आजादी के बाद बने आरक्षण के "मंथरा ईको सिस्टम" ने भारत की बुद्धि को वनवास दिलाया।



एक थिंक टैंक "इंस्टीट्यूट ऑफ कॉम्पीटीटिवनेस" (आईएफएस) के अध्ययन और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी की गई रिपोर्ट, साथ ही ऑक्सफोम रिपोर्ट, वैश्विक सूचकांकों के अनुसार भारत के 140 करोड़ लोगों में से 90 फीसदी लोग मासिक 25 हजार रुपए से नीचे की कमाई पर जी रहे हैं! वहीं एक दूसरी हकीकत भी है और वह यह कि साल 1980 में जहां टॉप की एक प्रतिशत अमीर आबादी के पास भारत का छह प्रतिशत धन था, वही 2020 के आते-आते वह 22 प्रतिशत हो गया। अर्थात अमीर और अमीर बनता जा रहा है, तो गरीब और गरीब। अमीर के पास बुद्धि कौशल है, अथवा नहीं, उससे कोई अर्थ नहीं, उसके पास धन है, धन जो और धन को खींचता है। 

इसके साथ ही इस सप्ताह वैश्विक पत्रिका ‘दि इकोनोमिस्ट’ का यह तथ्यपरक अन्वेषण ध्यान देने योग्य है कि– दुनिया में इस समय भारत का एनआरआई जितना बड़ा और प्रभावशाली है वैसा इतिहास में पहले नहीं हुआ। यह सच भी दिखाई देता है, क्योंकि ‘दि इकोनोमिस्ट’ के ही अनुसार दुनिया की टॉप 500 कंपनियों में से आज 25 टॉप कंपनियों के सीईओ एनआरआई हैं। जानकी दस साल पहले यह संख्या केवल 11 थी। एडोब, अल्फाबेट (गूगल की कॉरपोरेट पैरेंट कपंनी), आईबीएम व माइक्रोसॉफ्ट की कमान भारतीय मूल के लोगों के पास है। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल सहित पांच प्रमुख बिजनेस स्कूलों में से तीन के डीन भी एनआरआई हैं। ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक सहित भारतीय मूल के 19 लोग सासंद-नेता हैं। ऑस्ट्रेलिया की संसद में छह और अमेरिकी कांग्रेस में पांच भारतीय मूल के सांसद हैं। तमिल ब्राह्मण महिला की बेटी अमेरिका की उप राष्ट्रपति है। पुणे में जन्मे सिख अजय बंगा पिछले महीने विश्व बैंक के अध्यक्ष बने।

अब उक्त दोनों तथ्यों को जोड़कर देखें तो यही समझ में आता है कि भारत में केवल बुद्धि विवेक से भौतिक समृध्दि पाना, धनी बनना आसान नहीं है, या तो केवल धनी ही और धनी होता जाता है, या फिर भ्रष्टाचारी धनी बनते हैं। फिर चाहे वे राजनेता हों, अथवा नौकरशाह। जबकि बुद्धि विवेक से सफल होने के अवसर भारत की तुलना में विदेशों में अधिक है। भारतीयों की बुद्धि ने अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे अमीर देशों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। यही कारण है कि इन देशों के समाज में जहां भारतीय एनआरआई का मान-सम्मान है वही चाइनीज, लातीनी अमेरिकी, अरब-खाड़ी आदि देशों के प्रवासियों को ले कर कई किंतु-परंतु और शक हैं। अमेरिका में 27 लाख, ब्रिटेन में 8.35 लाख, कनाडा में 7.20 लाख और ऑस्ट्रेलिया में 5.79 लाख प्रवासी भारतीय हैं। अमीर देशों में भारत से निकली बुद्धिसम्पन्न क्रीमी लेयर अपना परचम लहरा रही है। 

पिछले तीस सालों में एनआरआई भारतीयों ने बुद्धि-दिमाग तथा मानसिक कामों से दुनिया में अपना जो रोल और महत्व बनाया है वह हिंदुओं के उस सनातनी सत्य का संकेत है कि यदि कलियुगी जात-पात और गुलामी के इतिहास से मुक्ति का अवसर मिले तो अमेरिकी गरूड़ और सनातनी हंस की केमिस्ट्री से मानव सभ्यता के भविष्य की कुछ चुनौतियों के समाधान संभव हैं। रिसर्चरों का निकाला सत्य है कि साल 2010 में जिन छात्रों ने भारत में आईआईटी जैसी संस्थाओं की दाखिला परीक्षा दी थी उससे निकले हजार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों में से 36 प्रतिशत नौजवान विदेश उड़ लिए वही इनमें जो 100 टॉपर थे उनका 62 प्रतिशत विदेश में बसा। इन दिनों दुनिया में एआई उर्फ कृत्रिम बुद्धिमत्ता का हल्ला है। और इसमें अमेरिकी रिसर्च के टॉप के बीस प्रतिशत लोगों की पहली डिग्री भारत की है।

