वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था और आज की जातियां।
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महाभारत के शांतिपर्व में भृगु लिखते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पन्न की, उस समय सभी लोग जन्मना ब्राह्मण ही थे। बाद में अपने अपने कर्मों के अनुसार लोग विभिन्न वर्णों में बंट गए। जो लोग ओजस्वी थे, जिन्हें लड़ाई झगड़ा प्रिय था, वे क्षत्रिय कहलाये। जिन लोगों ने कृषि कर्म और पशुपालन को जीविकोपार्जन का साधन बनाया, वे वैश्य हुए तथा जो द्विज असत्य भाषण करते थे, दुराचरण में लिप्त थे, उन्हें शूद्र कहा गया। परन्तु यज्ञ करने का अधिकार व कर्तव्य किसी के लिए भी वर्जित नहीं हुआ। स्पष्ट ही किसी को भी पूजा पाठ व ईश्वराराधन से रोक नहीं थी।
श्री मदभगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं - गुणों और कर्मों के आधार पर मैंने लोगों को चार वर्णों में बाँट दिया।
वर्त्तमान में जिन मनु को शूद्रों का परम शत्रु माना जाता है, उन्होंने भी मनुस्मृति में चारों वर्णों के पूर्व पुरुष "मनु" को ही लिखा है। इसीलिए सभी को मनुज अर्थात मनु से उत्पन्न कहा जाता है।
अत्रि संहिता में भी शूद्र, निषाद, चांडाल और म्लेच्छ, सभी को ब्राह्मण वंश का ही माना है। साधारणतः हिन्दू समाज के चार भाग थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, किन्तु वस्तुतः अनेक जातियां थीं। मनुस्मृति के अनुसार उन दिनों अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए, व्यावसायिक संघ बने हुए थे। जैसे जैसे व्यापारिक विकसित होते गए, बैसे बैसे संघों का महत्व और उनकी आतंरिक एकता भी बढ़ती गई। धीरे धीरे उनमें भी शादी विवाह और खान पान सबंधी ऐसे रीति रिवाज चल पड़े, जो वास्तव में जातियों के अनुकूल थे। इस प्रकार इन संघों ने आधुनिक जातियों का रूप ले लिया।
व्यापारी वर्ग के ही समान उत्पादक वर्ग के भी संघ बने हुए थे, जिनमें काम का बंटवारा, वंश परंपरा के अनुसार व्यवसाय ग्रहण करना, तथा हर व्यवसाय का एक प्रमुख होना - इस प्रकार प्रत्येक हस्त शिल्प का एक संघटन होता था, जिन्हें शताब्दियाँ बीतते बीतते जाति के रूप में मान लिया गया। ये जातियां चारों वर्णों से या उनके सम्मिश्रण से उत्पन्न नहीं हुईं, बल्कि सामाजिक संघटनों से अलग अलग जातियां बनीं। हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि गुलामी के कालखंड में आक्रांताओं ने जिन उच्च वर्ण के लोगों से गर्हित कार्य करवाए, वे समाज च्युत होकर पृथक जाति बन गए। मैला ढोने वाले सफाई कर्मी भंगी अथवा चर्मकार जाति उस कालखंड में ही अस्तित्व में आईं, क्योंकि उसके पूर्व किसी ग्रन्थ में उनका वर्णन नहीं मिलता। जबकि बढ़ई, नाई, बुनकर, शिल्पकार, मूर्तिकार, किसान आदि के उल्लेख मिलते हैं।
