मेवाड़ रक्षक वीरवर जयमल - पूर्वज गाथा
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हम पूर्व में वर्णित कर चुके हैं कि पन्ना धाय ने किस प्रकार अपने पुत्र को बलिदान कर चित्तोड़ के राजकुंवर उदय सिंह की प्राणरक्षा की। उदय सिंह राणा तो बने किन्तु अकबर के आक्रमण के समय चित्तोड़ की रक्षा का भार वीरवार जयमल राठौड़ को सौंपकर स्वयं वन पर्वतों की शरण में चले गए। जहाँ वे रहे, वहीँ उनके अन्य स्वामीभक्त सहयोगी व अन्य नागरिक भी आ बसे और इस प्रकार एक नया नगर उदयपुर अस्तित्व में आया। विषय पर आगे बढ़ने के पूर्व आईये कुछ चर्चा वीरवर जयमल राठौड़ की। सम्वत 1250 में मुहम्मद गौरी के हाथों पराजित होने के बाद कन्नौज नरेश जयचंद ने गंगा में जल समाधि ले ली। गौरी के वापस लौटने के बाद जयचंद के वंशजों ने कन्नौज पर पुनः कब्जा कर लिया। किन्तु सम्वत 1283 में शम्सुद्दीन अल्तमश ने पुनः कन्नौज पर मुस्लिम सत्ता स्थापित की। उस समय जयचंद के बेटे हरिश्चंद्र के पौत्र अर्थात बेटे सेतराम के पुत्र सीहाजी मरुभूमि मारवाड़ की ओर प्रस्थान कर गए। यह गाथा हम विस्तार से मारवाड़ की कहानी श्रंखला में वर्णित कर चुके हैं। दो सौ वर्ष बीतते न बीतते यह वंश लगभग समूचे मारवाड़ पर छा गया। पराक्रमी जोधा ने जोधपुर बसाया तो जोधा के एक बेटे बीका ने बीकानेर बसाया और एक अन्य पुत्र दूदाजी ने सम्वत 1518 में मांडू के सुलतान महमूद खिलजी से मेडते का इलाका छीनकर अपना स्वतंत्र राज्य कायम किया। मेड़ता का पौराणिक महत्व भी है, उसे महाराज मान्धाता द्वारा बसाया गया माना जाता है। इन्हीं दूदाजी के छोटे बेटे रतनसिंह जी की पुत्री थी प्रख्यात भक्त शिरोमणि मीराबाई, जिनका विवाह सम्वत 1573 में महाराणा संग्रामसिंह उपाख्य राणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। किन्तु विवाह के कुछ ही वर्ष बाद भोजराज स्वर्ग सिधार गए और बचपन से कृष्ण भक्त मीराबाई उसके बाद पूरी तरह भगवद्भक्ति में ही तल्लीन हो गई । सम्वत 1583 में पिता रतनसिंह जी भी खानवा के इतिहास प्रसिद्ध युद्ध में राणा सांगा की ओर से बाबर का मुकाबला करते वीरगति को प्राप्त हुए।मेड़ता और मेवाड़ सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ होते गए। सम्वत 1589 में जब गुजरात के सुलतान बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, तब भी मेड़ता नरेश वीरमदेव जी सेना सहित चित्तौड़ पहुंचे और तत्कालीन राणा विक्रमादित्य के सहयोग हेतु पहुंचे। मेड़ता नरेश वीरमदेव जी को जब उनके ही कुल के जोधपुर नरेश मालदेव ने सत्ताच्युत कर दिया, तब वे अपने ज्येष्ठ पुत्र जयमल के साथ दिल्ली के तत्कालीन शासक शेरशाह सूरी के सहयोगी बन गए। मेड़ता ही नहीं बीकानेर की भी यही कहानी है। बीकानेर पर भी मालदेव ने आक्रमण किया। अपने ही कुल के लोगों को निशाना बनाने का यह कृत्य राठौड़ इतिहास का कलुषित पृष्ठ है। इस युद्ध में बीकानेर के तत्कालीन शासक राव जैतसिंह जी ने मरणांतक युद्ध किया और चिरनिद्रा में सो गए। राजकुमार कल्याणमल ने सिरसा में शरण ली। शेरशाह ने मारवाड़ पर जो आक्रमण किया था, उसके मूल में यही घटना रही है। वीरमदेव जी और कल्याणमल के सहयोग से ही शेरशाह ने मारवाड़ पर आक्रमण करने की हिम्मत जुटाई। इसके पूर्व उसने रणथम्भौर, ग्वालियर और मांडू को अपने अधिकार में किया, हुमायूं को उमरकोट भागने को विवश कर दिया, जहाँ शहजादे अकबर का जन्म हुआ।
घर का भेदी लंका ढाये वाली कहावत के अनुसार कैसे वीरमदेव जी ने परम शक्तिशाली मालदेव को हानि पहुंचाई, वह बड़ा ही रोमांचक है। मालदेव ने जब मेड़ता पर कब्जा किया था, उस समय अधिकाँश राठौड़ सरदारों ने असहमति जताई थी। आखिर सभी एक ही कुल के तो थे। वीरमदेव जी से नाराज मालदेव ने उस समय उस समय सभी सरदारों से कहा था कि अगर मेड़ता जीत लिया तो उसमें से एक बीघा भी अपने पास नहीं रखूंगा, सब आप लोगों में ही बाँट दूंगा। और बैसा ही हुआ भी था। अब उसी घटना की पुनरावृत्ति की योजना वीरमदेव जी ने बनाई, यद्यपि कुछ अलग प्रकार से।
