भारतीय शौर्य की अनुपम गाथा - अमर सिंह राठौड़ की बांकी कठिन कटार (वीर रस काव्य)
है प्रसिद्ध शिवराय की, घाटदार तलवार,
भृगुपति कठिन कुठार से, परिचित सब संसार |
पृथ्वीराज चौहान के, वे जहरीले बाण,
अमर सिंह राठौड़ की, बांकी कठिन कृपाण |
इस अमर कटारी का चर्चा, चहुँ दिश सुनने में आता
है,
आगरे किले का अमर द्वार, प्रत्यक्ष प्रमाण
बताता है |
कैसा था अमर कटारी में, बस जौहर यही बताना है,
वीरों को आज वीर रस की, गंगा में स्नान कराना
है |
शहर आगरे में किला, है इक आलीशान,
करता था शासन जहाँ, शाहजहाँ सुलतान |
इक शख्श सलावत खां नामी, शाह का मुसाहिब आला
था,
रिश्ते में भाई बेगम का, और बादशाह का साला था
|
ये अमर सिंह से किसी सबब, रखता बेतरह अदावत था,
इसलिए शाह से मनमानी, करता हर वख्त शिकायत था |
इक दिन दरवार अमर आये, मूछों पर पेचो ताव दिए,
बैठे संभाल जगह अपनी, सुलतां को बिन आदाब किये
|
देखा जिस वक्त अमर सिंह को, बेतरह सलावत
झल्लाया,
नीचा दिखलाऊंगा इसको, यह ठान शाह को भड़काया |
सुलतान, आपका अमरसिंह, कुछ खौफ न दिल में खाता
है,
किस तरह आपके आगे यह, सीने को ताने आता है |
बोला सुलतान सलामत से, फरमाना बजा तुम्हारा है,
बाकई गुस्ताख अमर सिंह यह, करता ना अदब हमारा
है |
शाह को नाराज देख, बोला यूं सलावत खान,
मगरूरी के नशे में हुआ तू चूर है,
सीना तान तान क्या दिखलाता झूठी शान,
ऐसा क्या जहान में, निराला तू ही शूर है |
बोले अमर सिंह, कर न बकबक,
मैं भी जानता हूँ, दरवार में, रुतबा तेरा आला
है,
मुझे मालूम है मियाँ, भाई बेगम का ओ शहंशाह का
तू साला है |
पर कर ले याद सलावत खान,
मैंने कई बार तेरा ऐंठपन निकाला है,
चाहे अपनी खैर तो खामोश रह कहा मान,
वरना इस कटारी का निबाला होने वाला है |
सलावत बोला –
जवां को ले थाम, वरना करूंगा तमाम काम,
तेरे खून प्यासी मेरी तेग आबदार है,
हुआ ऐसा मगरूर, मौत तेरे सर सवार,
छोटी सी कटार पे गरूर बेशुमार है |
मारेगा मुझे क्या, खैर खुद की मना महज,
मुंह का लबार, नमकख्वार, निहायत ही गंवार है |
सुन ऐसे कटु बैन, फिर कहाँ चित्त को चैन,
हुए रक्त वर्ण नैन, मानो तीर मारा है,
बढ़ते अंगार, क्रोध का न आरपार,
डर से दरवार, थरथर काँप उठा सारा है |
कहने को गंवार, गकार काढा मुंह से उधर,
अमर ने प्रकाश काढा कमर से कटारा है |
उत गग्गा मुख ते कही, इत कर लई कटार,
वार कहन पायो नहीं, भई कटारी पार |
बस जैसे मार शिकारी को, बेतरह बिगड़ता शेर बबर,
कर क़त्ल सलाबत को ऐसे, आपे से बाहर हुए अमर |
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
कूद पड़ा लेकर कटार, कस कमर अमर सरदार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
जितने भी दरबार में थे, मुंशी मीर अहलकार,
थानेदार, सूबेदार, फौजदार, चौबदार,
एकला अमर सिंह, ये तादाद में थे बेशुमार,
गिरने लगे एक एक बार ही में, चार चार |
रुंड मुंड कटने लगे, बहने लगी रक्त धार,
लाशों का अम्बार लगा, ऐसी चलाई कटार |
कहने लगे कैसी बला आई, हे परवरदिगार,
रोये जार बेजार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
छिपते फिरते थे कौनों में, बड़े बड़े पहलवान,
कितने लेटे लाशों में,दम खींच मुर्दों के समान,
बैठे थे सीना फुलाए, दाढ़ी मूंछ तान,
मियाँ मीर मुंशी उमराव खान पठान,
छक्के छूट गए, भूल गए झूठी शेखी शान,
भागे लेके जान, छोड़ तेग तीर कमान,
ऐसा क्या खौफनाक नजारा था, कैसे करें बयान.
तख़्त छोड़कर शाहजहाँ सुलतान,
महलों हुए फरार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार |
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