जो लोग हिन्दू समाज में अस्पृश्यता वा ऊंच नीच के भेदभाव के लिए वैदिक सभ्यता को दोष देते हैं, उन्हें जानकर हैरत होगी कि मनुष्यों के समान देवताओं के भी वर्ण कहे गए हैं। अग्नि और वृहस्पति को ब्राहण, इंद्र, वरुण और सोम को क्षत्रिय, वसु, रूद्र, आदित्य, मरुत और वैश्वदेव को वैश्य तथा पूषा आदि को शूद्र वर्णित किया गया है। महाभारत में भी उल्लेख है कि - आदित्य ब्राह्मण, मरुद्गण वैश्य, तो अश्विनीकुमार शूद्र हैं। वैदिक काल की वंशावलि से ज्ञात होता है कि एक ही परिवार में एक भाई ब्राहण तो दूसरा क्षत्रिय था। राजा रीतिमन का एक पुत्र देवापि ब्राह्मण तो दूसरा शांतनु क्षत्रिय हुआ। वह कथा तो प्रसिद्ध ही है कि किस प्रकार क्षत्रिय राजा विश्वराट ब्राहण ऋषि विश्वामित्र बन गए।
वैदिक वाङ्गमय से व्यवसाय परिवर्तन से वर्ग परिवर्तन के अनेकों उदाहरण एकत्र किये जा सकते हैं। एक क्षत्रिय राजा भोलानंद वैश्य हो गए, इतना ही नहीं तो उन्होंने वैदिक ऋचाएं भी लिखीं। ऋग्वेद में तीन वैश्य मंत्रकार थे - भोलानंद, वत्स या वासव और सकिल। ऐतरेय ब्राह्मण में विश्वान्तर से कहा गया है कि उसने यदि गलत अर्ध्य दिया तो उसकी संतानें अन्य तीन वर्णों की हो जाएंगी। दासी जाबाल के पुत्र सत्यकाम को तो यह भी ज्ञात नहीं था कि उसका पिता कौन है और उसने यह बात छुपाई भी नहीं, इसके बाद भी ऋषि हरिद्रुमित गौतम ने उसे अपना शिष्य बनाया और उसकी प्रशंसा करते हुए कहा - एक ब्राहाण पुत्र ही अपने सम्बन्ध में इतनी कठिन बात इतनी स्पष्टता और सहजत्ता से कह सकता है।
उस काल में चार वर्ण तो थे, किन्तु उनमें आज की तरह कोई भेद नहीं था। बिना किसी बाधा के एक दूसरे वर्ग में शादी होती थी। क्षत्रिय राजा रथानिधि की पुत्री का विवाह ब्राह्मण शकाश्व से हुआ, तो ब्राह्मण बृहस्पति ने अपनी कन्या रोमसा का विवाह क्षत्रिय राजा सदनय से कर दिया था। दुष्यंत और शकुंतला की कथा तो सुविख्यात है ही। राम शास्त्री लिखते हैं कि बौद्ध काल के पूर्व हिन्दुओं में खान पान तथा अंतर्जातीय विवाह को लेकर कोई निषेध नहीं था। बौद्ध काल में जिस प्रकार वैदिक या कहें कि हिन्दू संस्कृति को चुनौती दी गई, उससे ब्राहण सर्वाधिक चिंतित हुए और चूंकि शूद्र राजा नन्द और मौर्य अशोक के राज्य में बौद्धों को राज्याश्रय मिला था, अतः शूद्र व ब्राह्मण प्रभावित शेष समाज के बीच दूरियां बढ़ीं।
फिर आया इस्लामिक तूफ़ान। उसके बाद तो जैसे वर्गभेद की बाढ़ ही आ गई। हिन्दू समाज ने आत्मरक्षा में कछुए के समान एक खोल में स्वयं को ढक लिया। असंख्य बौद्ध उस दौर में मुसलमान हो गए, क्योंकि हिन्दू याकि ब्राहण तो उन्हें समाज की मुख्य धारा में स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे। वे तो समाज बहिष्कृत थे ही। हिन्दू समाज ने जिस समय शकों और हूणों को पचा लिया था, उस समय वे विजेता थे, किन्तु वह विजेता इस्लाम को नहीं पचा सका। पराजित समाज उस समय आत्म रक्षा में केवल बहिष्कार और वर्जना को ही अपना हथियार मान रहा था। उस समय ही वर्णों के स्थान पर जातियां अधिक प्रभावी हो गईं।
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राष्ट्रनीति
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