अमर सिंह राठौड़ की, बांकी कठिन कृपाण |
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बैसे तो हम पूर्व में भी मारवाड़ की कहानी श्रंखला में अमर सिंह राठौड़ की शौर्य गाथा प्रसारित कर चुके हैं, लेकिन एक बार फिर उसे विस्तार से आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। राजपूत योद्धा मुग़ल बादशाह के दरवारी तो बन गए थे, किन्तु उनमें से बहुतों ने अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। यह अलग बात है कि उनमें बहुत से कुल द्रोही नराधम भी थे। वीरवर अमरसिंघ की गाथा ऐसे ही दो व्यक्तित्वों की कहानी है।
बात उन दिनों की है, जब मारवाड़ पर राजा गज सिंह राठौड़ का शासन था। गजसिंह पर बादशाह जहाँगीर इतना प्रसन्न था कि उन्हें दक्षिण का सूबेदार ही नियुक्त कर दिया | गोलकुंडा, परनाला कंचन गढ़, आसेर, सतारा आदि स्थान मराठों से छीनकर गज सिंह और उनके बेटे अमर सिंह ने मुग़ल राज्य में मिला दिए थे। अमरसिंह राठौड़ एक महान योद्धा तो थे, किन्तु महान जिद्दी और स्वाभिमानी भी थे। एक बार अपनी शरण में आये हुए एक डाकू को बचाने के लिए वे मुग़ल सैनिकों से भी भिड़ गए। राजनीतिज्ञ पिता गजसिंह ने उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया । किन्तु उनके पराक्रम को जानते हुए शाहजहां ने उन्हें नागौर का जागीरदार नियुक्त कर दिया। अमर सिंह का बढ़ता रुतबा बादशाह के साले सलाबत खां को पसंद नहीं आया और वह बादशाह के कान भरकर उन्हें नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहा। उसके बाद क्या हुआ, आईये कविता के रूप में जानते हैं -
है प्रसिद्ध शिवराय की, घाटदार तलवार,
भृगुपति कठिन कुठार से, परिचित सब संसार |
पृथ्वीराज चौहान के, वे जहरीले बाण,
अमर सिंह राठौड़ की, बांकी कठिन कृपाण |
इस अमर कटारी का चर्चा, चहुँ दिश सुनने में आता है,
आगरे किले का अमर द्वार, प्रत्यक्ष प्रमाण बताता है |
कैसा था अमर कटारी में, बस जौहर यही बताना है,
वीरों को आज वीर रस की, गंगा में स्नान कराना है |
शहर आगरे में किला, है इक आलीशान,
करता था शासन जहाँ, शाहजहाँ सुलतान |
इक शख्श सलावत खां नामी, शाह का मुसाहिब आला था,
रिश्ते में भाई बेगम का, और बादशाह का साला था |
ये अमर सिंह से किसी सबब, रखता बेतरह अदावत था,
इसलिए शाह से मनमानी, करता हर वख्त शिकायत था |
इक दिन दरवार अमर आये, मूछों पर पेचो ताव दिए,
बैठे संभाल जगह अपनी, सुलतां को बिन आदाब किये |
देखा जिस वक्त अमर सिंह को, बेतरह सलावत झल्लाया,
नीचा दिखलाऊंगा इसको, यह ठान शाह को भड़काया |
सुलतान, आपका अमरसिंह, कुछ खौफ न दिल में खाता है,
किस तरह आपके आगे यह, सीने को ताने आता है |
बोला सुलतान सलामत से, फरमाना बजा तुम्हारा है,
बाकई गुस्ताख अमर सिंह यह, करता ना अदब हमारा है |
शाह को नाराज देख, बोला यूं सलावत खान,
मगरूरी के नशे में हुआ तू चूर है,
सीना तान तान क्या दिखलाता झूठी शान,
ऐसा क्या जहान में, निराला तू ही शूर है |
बोले अमर सिंह, कर न बकबक,
मैं भी जानता हूँ, दरवार में, रुतबा तेरा आला है,
मुझे मालूम है मियाँ, भाई बेगम का ओ शहंशाह का तू साला है |
पर कर ले याद सलावत खान,
मैंने कई बार तेरा ऐंठपन निकाला है,
चाहे अपनी खैर तो खामोश रह कहा मान,
वरना इस कटारी का निबाला होने वाला है |
सलावत बोला –
जवां को ले थाम, वरना करूंगा तमाम काम,
तेरे खून प्यासी मेरी तेग आबदार है,
हुआ ऐसा मगरूर, मौत तेरे सर सवार,
छोटी सी कटार पे गरूर बेशुमार है |
मारेगा मुझे क्या, खैर खुद की मना महज,
मुंह का लबार, नमकख्वार, निहायत ही गंवार है |
सुन ऐसे कटु बैन, फिर कहाँ चित्त को चैन,
हुए रक्त वर्ण नैन, मानो तीर मारा है,
बढ़ते अंगार, क्रोध का न आरपार,
डर से दरवार, थरथर काँप उठा सारा है |
कहने को गंवार, गकार काढा मुंह से उधर,
अमर ने प्रकाश काढा कमर से कटारा है |
उत गग्गा मुख ते कही, इत कर लई कटार,
वार कहन पायो नहीं, भई कटारी पार |
बस जैसे मार शिकारी को, बेतरह बिगड़ता शेर बबर,
कर क़त्ल सलाबत को ऐसे, आपे से बाहर हुए अमर |
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
कूद पड़ा लेकर कटार, कस कमर अमर सरदार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
जितने भी दरबार में थे, मुंशी मीर अहलकार,
थानेदार, सूबेदार, फौजदार, चौबदार,
एकला अमर सिंह, ये तादाद में थे बेशुमार,
गिरने लगे एक एक बार ही में, चार चार |
रुंड मुंड कटने लगे, बहने लगी रक्त धार,
लाशों का अम्बार लगा, ऐसी चलाई कटार |
कहने लगे कैसी बला आई, हे परवरदिगार,
रोये जार बेजार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
छिपते फिरते थे कौनों में, बड़े बड़े पहलवान,
कितने लेटे लाशों में,दम खींच मुर्दों के समान,
बैठे थे सीना फुलाए, दाढ़ी मूंछ तान,
मियाँ मीर मुंशी उमराव खान पठान,
छक्के छूट गए, भूल गए झूठी शेखी शान,
भागे लेके जान, छोड़ तेग तीर कमान,
ऐसा क्या खौफनाक नजारा था, कैसे करें बयान.
