महाराजा सुहेलदेव की शौर्य गाथा - बहराइच में 10 जून को क्यों मनाया जाता है विजय दिवस



1026 ईस्वी में महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण किया, सोमनाथ मंदिर को लूटा, तहस नहस किया और वापस गजनी को लौटा। उस समय उसका भानजा सैयद सालार मसूद भी उसके साथ था। महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद मसूद ने एक लाख सिपाहियों के साथ मई 1031 में एक बार फिर भारत पर आक्रमण किया। उस समय उसका सबल प्रतिरोध करते हुए बहराइच के राजा सुहेलदेव ने उसे न केवल धूल चटाई, वरन यमपुरी भी पहुँचाया। जिस दिन अपने अचूक तीर से राजा सुहेलदेव ने मसूद का सर धड़ से अलग किया, वही दिवस अर्थात 10 जून पूरे उत्तरप्रदेश में धूमधाम से विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। तो आईये भारतीय इतिहास के उस स्वर्णिम पृष्ठ, उस गाथा को पुनः स्मरण करें। 

मसूद का पहला सैन्य संघर्ष दिल्ली के राजा महिपाल तोमर से हुआ, गजनी से समय पर मदद आ जाने के कारण वह इस लडाई को हारते हारते जीत गया । उसका अगला निशाना बने मेरठ के शासक राजा हरि दत्त, जिन्होंने उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, इतना ही नहीं स्वयं भी इस्लाम स्वीकार कर लिया । कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा ने भी अपने बेटे के साथ इस्लाम स्वीकार कर लिया । उसके बाद कन्नौज, अवध और पूर्वांचल में आगे इस्लामी विजय के लिए एक सैन्य अड्डे के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा । 

इस दौरान श्रावस्ती के राजा सुहेलदेव थे ! वे मंगल ध्वज के बेटे और बालक ऋषि के शिष्य थे, जिनका आश्रम बहराइच में स्थित था । अपने पराक्रम और शौर्य के कारण वे न केवल उस दौर में समाज के महानायक थे, बल्कि आज भी देश के अनेक समाज उन्हें अपना मानते हैं। लोक संस्कृति में उन्हें पासी राजा के रूप में भी जाना जाता है, लेकिन साथ ही उन्हें नागवंशी क्षत्रिय भी माना जाता है, तो कुछ उन्हें बैस क्षत्रिय मानते हैं । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, उनकी लोकप्रियता, इसमें मुख्य कारण है । और उससे भी अधिक मुख्य है उनका शौर्य ! 

उनके शौर्य की प्रमुख गाथा है सालार मसूद द्वारा किया गया आक्रमण ! इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव, फैजाबाद, बहराइच, श्रावस्ती, गोंडा आदि के क्षेत्रीय राजाओं ने राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में कमर कस ली ! 

मेरठ, कन्नौज और मलीहाबाद के बाद मसूद का विजय रथ बाराबंकी पहुंचा । उसके साथ मसूद का धार्मिक शिक्षक, सैयद इब्राहिम मशहदी भी था । आइना-ए-मसूदी के अनुसार, सैयद इब्राहिम एक कट्टरपंथी कमांडर था ! उसके मार्ग में आने वाला कोई भी गैर-मुस्लिम उसकी तलवार से बच नहीं सकता था, जब तक कि वह इस्लाम स्वीकार न कर ले । लेकिन धुंध गढ़ के युद्ध में वह भी मारा गया । उसकी कब्र अलवर जिले में रेवाड़ी के पास तिजारा से 20 कि.मी. दूर कासिम में स्थित है। 

इस बीच, सालार सैफुद्दीन को भी बहराइच में घेर लिया गया ! भाकला और ताप्ती नदी के मुहाने पर हुई पहली लड़ाई में तो सालार मसूद जीतता दिखा, किन्तु दूसरी झड़प में चित्तौरा झील के पास 13 जून 1033 को इस्लामी कमांडर मीर नसरुल्लाह की मौत ने उसकी कमर तोड़ दी ! मीर नसरुल्लाह कि कबर बहराईच से 12 कि.मी.उत्तर में बसे एक गाँव डिकोली खुर्द में स्थित है। जल्द ही सालार मसूद का एक करीबी रिश्तेदार सालार मिया रज्जब भी मारा गया । उसकी कब्र, शाहपुर जोट यूसुफ गांव में स्थित है और हैरत की बात यह कि उसे हठीला पीर के नाम से पूजा जाता है । उसके बाद सुहेलदेव की सेना का एक बड़ा दल, मुस्लिम सेना के केंद्र में प्रवेश कर गया और सुहेलदेव द्वारा छोड़ा गया एक तीर सालार मसूद के गले में जा धंसा । सूर्यकुंड के पास एक महुआ के पेड़ के नीचे उसकी मृत्यु हो गई। इस जीत के बाद राजा सुहेलदेव ने जीत के उपलक्ष में कई तालाबों और बावडियों का निर्माण करवाया ।

इतिहास का सबसे कलुषित प्रसंग -

तुगलक वंश का शासन आने पर फीरोज तुगलक ने सलारगाजी को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही घोषित करते हुए उसकी मजार बनवा दी। आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू महिलाओं के अपमानकर्ता, मूर्ती भंजक दानव को हिंदू समाज एक देवता की तरह पूजता है। सलार गाजी हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है । अब गाजी की मजार पूजने वाले, ऐसे हिन्दुओं को मूर्ख न कहे तो क्या कहें । आज वहा बहराइच में उसकी मजार पर हर साल उर्स लगता है और उस हिन्दुओ के हत्यारे की मजार पर सबसे ज्यादा हिन्दू ही जाते हैं !

योगी राज आने के बाद 10 जून विजय दिवस के रूप में जरूर मनाया जाने लगा है और इस दिन सभी लोग राजा सुहेलदेव की शौर्यगाथा को स्मरण करते हैं। 

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सुलगता सवाल - इतिहास में राजा सुहैलदेव का पराक्रम अचर्चित क्यों ?

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