अब एक और तथ्य पर ध्यान दीजिये, जो आज के आलेख का मूल तत्व है। तमिलनाडु में ब्राह्मण, बुद्धि, दिमाग के खिलाफ जब नायकर-द्रविड़ आंदोलन शुरू हुआ और ज्यों-ज्यों कथित सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण के बवंडर बने त्यों-त्यों पहले दक्षिण भारतीय फॉरवर्डों (ब्राह्मण, अय्यर, अयंगर, चेटियार आदि) परिवारों के बेटे बेटियों ने विदेश जा कर पढ़ाई-नौकरी के अवसर पाने के लिए उड़ान भरी। इसके बाद आंध्र के रेड्डी, राव और फिर उत्तर भारत के मध्यवर्गी फॉरवर्ड परिवारों के बेटे-बेटियों की आँखों में विदेश जाकर पढ़ाई करने का सपना जगा। वे लोग आज अमेरिका, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा जा कर बसे हैं और अकेलेपन, कंपीटिशन, मुश्किलों के बावजूद, भारत की आरक्षण वाली असभ्य-जंगली व्यवस्था से आजाद हो सुकून की सुरक्षित जिंदगी जी रहे हैं ।

यह भी तथ्य है कि एनआरआई में भी बुद्धि और उसकी धुन वाले रिसर्चकर्ताओं का ही जलवा है। यह जलवा उन लोगों का है, जिन्हें भारत के जात केंद्रित आरक्षण में अवसर ही नहीं था। जिनके अभिभावकों ने कोचिंग करा-करा कर आईआईटी-मेडिकल-आईआईएम में बच्चों के दाखिले कराए।

कोई न माने या न माने तथ्य यह है कि आरक्षित जातियों के परिवार अपने बच्चों में केवल और केवल सरकारी नौकरी की ललक पैदा करते हैं। वही ब्राह्मण-बनिया-कायस्थ आदि फॉरवर्ड परिवार कोचिंग करा कर आईआईटी-इंजीनियरिंग-मेडिकल-आईआईएम में दाखिलों का दिमागी टारगेट बनवाते हैं या सीधे विदेश में दाखिले के लिए पैसा जुटाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो आईआईटी की क्रीमी लेयर का दिमाग फॉरवर्ड जातियों का हिट है तो ये ही फिर सर्वाधिक अमेरिका जाने वाले। यह आंकड़ा ही नहीं है कि आरक्षित क्षेणी की उच्च शिक्षा कैटेगरी में से कितने एससी-एसटी छात्रों ने अमेरिका जा कर नाम कमाया हो। इस मामले में ‘द इकोनोमिस्ट’ की पूरी रिपोर्ट में अकेला एक यह आंकड़ा है कि वाशिंगटन डीसी में एक थिंक-टैंक के सर्वे ने पाया कि प्रवासियों में 17 प्रतिशत  ने खुद को निचली जाति के रूप में वर्णित किया। सोचें, ऐसा असंतुलन क्यों? जबकि आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल में इन जातियों का आरक्षण पचास प्रतिशत छूता हुआ है तो इसी अनुपात में ही आरक्षित जातियों का शिक्षित दिमाग भी अमेरिका, सिलिकॉन वैली के कंपीटिशन में जलवा बनाए हुए होना चाहिए था? 

बुद्धि, दिमाग और मनुष्य की कुशाग्रता, उसकी काबिलियत दरअसल कंपीटिशन में खिलती है। जबकि आजादी ने भारत को गंवार बनाने का इकोसिस्टम दिया। बुद्धि और कंपीटिशन को वनवास भेजा। रेवड़ियों की हरामखोरी बनवाई। भारत ने वह गंवाया है, जिसका नाम है माइंड, ब्रेन और सत्य। तभी आश्चर्य नहीं कि भारत का गंवाना, अमेरिका, सिलिकॉन वैली, व्हाइट हाउस व लंदन के व्हाइट हॉल की प्राप्ति है, पश्चिमी देशों का उत्तरोत्तर विकास है! हम भारतीय इस बात पर ही संतोष कर सकते हैं कि शिक्षा के सनातन महत्व के भारतीय बीज कहीं तो लहरा रहे हैं।

साभार आधार नया इण्डिया में प्रकाशित श्री हरिशंकर शर्मा जी का एक आलेख। 


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