तख़्त छोड़कर शाहजहाँ सुलतान,
महलों हुए फरार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार,
मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार |
मारकाट करते हुए अमरसिंह अपने घोड़े वहादुर पर सवार हो आगरा फोर्ट की दीवार फांदकर सुरक्षित निकल गए। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक के ही समान अमर सिंह के इस घोड़े बहादुर का नाम भी राजस्थान में प्रसिद्ध है। अपमानित बादशाह ने अगले दिन दरबार में घोषणा की कि अमर सिंह को मारने वाले को जागीरदार बना दिया जाएगा। एक दिन पहले ही अमर सिंह का शौर्य देख चुके दरबारिओं में से कोई भी तैयार नहीं हुआ। लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये इस भारत भूमि का कि अमर सिंह राठौर के साले अर्जुन सिंह ने लालच में आकर इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। और उसने यह किया कैसे, यह जानकर तो सर शर्म से झुक जाता है। वह मीठा ठग अर्जुनसिंह, अमरसिंह के पास पहुंचा और उनसे कहा कि बादशाह शाहजहां को अपनी गलती का एहसास हो गया है, और वह अमर सिंह जैसा योद्धा खोना नहीं चाहता। अतः आप मेरे साथ दरवार में चलो। हालांकि अमर सिंह को शुरूआत में इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, परन्तु अंततः वे विश्वासघाती अर्जुनसिंह के झांसे में आ ही गए।
जब ये लोग वहां पहुंचे तब दरवार का मुख्य द्वार बंद था, केवल एक छोटा दरवाजा खुला था, जिसमें से सर झुकाकर ही निकला जा सकता था। अमर सिंह की बहादुरी देख चुके एक फकीर ने उत्सुकता से बादशाह से पूछा - "ऐसे ऐसे बहादुर योद्धाओं के होते हुए हिंदुस्तान को वश में कैसे रखा जा सकता है ?
शाहजहां ने कहा, "रुको और देखो कि हम कैसे करते हैं"।
अमरसिंह झुककर उस दरवाजे से निकलने को तैयार नहीं हुए तो अर्जुनसिंह ने सुझाव दिया कि आप सर द्वार में डालने के स्थान पर अपने पैर पहले डालो। उसकी सलाह मानकर अमर सिंह ने उसकी तरफ पीठ कर जैसे ही अपने पैर उस खिड़की नुमा दरवाजे में डाले, अर्जुनसिंह ने अमर सिंह की पीठ में खंजर घोंप दिया। अमर सिंह वही पर वीरगति को प्राप्त हुए। उनका सर काट कर अर्जुनसिंह जैसे ही बादशाह के पास पहुंचा, बादशाह फकीर की ओर देखकर मुस्कराया और कहा "अब तुम्हें पता चल गया होगा कि हम बहादुर योद्धाओं का सामना कैसे कर लेते हैं । बाद में शाहजहां ने अर्जुनसिंह को इनाम की जगह मृत्युदंड दिया ।
अमर सिंह की रानी हाड़ी ने सती होने के लिए अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत को अनुरोध भेजा। यह ह्रदय द्रावक समाचार पाते ही बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सुनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडकने लगीं और बिना समय खोये तलवार उठाकर आगरा को रवाना हो गए। उनके कई साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टापों से जंगल गूंज रहा था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्घ होकर चढ़े चले जा रहे हों।
अमरसिंह राठौड़ का शव आगरा दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। मुग़ल सैनिकों को कल्पना ही नहीं थी कि कोई अमरसिंघ के पार्थिव शरीर को लेने आने का साहस करेगा। इसलिए जब अमर सिंह के भतीजे राम सिंह और बल्लूसिंह चाम्पावत दुर्ग में प्रविष्ट हुए, उनके होश उड़ गए। जब तक वे लोग कुछ समझ पाते, तब तक तो भारत के यह शेर अपने स्वामी को एक झटके के साथ उठाकर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर बढ़ लिए। मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़े और वहां से महाराणा राजसिंह द्वारा प्रदत्त उस घोड़े ने नीचे छलांग लगा दी। अमर सिंह राठौड़ के शव को तो बल्लू जी ने राम सिंह को को देकर नागौर को रवाना कर दिया और स्वयं मुग़ल सैनिकों को रोकने के लिए बहीं अड़ गए। वीर बल्लु जी चांपावत युद्घ करते-करते बलिदान हो गये। ….
बाद में, आगरा किले का वह संकीर्ण दरवाजा "अमर सिंह दरवाजा" के रूप में जाना जाने लगा। इतिहासकारों ने लिखा कि शाहजहां ने स्थायी रूप से वह दरवाजा बंद करने का आदेश दिया, क्योंकि वह उसे राजपूत शौर्य के समक्ष उसकी हार की याद दिलाता था। नागौर में अमरसिंह राठौड़ की 16 खंबो की छतरी है। अमरसिंह राठौड़ की कटारी और बल्लू चम्पावत के शौर्य को लोकगीतों ने अमर बना दिया है।
Tags :
इतिहास
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