विचार नवनीत के अंश भाग (1) - श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर "गुरूजी"
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भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण आधार तत्व हैं पुरुषार्थ चतुष्टय | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | जिस प्रकार दोनों तटों के बीच बहती नदी जीवनदायिनी होती है, उसी प्रकार धर्म और मोक्ष के बीच बहता अर्थ और काम युक्त जीवन प्रवाह व्यक्ति व समाज दोनों के लिए हितकारक होता है | जिस प्रकार तटों का उल्लंघन करते ही नदी विनाशकारी हो जाती है, उसी प्रकार की स्थिति मानव जीवन प्रवाह की भी है | दोनों सीमाओं के बीच की यही व्यवस्था मन की शान्ति व जीवनोपभोग के बीच संतुलन स्थापित कर सकती है | समय की धारा के साथ तथाकथित प्रगतिशील समाज भी भारतीय संस्कृति के इस पुरातन तथा जीवंत तत्वज्ञान की शरण में आने को बाध्य होगा –
तावद्गर्जन्ति शास्त्राणि जम्बुका विपिने यथा |
न गर्जन्ति महातेजा यावद्वेदांत केसरी ||
अन्य मत वाले श्रगाल तभी तक कोलाहल करते हैं, जब तक वेदान्त के महातेजस्वी सिंह की गर्जना नहीं सुनाई पड़ती |
· धर्म की परिभाषा –
यतोSभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः |
धर्म अर्थात वह व्यवस्था जो व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर संयम रखने को प्रोत्साहित करती है और संपन्न भौतिक जीवन का उपभोग करते हुए भी दैवीय तत्व, शास्वत सत्य अनुभूति की क्षमता का निर्माण करती है |
धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः |
अर्थात वह शक्ति जो व्यक्तियों को एकत्र लाती है और उन्हें समाज के रूप में धारण करती है, वह धर्म है |
धर्मादर्थश्च कामश्च |
धर्म आधारित आचरण करते हुए धन का संचय और कामनाओं की पूर्ती |
· मांस का एक टुकड़ा फेंकने पर कौओं का पूरा झुण्ड एकत्रित हो जाता है | आज इस प्रकार के गुट जिनके साम्प्रदायिक अथवा कुछ संकुचित हित हैं, सम्पूर्ण देश में उठ रहे हैं | वे अपने स्वार्थी हितों की पूर्ती हेतु देश की पवित्रता एवं अपने राष्ट्र जीवन की एकता का विनाश करने को भी तत्पर हैं | हमारा यह निष्कर्ष हैकि योग्य व्यक्तियों के एकत्रीकरण द्वारा संगठित शक्ति का निर्माण करना होगा |
· यह मत कहो कि शरीर में रखा क्या है ? हमारे शास्त्र कहते हैंकि –
शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनं
अर्थात जीवन के कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए शरीर ही प्रथम साधन है | एक सक्षम शरीर के बिना हम कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकते | ईश्वर के साक्षात्कार के लिए भी स्वस्थ एवं सशक्त शरीर की आवश्यकता है | ईश्वर दुर्बलों के लिए नहीं है –
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः
..... शारीरिक शक्ति आवश्यक है किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है | बिना चरित्र के केवल शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी | वैयक्तिक तथा इसी प्रकार राष्ट्रीय द्रष्टिकोण से भी चरित्र की शुद्धता राष्ट्र के वैभव एवं महानता की जीवन प्राण होती है |
..... मान लीजिये कि हमारे पास सशक्त शरीर एवं शुद्ध और निष्ठावान ह्रदय है, किन्तु शरीर एवं मन का उपयोग कैसे किया जाए ? इसके लिए हमें मेधा संपन्न निपुणता की आवश्यकता होती है जो परिस्थिति की वास्तविकताओं एवं जटिलताओं को ग्रहण करने में समर्थ हो | .... व्यवहारिक बुद्धि के बिना हमारी सभी अच्छाई और शक्ति बेकार होगी | .... हम यह न भूलें कि राष्ट्र के पुनः संगठन का मार्ग पुष्प शैया नहीं है और जब धूर्तों तथा कुटिलों से पाला पड़ता है, तब बिना चातुर्य के केवल शुद्ध हृदयता काम नहीं देगी |
....... परिस्थितियाँ सदैव हमारे पक्ष में रहने वाली नहीं हैं | हमें वाधाओं और प्रतिकूलताओं का सामना करना पडेगा | वीर के लिए प्रथम गुण है निर्भीकता | गीता में भी विविध देवी गुणों की गणना ‘अभयम’ से ही प्रारम्भ होती है | हमारे संघ संस्थापक डा. हेडगेवार कहा करते थे कि राष्ट्र के द्रढीकरण का कार्य इस प्रकार से होना चाहिए कि न तो हम किसी को भयभीत करें और न किसी से भयभीत हों |
न भय देत काहू को, न भय मानत आप
· एक बार दक्षिणेश्वर मंदिर में राधाकांत की मूर्ती के कुछ आभूषण चोरी हो गए | किसी ने काहा यह देवता भी क्या है, जो अपने आभूषणों की भी रक्षा नहीं कर सका | श्री रामकृष्ण ने उसे डांटकर कहा कि इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण विचार रखना लज्जास्पद है | लक्ष्मी जिसकी दासी हो, वह भला इस प्रकार के व्यर्थ पत्थर और धातु के टुकड़ों को क्या महत्व देगा ? इसी प्रकार हमें भी, जिनके सामने राष्ट्रजीवन की एकात्म द्रष्टि है, राजनैतिक सत्ता के समान अस्थिर वस्तुओं के पीछे क्यों दौड़ना चाहिए ?
.... समाज की उस सर्वशक्तिमान सत्ता का निर्माण करना, जो सदा सर्वदा के लिए बाह्य कारणों से उत्पन्न संकटों के बीच समाज को सुरक्षित रखे और राष्ट्रीय जीवन के समस्त क्षेत्रों को अनुप्राणित एवं उद्भासित करे, यही महान लक्ष्य हमारे सामने है |
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