किसान से बैरिस्टर वल्लभ भाई पटेल और फिर सरदार पटेल बनने की कहानी।
सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को नाडियाड में हुआ। उनके पिता झबेर भाई के जीवन का एक रोचक व रोमांचक प्रसंग है। 1857 के स्वातंत्र्य समर में भाग ले रहे झबेर भाई महारानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हो गए। युद्ध समाप्त हुआ, महारानी झांसी स्वर्ग सिधारीं तो उनके सेनानियों पर भी जुल्मो सितम के पहाड़ टूटे। झबेर भाई भी इंदौर में तत्कालीन महाराजा होल्कर के हत्थे चढ़ गए व गिरफ्तार कर लिए गए। महाराजा को शतरंज का शौक था तथा झबेर भाई भी शतरंज के अच्छे खिलाड़ी थे। जिस समय झबेर भाई को हथकड़ी बेड़ी में बांधकर महाराजा के सामने लाया गया महाराजा अपने प्रतिद्वंदी से शतरंज के खेल में डूबे हुए थे, उनकी पराजय नजदीक थी, तभी कैदी के रूप में खड़े झबेर भाई ने उन्हें एक चाल सुझाई। और बाजी पलट गई। महाराजा होल्कर हारते हारते जीत गए। स्वाभाविक ही नहुत खुश हुए और झबेर भाई जेल जाने के स्थान पर उनके कृपापात्र बन गए। ससम्मान अपने गाँव करमसद वापस पहुंचे।
गाँव आने के बाद उनका विवाह हुआ और पत्नी लाड़बाई से पांच पुत्र और एक पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई। हमारे महानायक बल्लभ भाई पटेल चौथे पुत्र थे। प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में ही प्राप्त करने के बाद माध्यमिक शिक्षा के लिए ननिहाल नाडियाड पहुंचे। पूत के पाँव पालने में ही दिखते हैं तो उसी दौर में अपने जुझारू तेवरों का भी परिचय दे दिया। स्कूल के अध्यापक जी विद्यार्थियों पर दबाब डालते थे कि पाठ्य पुस्तकें बाजार के स्थान पर उनसे ही खरीदी जाएँ। बल्लभ भाई ने इसके विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया। स्कूल पांच दिन बंद रहा। अंततः शिक्षक महोदय को अपना पाठ्य पुस्तकों का व्यापार बंद करना पड़ा। मैट्रिक की परीक्षा 1897 में पास करने के बाद 1900 में मुख्तारी की परीक्षा पास की और गोधरा में बकालत करने लगे।
बाल विवाह उन दिनों आम बात थी। 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह 13 वर्षीय झवेर बा से हो चूका था, किन्तु गौना तब हुआ, जब बकालत करने लगे। प्रारंभिक आर्थिक कठिनाईयों के बाद धीरे धीरे बकालत जम गई और उनकी गणना फौजदारी के अच्छे बकीलों में होने लगी। किन्तु तभी एक घटना घटी। बड़े भाई बिट्ठल भाई जो बोरसद में प्रेक्टिस कर रहे थे, उनकी किसी बात को लेकर अधिकारियों से ठन गई। जानकारी मिलने पर बल्लभ भाई भी गोधरा की जमी जमाई प्रेक्टिस छोड़कर बोरसद जा बसे। अपनी दक्षता और कुशलता से उन्होंने एक तहसीलदार को ऐसा फांसा कि विवश होकर बड़े भाई से अदावत रखने वाले अधिकारियों को समझौते को विवश होना पड़ा। बोरसद में भी बल्लभ भाई की धाक जम गई। हालत यह हो गई कि उनसे प्रभावित मजिस्ट्रेट अभियुक्तों को लगातार निर्दोष करार देने लगे। घबराये हुए प्रशासन ने बल्लभ भाई से पीछा छुड़ाने के लिए अदालत बोरसद के स्थान पर आनंद ले जाने की युक्ति निकाली। लेकिन वहां भी बल्लभ भाई ने पीछा नहीं छोड़ा और वे भी अपना बोरिया बिस्तर समेट कर आनंद जा पहुंचे। नतीजा वही ढाक के तीन पात। जिन मुकदमों की पैरवी बल्लभ भाई करते, अभियुक्त यहाँ भी धड़ाधड़ मुक्त होते रहे। अंततः अदालत एक बार फिर बोरसद स्थानांतरित हुई। यह घटना बल्लभ भाई के कौशल और चतुरता की अनोखी दास्ताँ है।
बोरसद में रहते हुए बल्लभ भाई ने जब पर्याप्त ख्याति और धन प्राप्त कर लिया तब बैरिस्टर की डिग्री हासिल करने के लिए विलायत जाने का विचार किया। यहाँ तक कि पानी के जहाज में स्थान भी आरक्षित करा लिया। किन्तु जैसे ही उनके अग्रज बिट्ठल भाई को इसकी जानकारी लगी, उन्होंने पहले स्वयं जाने की इच्छा जताई। अब चूंकि आरक्षण वी बी पटेल के नाम से हुआ था, अतः कोई समस्या भी नहीं थी, क्योंकि विट्ठल भाई और वल्लभ भाई दोनों ही वी बी पटेल ही थे। अंततोगत्वा बड़े भाई की इच्छा का सम्मान करते हुए वल्लभ भाई ने उन्हें ही बैरिस्टर की पढाई हेतु भेजा। इतना ही नहीं तो उनकी अनुपस्थिति में उनकी पत्नी, बच्चों को भी अपने साथ ही रखा। बड़े भाई बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत लौटे और उन्होंने मुम्बई में अपनी बकालत प्रारम्भ की। उसके बाद वल्लभ भाई विलायत गए। अब बारी बड़े भाई की थी। उन्होंने भी अपने छोटे भाई की अनुपस्थिति में उनके परिवार का उसी प्रकार ध्यान रखा। यही तो है भारत की वह संयुक्त परिवार व्यवस्था, जिससे पूरा विश्व प्रभावित होता है।
अगस्त 1910 में वल्लभ भाई मुम्बई से पानी के जहाज द्वारा लन्दन को रवाना हो गए। उसके पहले उन्होंने ना तो पानी का जहाज देखा था और ना ही पश्चिमी परिधान पहना था। लन्दन जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए वे मिडिल टेम्पिल में भरती हुए। अत्यंत परिश्रम पूर्वक उन्होंने सभी बारह टर्म पूरे किये व अंतिम सम्पूर्ण परीक्षा जून 1912 में उत्तीर्ण की। उसमें वे ऑनर्स के साथ पहले नंबर पर आये और उन्हें पुरष्कार स्वरुप पचास पोंड भी मिले। अपनी सफलता का कीर्तिमान रचकर वल्लभ भाई 13 फरवरी 1913 को वापस भारत पहुंचे।
बड़े भाई मुम्बई के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होकर मुम्बई धारा सभा के सदस्य बन चुके थे। छोटे भाई ने एक बार फिर उनका सहयोग करना तय किया तथा बिट्ठल भाई को आर्थिक दायित्वों से मुक्त कर दिया। उन्होंने अहमदाबाद में प्रेक्टिस शुरू की। अब कमाने का काम वल्लभ भाई के जिम्मे था और बड़े बिट्ठल भाई अपने सार्वजनिक दायित्वों में मशगूल थे। दोनों भाईयों ने मिलकर तय किया कि एक देश सेवा करे और दूसरा कुटुंब सेवा करे। किन्तु मछली की संतान क्या बिना तेरे रह सकती है ? और 1917 में वल्लभ भाई आमदाबाद म्यूनिसपेलिटी में चुन कर आ गये और चेयरमेन बन गए। उसी वर्ष प्लेग की महामारी फैली व सैकड़ों लोग मरने लगे। वल्लभ भाई ने उस दौर में अपने सेवाकार्यों से नगर वासियों व साथियों को बहुत प्रभावित किया। यही स्थिति अगले साल 1918 में इन्फ्लुएंजा महामारी फ़ैलने पर बनी। समूचा अहमदाबाद उन्हें आदर की दृष्टि से देखने लगा।
1915 से ही वल्लभ भाई गुजरात सभा के सदस्य थे। 1917 में महात्मा गांधी से उनका संपर्क बढ़ा। इसमें भी उनकी बकालत काम आई। हुआ यूं कि पूरे देश में बेगार विरोधी आंदोलन चल रहा था। गांधी जी ने अहमदाबाद का दायित्व वल्लभ भाई को सौंपा। वल्लभ भाई ने इस सम्बन्ध में कमिश्नर से पत्र ब्यवहार किया। कोई जबाब न मिलने पर नोटिस दिया कि कोई उत्तर न मिलने पर बेगार को गैर कानूनी वे स्वयं घोषित कर देंगे। अब कमिश्नर कैसे न बुलाता ? कमिश्नर के साथ सीधी चर्चा हुई और उनके तर्कों से प्रभावित कमिश्नर ने उनके मनोनुकूल निर्णय दे दिया। गांधी जी को जानकारी मिली तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए। लेकिन गांधी जी के साथ संपर्क बढ़ा खेड़ा आंदोलन के बाद। अतिवृष्टि के कारण किसानों की फसलें पूरी तरह बर्बाद हो गई थी, किन्तु शासन ने मदद करना तो दूर उलटे लगान बढ़ा दिया। इस विषम स्थिति में गांधी जी भी चम्पारण से खेड़ा आ पहुंचे। 22 मार्च 1918 को खेड़ा जिले के किसानों की एक बड़ी सभा नाडियाड में आयोजित की गई। और फिर शुरू हो गया करबंदी आंदोलन। सरकार को झुकना पड़ा और गांधी जी ने सार्वजनिक रूप से पटेल को अपना उप सेनापति घोषित कर दिया अर्थात उनकी गिरफ्तार हो जाने की स्थिति में बागडोर पटेल संभालेंगे यह घोषणा हो गई।
