कौन है वरिष्ठ ? पदोन्नत प्राध्यापक अथवा बाद में सीधी भर्ती से बने प्राध्यापक ?


मध्यप्रदेश में पिछले दस सालों से जब से सीधी भर्ती के प्राध्यापक आये सरकार के लिए सिर दर्द बने हैं। पहले विभाग ने उम्र का बंधन लगा कर वरिष्ठ सहायक प्राध्यापकों को सीधी भर्ती प्रक्रिया में सम्मिलित होने से वंचित ही कर दिया। मजा यह कि बाद में चयनित अपात्रों में से कई तो सेवा से बाहर ही हो गये, कुछ जो बचे वे अभी भी दस हजार की एजीपी सीधी भर्ती के नाम पर ले रहे हैं। दूसरी ओर अपने को 2006 से पदोन्नत प्राध्यापकों से  सीनीयर जता कर कभी तो प्राचार्य बनने का शासन पर दबाव बनाते हैं, तो कभी न्यायालय में जाकर प्रयत्न करते हैं। जबकि उनकी भर्ती ही बाद की है।

ऐसा ही एक प्रकरण संजय गांधी महाविद्यालय सीधी में सामने आया, जब सीधी भर्ती के प्राध्यापक को  महाविद्यालय का प्राचार्य बना दिया गया। किन्तु विभाग के अपर मुख्य सचिव की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने तत्सम्बन्धी न्यायालयीन प्रकरण में दिए गए जबाब दावे में सीधी भर्ती के प्राध्यापकों को पदोन्नति प्राप्त प्राध्यापकों से जूनियर स्वीकार किया ।

इस प्रकार न्यायालय में विभागीय स्वीकृति के बाद तो स्पष्ट ही पदोन्नत प्राध्यापकों को भी सीधी भर्ती के प्राध्यापकों के समान दस हजार एजीपी दिये जाने के मंत्री परिषद के निर्णय अनुसार आदेश जारी किया जाना चाहिए, ताकि वरिष्ठता का सम्मान बना रहे और महाविद्यालयों में सद्भावना का वातावरण बन सके।

साथ ही जहां भी सीधी भर्ती के प्राध्यापक प्राचार्य बने हैं और वहां उनसे वरिष्ठ पदोन्नत प्राध्यापक हैं, तो वरिष्ठ को प्रभार दिलाया जाना चाहिए ताकि न्यायालयीन प्रकरण ख़त्म हों।

चलते चलते एक सवाल -

छग दे सकता है 10,000 ए जी पी तो मध्यप्रदेश क्यों नहीं?

छत्तीसगढ़ में भी पिछले पंद्रह सालों से दस हजार एजीपी पर रोक लगी थी जिसके कारण प्राचार्य पदोन्नति का रास्ता बंद था। किन्तु अब शासन ने दस हजार एजीपी का आदेश जारी कर दिया है जिससे प्राचार्य पदोन्नति का रास्ता खुल सकेगा।

ध्यान देने वाली बात है छग में भाजपा सरकार के दौरान जो अधिकारी थे, आज भी वे ही हैं, तो उस समय निर्णय क्यों नहीं हुआ ? आखिर क्रेडिट कांग्रेस सरकार के खाते में क्यों गया ?

मध्यप्रदेश में भी पिछले पन्द्रह वर्षों से यह प्रकरण झूल रहा है। जबकि सरकार पर कोई वित्तीय भार भी नहीं है। दस हजार वेतन का हिस्सा है जिसकी राशि भी विभाग के पास है। प्रदेश की मंत्री परिषद ने भी सहमति दी है। पर धन्य है अधिकारियों की लाल फीताशाही जो प्रकरण को अकारण घुमाते और लटकाते जा रहे हैं। मध्यप्रदेश सरकार को ध्यान देना चाहिए कि कहीं इन अधिकारियों की कांग्रेसियों के साथ मिली भगत तो नहीं है ?

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