शेरशाह तो मालदेव जी की फ़ौजी ताकत से घबरा ही गया था, किन्तु वीरमदेव जी ने उसे ढांढस बंधाया कि आप तो बस तमाशा देखो, मैं बिना युद्ध के ही मालदेव को हरा दूंगा। उन्होंने शेरशाह से एक लाख फिरोजशाही मोहरें मांगीं। इतनी बड़ी रकम देने में शेरशाह ने आनाकानी की तो उन्होंने अपने बड़े बेटे जयमल को उसके पास बंधक रख दिया। उसके बाद वे मोहरें उन्होंने मात्र सतरह रुपये के भाव से सब मोहरें मालदव की सेना में बिकवा दीं। उन दिनों इनका भाव उन्नीस रुपये था। सस्ते में सोना मिलता हो, तो कौन मौक़ा छोड़ता, सबने खरीद लीं।
उसके बाद दूसरा कपट किया गया। राव मालदेव की सेना में जो पराक्रमी योद्धा थे, उनके नाम बादशाह शेरशाह की ओर से सौ फरमान लिखवाये गए और उन फरमानों को उत्तम किस्म की ढालों में अंदर सिलवा दिया गया। इन ढालों को भी बहुत सस्ते भाव में फर्जी व्यापारियों के माध्यम से मालदेव की सेना में बिकवा दिया गया। इन फर्जी व्यापारियों को निर्देश थे, कि जिन सरदारों के नाम ढाल के अंदर का फरमान है, वह ढाल उन्हें ही बेची जाए, जिस भाव में भी खरीदें, दे दी जाएँ। इसके बाद मालदेव को वीरमदेव ने पत्र लिखा कि मेरा राज्य आपने कपट पूर्वक जबरदस्ती छीन लिया, इसलिए मुझे विवश होकर मुझे बादशाह का आश्रय लेना पड़ा, लेकिन आपके विश्वासपात्र सामंत न जाने किस अभिप्राय से बादशाह से मिल गए हैं। उन्होंने बादशाह द्वारा दी गई अशर्फियाँ भी स्वीकार की हैं। विश्वास न हो तो उनकी ढालें उधेड़वा कर देख लें और उनकी तलाशी लेने पर मोहरें भी मिल जाएंगी। सावधान रहें।
मालदेव के मन में शक का भूत घर कर गया। और शक की दवा तो धन्वन्तरि के पास भी नहीं है। मोहरें और रुक्का मिलते ही वह आनन् फानन में युद्ध क्षेत्र से जोधपुर को रवाना हो गया। स्वामीभक्त सरदारों ने उन्हें बहुत समझाया, भरोसा दिलाने की कोशिश की, पर वह नहीं माना। इसके बाद वह हुआ, जिसके लिए राजस्थान की बलिदानी भूमि प्रसिद्ध है।
राव मालदेव के चले जाने का समाचार पाकर सेना ने भी पीछे हटना शुरू कर दिया, लेकिन वीरवार राठौड़ कुम्पा जी और जैताजी को यह कलंक लगना सहन नहीं हुआ और उन्होंने अपने ही दम पर शेरशाह का सामना करने का निश्चय किया। और फिर मात्र दस बारह हजार राठौड़ सैनिक टूट पड़े शेरशाह की अस्सी हजार की सेना पर। ऐसे पराक्रम से युद्ध किया कि कई बार तो शेरशाह की सेना के भी होंसले पस्त हो गए। लेकिन युद्ध आसमान था। विक्रम सम्वत 1600 पौष शुक्ल एकादशी को यह भीषण युद्ध हुआ था। दोनों पक्षों के दो दो हजार सैनिक युद्ध भूमि में खेत रहे। राठौड़ जैताजी, कूँपाजी, पंचायण जी, सोनिगरा अखैराज जी, आदि समस्त बहादुर सरदार तो मरण वृत्त लेकर ही युद्ध भूमि में आये थे। सबने वीरगति पाई।
युद्ध समाप्त हुआ और शेरशाह ने दोनों हाथ वीरमदेव के कन्धों पर रखकर कहा - अगर आज आप अपनी विलक्षण बुद्धि और प्रकांड वीरता से सहायता न करते तो एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।
उसके बाद जोधपुर पर भी शेरशाह का कब्जा हुआ तथा बीकानेर कल्याणमल और मेड़ता वीरमदेव जी को मिला। मेड़ता मिलने के दो माह बाद ही सम्वत 1600 के फाल्गुन मॉस में वे स्वर्ग सिधारे। राजनीति उस काल की हो या आज की। छल कपट उसका अनिवार्य अंग है। जरूरी नहीं कि जो दिख रहा है, वह सत्य ही हो। तपस्वी दिखने वाला मायावी दस्यु भी हो सकता है और किसी सज्जन को भी बदनाम करने के लिए विरोधी कोई भी प्रपंच कर सकते हैं। प्रजातंत्र में इसीलिए अधिक जागरूक और सजग जनशक्ति आवश्यक है।
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इतिहास
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