उसके बाद तो फिर चाहे रोलेट एक्ट विरोधी आंदोलन हो, चाहे झंडा आंदोलन सबमें पटेल की भूमिका रही। असहयोग आंदोलन के वे मुख्य प्रणेता थे। लेकिन पटेल को अखिल भारतीय पहचान दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण है बोरसद सत्याग्रह। गांधी जी जेल में थे। नवम्बर 1923 में अंग्रेज सरकार ने घोषित किया कि बोरसद तालुके की जनता बहुत अधिक अराजक, विकृत मस्तिष्क वाली नीच कार्य करने वालों को प्रोत्साहित करने वाली है, अतः वहां अतिरिक्त पुलिस तैनात की जाए व उसका सम्पूर्ण व्यय बोरसद तालुके से ही बसूला जाए। इस पर पटेल ने सरकार को चुनौती दी कि पहले वे आरोप सिद्ध करें और जनता को प्रेरित किया कि जब तक यह नया कर माफ़ नहीं कर दिया जाता, वे कोई भी कर न दें। सरकारी दमन चक्र चलने लगा। किन्तु अंततः ब्रिटिश हुकूमत को झुकना ही पड़ा। 5 फरवरी 2024 को गांधी जी के जेल से रिहा होने के बाद जब पटेल उनसे मिलने पहुंचे तो गांधी जी ने हंसकर उनका स्वागत करते हुए कहा - आओ बोरसद के राजा।
यही कहानी दोहराई गई बारडोली में। सन १९२८ में सरकार ने बारडोली में 30 प्रतिशत लगान बढ़ा दिया। पटेल के नेतृत्व में किसान खड़े हुए। हर प्रकार का कर देना बंद कर दिया गया। लोगों की जमीनें कुर्क की जाने लगीं। लेकिन इस कुर्की का महत्व ही क्या, जब कोई इस जमीन को खरीदने वाला ही न मिले। जब समाज जागता है तब क्या होता है, यह बारडोली ने बता दिया। सरकार कुर्क की गई जमीन की नीलामी का प्रयास करता किन्तु कोई खरीदने वाला ही नहीं आता। एक पारसी आया भी किन्तु समाज बहिष्कार ने उसकी घिघ्घी बाँध दी। जमीन छोड़कर भागने में ही उसने भलाई समझी। पूरे देश में बारडोली सत्याग्रह चर्चित हो गया। मुम्बई धारा सभा के एक सदस्य ने इस आंदोलन की सफलता के बाद पटेल की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए पहली बार उन्हें सरदार सम्बोधन दिया। उसके बाद तो सभी जानते हैं कि यह सम्बोधन कितना लोकप्रिय हो गया।
आजादी के बाद देश की 526 रियासतों के भारत में विलीनीकरण में सरदार पटेल की असरदार भूमिका तो जग जाहिर है ही। अंग्रेजों की कूटनीति ही तो थी कि जाते जाते वे राजाओं नबाबों को छोट दे गए कि वे छाए तो भारत के साथ मिलें, चाहें तो पाकिस्तान के और चाहें तो स्वतंत्र रहें। हैदराबाद ने स्वतंत्र रहना चाहा और शेष प्रिवीपर्स के आश्वासन के बाद सब देर सबेर भारत के साथ आये। यह सब सरदार पटेल की काबिलीयत ही तो थी।
महाप्रयाण -
सरदार वल्लभ भाई पटेल हैदरावाद के भारत में विलय के बाद 7 अक्टूबर सन 1950 को अंतिम बार हैदरावाद गए। उस अवसर पर हैदराबाद की नगर पालिका तथा हिंदी प्रचार सभा की ओर से उनका अभिनन्दन कार्यक्रम रखा गया व एक मानपत्र भेंट किया गया। इस अवसर पर सरदार पटेल ने मानो भविष्य कथन ही कर दिया। उन्होंने कहा -
जब आदमी दुनिया छोड़कर चला जाता है, असली मानपत्र तो उसके बाद मिलता है। आदमी अंतिम दिन तक कोई गलती न करे, तो उसकी इज्जत रहती है। किन्तु यदि आख़िरी समय में दिमाग खराब हो जाए, तो सारी जिंदगी का किया कराया व्यर्थ हो जाता। इसलिए हमें ईश्वर से प्रार्थना करना चाहिए कि अंतिम दम तक हम शुद्ध व निस्वार्थ भाव से जनता की सेवा करते रहें, ऎसी शक्ति हमें मिले।
और उसके दो माह बाद ही जब वे 12 दिसंबर को हवा पानी बदलने मुम्बई गए तो थोड़ी सी अस्वस्थता के बाद 15 दिसंबर को प्रातः नौ बजकर सेंतीस मिनिट पर उनका देहावसान हो गया। सारे देश में शोक की लहर छा गई। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू अनेक प्रांतों के राज्यपालों, मुख्य मंत्रियों की उपस्थिति में उनके एकमात्र पुत्र डाहयाभाई ने उनका अंतिम संस्कार किया।
कवी नीरज ने क्या खूब कहा है -
न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ, बस इतनी सिर्फ बात है,
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई।
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