मरने पर भी वही मुझे शान्ति प्रदान करेगा |

यही तो ही भारत की विश्व को देन। 

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