क्या सुशील कुमार सेन थे, चंद्रशेखर आजाद के प्रेरणा स्तोत्र ?




बात 26 अगस्त १९०७ की है। कोलकता के चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट मि. किंग्सफोर्ड की अदालत में कुछ क्रांतिकारियों का मुक़दमा चल रहा था। इसकी जानकारी मिल जाने के बाद वहां बड़ी संख्या में देशभक्त नागरिक भी एकत्रित हो गए थे और वन्दे मातरम का उद्घोष कर क्रांतिकारियों का होंसला बढ़ा रहे थे। भला यह अंग्रेज मजिस्ट्रेट को कैसे सहन होता। उसने पोलिस को आदेश दिया कि इन लोगों को अदालत परिसर से बाहर खदेड़ दिया जाए। बस फिर क्या था। होने लगा निर्मम लाठी चार्ज।

वहीँ एक पंद्रह वर्षीय किशोर भी मौजूद था। उससे यह अन्याय बर्दास्त नहीं हुआ और उसने उस अंग्रेज सार्जेंट पर मुक्कों की बौछार शुरू कर दी, जो पुलिस बल को और अधिक निर्ममता बरतने के लिए निर्देशित कर रहा था। सार्जेंट जब तक संभलता तब तक तो वह जमीन पर धराशाई हो चुका था। उस बालक को पकड़कर तुरंत ही मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड के सामने पेश किया गया। गवाह सबूत की जरूरत ही नहीं समझी गई और तुरंत ही सजा भी सूना दी गई। लगाओ इस उद्दंड लडके को पंद्रह बेंत।

पंद्रह बेंत की सजा बहुत कठोर हुआ करती थी। जब जल्लाद किसी की पीठ पर पूरी ताकत से बेंत का प्रहार करता था, तब न केवल लाल निशान पड़ता, बल्कि कुछ चमड़ी भी उधड़ जाती थी। आम तौर पर दो चार बेंत खाने के बाद ही अभियुक्त अपने होश खो बैठता था।

हमारे इस नायक किशोर को भी एक तिपाई पर पेट के बल उल्टा बाँधा गया और फिर शुरू हुआ बेंत मारने का क्रम। बालक ने सोचा कि अगर मेरे मुंह से चीख निकली तो यह तो कमजोरी की निशानी होगी। क्या भारत माता का यह पुत्र कमजोर साबित होगा ? नहीं कुछ भी हो जाये मेरे मुंह से चीख तो नहीं ही निकलेगी। अब नंगे बदन पर जल्लाद पूरी ताकत से बेंत मारेगा तो दर्द भी होगा और चीख भी निकलेगी। लेकिन बालक के मुंह से जो चीख निकली, उसने देखने वालों के रोंगटे खड़े कर दिये। जल्लाद के हर प्रहार पर बालक के मुंह से ओजस्वी नाद निकलता - वन्दे मातरम। बन्दे मातरम। बन्दे मातरम।

बेंत की मार समाप्त हुई उस समय उसकी पूरी पीठ खून से तरबतर हो चुकी थी। लेकिन वह ऐसे उठा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। अगले दिन कोलकाता में उस किशोर सुशील कुमार सेन का नागरिक अभिनन्दन किया गया। इस अवसर पर उस बालक किशोर कुमार सेन को उस समय के महान क्रांतिकारी नेता सुरेंद्र नाथ बैनर्जी द्वारा भेजा गया एक पदक भी पहनाया गया। देशभक्ति पूर्ण गीत गाते युवाओं की टोली के साथ उस वीर बालक का जुलूस जब सडकों पर निकला, तो आमजन ने पुष्प वर्षा कर उसका अभिनन्दन किया।

प्रशासन की क्रूर निगाहें उस पर चौकसी रखने लगीं और अगले ही वर्ष अर्थात 15 मई 1908 को सुशील कुमार सेन को एक बार फिर गिरफ्तार किया गया, वह भी किसके साथ ? महान क्रांतिकारी अरविंद घोष और वारिन्द्र कुमार घोष के साथ। उन लोगों के साथ उसे ही सात वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई, किन्तु अपील में वह बरी कर दिया गया। वह दूने जोश से क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न हो गया। सात वर्ष बीत गए। सुशील कुमार सेना अब किशोर से २२ वर्षीय युवा हो चुके थे, और उसके साथ ही देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने की तड़प और इच्छा भी बहुत बढ़ गई थी। क्रांतिकार्यो के लिए धन की आवश्यकता है, तो कैसे पूरी की जाये। युवा टोली ने तय किया कि हम उन लोगों को लूटेंगे जो अंग्रेजों के पिट्ठू हैं, अंग्रेजों ने जिन्हे राय साहब या मनसबदार बनाया है।

और यही अभियान शुरू हो गया। २८ अप्रैल १९१५ को जब ऐसे ही एक अभियान के बाद जब यह क्रांतिकारी दल दो नावों पर सवार होकर नादिया जिले के एक गाँव प्रागपुर पहुंचा और वहां एक गौशाला में भोजन बनाने लगा, तभी किसी मुखबिर की सूचना पर पुलिस वहां आ पहुंची। बस फिर क्या था, चलने लगीं दोनों तरफ से गोलियां। लेकिन दुर्भाग्य से एक क्रांतिकारी जब एक अंग्रेज अधिकारी पर निशाना साध रहा था, तभी कीचड़ में उसका पैर फिसल गया और वह गोली जो दुशमन का खात्मा करने को चलाई जाने वाली थी, सुशील कुमार सेन को जा लगी। क्रांतिकारी टोली तुरंत अपने घायल नायक को साथ लेकर नावों पर सवार हुई और उस स्थान से दूर निकल गई। अंग्रेज जब तक नावों का इंतजाम कर उनका पीछा करते, तब तक वह उनकी पहुँच से बाहर हो गए। 

सुशील कुमार ने समझ लिया कि उनका अंतिम समय आ गया है। जानते हैं, उन्होंने अपने साथियों से अपनी अंतिम इच्छा क्या जताई ? उन्होंने कहा मेरे शव को नदी में ही विसर्जित कर देना किन्तु सिर काटकर। अंग्रेजों को मस्तक रहित धड़ मिल भी गया तो, उन्हें यह ज्ञात नहीं होगा कि यह कौन लोग थे। सुशील कुमार सेन स्वतंत्रता की बलिवेदी पर न्यौछावर हो चुके थे। किन्तु उनके अभाव की पूर्ती आगे चलकर चंद्रशेखर आजाद ने की और भी अधिक प्रभावशाली ढंग से। 

दोनों के ही क्रांतिकार्यों का प्रारम्भ श्रीगणेश बेंतों की सजा से ही हुआ। आज हम में से अनेकों के लिए भले ही सुशील कुमार सेन का नाम नया हो, किन्तु तत्कालीन क्रांतिकारियों के लिए अनजाना नहीं था। उनके तथा अन्य क्रांतिकारियों के किस्से उनके बीच चर्चा का विषय रहा करते थे और वे उनसे प्रेरणा प्राप्त करते थे।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें