क्षत्रपति शिवाजी महाराज की सफलता के आधार - समर्थ स्वामी रामदास
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आजकल महाराष्ट्र
राजनैतिक चर्चाओं के केंद्र बिंदु में है। और आप सभी जानते हैं कि राजनैतिक जलजला
आने के पूर्व ही, क्रांतिदूत पर समर्थ स्वामी रामदास के कृतित्व पर आधारित लाइव प्रसारण की घोषणा
की जा चुकी थी। जो भी है आईये हम तो विषय पर चर्चा केंद्रित करते हैं। हास्य व्यंग के प्रख्यात कवी स्व. निर्भय
हाथरसी कहा करते थे, हमारा भारत राष्ट्र महान है। देखिये
इसमें महाराष्ट्र भी है तो सौराष्ट्र भी। व्यंग की बात जाने दें, महाराष्ट्र को यह नाम
यहाँ के संतों ने दिया है। राष्ट्रीयता यहाँ के बासिंदों के रक्त में है। जरा
विचार कीजिये कि निजामशाही, कुतुबशाही, आदिलशाही और न जाने कितनी शाहीयों के शासन के बाद भी यहाँ
हिंदुत्व की जड़ें कमजोर नहीं हुईं। आखिर क्यों ?
महाकवि भूषण ने भले ही
लिखा है -
काशी की कला जाती,
मथुरा मस्जिद होती,
शिवाजी ना होते तो
सुन्नत, होती
सबकी।
लेकिन वस्तुतः शिवाजी को
भी छत्रपति महाराज शिवाजी बनाने में इस धरा पर जन्मी आध्यात्मिक विभूतियों का बड़ा
योगदान रहा है। धर्मप्राण मां जीजाबाई के संस्कारों में पलते बढ़ते शिवाजी ने
हिंदुत्व की परंपरा के अनुसार किसी आध्यात्मिक गुरू का शिष्यत्व लेने का विचार
किया। उस समय महाराष्ट्र में दो संत प्रमुख थे। वे पहले संत तुकाराम जी के पास गए।
भक्त शिरोमणि संत तुकाराम की पारखी आँखों ने उन्हें परखा और फिर उन्होंने कहा - आप
जिस दैवीय कार्य के लिए उत्पन्न हुए हैं, उस कार्य के लिए तो आपके गुरू के रूप में समर्थ
स्वामी रामदास ही अधिक उपयुक्त होंगे। आप भक्ति मार्ग पर चलने के लिए नहीं
क्षत्रियोचित कार्य राष्ट्रधर्म की रक्षा हेतु धरा पर आये हैं।
संत तुकाराम ने इस
तेजस्वी तरुण को समर्थ को ही गुरू बनाने की सलाह क्यों दी, यह समर्थ के जीवन वृत्त से समझ
में आ जाता है। तत्कालीन औरंगाबाद जिले के नजदीक स्थित गाँव आम्ब जिन प. कृष्णाजी
पंत ने बसाया था, उन्हीं की इक्कीसवीं पीढ़ी में समथ का जन्म हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी यह परिवार ही
गाँव का प्रधान रहता आया था। तो उसी वंश के सूर्या जी पंत के घर मां राणूबाई के
गर्भ से सन 1608 की रामनवमी के दिन समर्थ अवतरित हुए। बचपन में नाम रखा गया नारायण। अत्यंत
कुशाग्र बुद्धि के किन्तु चंचल और ऊधमी बालक नारायण को देखकर तत्कालीन संत एकनाथ
जी ने कहा था, यह बालक तो हनुमान जी का अंश है।
संत की बात पांच वर्षीय बालक
के मनो मस्तिष्क में बैठ गई और बस हनुमान जी की भक्ति में रम गए। कालान्तर में
इनके बड़े भाई गंगाधर तो रामी रामदास नामक महात्मा हुए तो नारायण भी समर्थ स्वामी
रामदास कहलाये। नारायण जब बारह वर्ष के हुए, तो मां ने इनका विवाह करने का
विचार किया। लेकिन इनका मन तो एक ही ध्वनि गूंजा रहा था - जय जय रघुबीर समर्थ। वे
कहाँ विवाह बंधन में बंधने वाले थे। जब भी विवाह की बात उठती, घर से भाग जाते। थक हार
कर मां ने वचन लिया कि जब तक अंतर पट न पड जाए, तब तक ना तो भागना और ना ही ना
करना। मां ने सोचा था विवाह मंडप में एक बार पहुँच जाएंगे, तो फिर कहाँ जाएंगे। लेकिन आसन
में वधू के घर वर वधु के बीच डालें अंतर पट को हटाने के पूर्व प्रथा के अनुसार
जैसे ही पंडित ने कहा शुभ मंगल सावधान।
पहले से सावधान चले आ रहे नारायण इतने सावधान हुए कि तुरंत ही वहां से भाग
निकले और जा पहुंचे सीधे पंचवटी। वहां नजदीक ही टाकली गाँव में स्थित एक गुफा में
तपस्या प्रारम्भ कर दी। वे दोपहर तक गोदावरी के जल में कमर तक खड़े रहते। मछलियों
का काटना भी उन्हें विचलित नहीं करता। यहाँ तक कि लगातार पानी में खड़े रहने के
कारण उनके शरीर का निचला हिस्सा सफ़ेद पड़ गया। इस प्रकार कठोर तपस्या करते करते
बारह वर्ष बीत गए। तरुण से युवा हो गए। नारायण अब रामदास कहलाने लगे।
इस कठोर साधना के बाद
श्री रामदास ने देशाटन का तय किया और फिर अयोध्या, मथुरा,द्वारका श्रीनगर,बद्रीनाथ, केदारनाथ और मानसरोवर तक
गए। कुछ समय विश्राम करने के बाद दक्षिण की यात्रा भी की और सेतुबंध रामेश्वरम तक
गए। इस भ्रमण के दौरान जहाँ सनातन धर्म की दुर्दशा ने उन्हें उद्विग्न किया,
वहीँ उन्होंने
इसके बचाव का मार्ग भी खोज लिया। उन्हें समझ में आ गया था कि धर्म के प्रति आस्था
की कमी और आत्मविश्वास व स्वाभिमान शून्य होना ही देश की अवनति का मूल कारण है।
अतः पूरे भारत में उन्होंने लगभग सात सौ हनुमान जी और भगवान रामचंद्र जी के मंदिर
बनवाये और उनकी व्यवस्था के लिए सुयोग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया। जहाँ जहाँ
मंदिर, वहां
वहां अखाड़े और व्यायामशाला। मंदिर और व्यायामशालाओं के इस संयोजन ने शारीरिक रूप
से समर्थ और धर्म के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले युवा सेनानी तैयार कर दिए। पूरे
महाराष्ट्र में जय जय रघुवीर समर्थ का निनाद गूंजने लगा। किन्तु अब आवश्यकता थी एक
सुयोग्य सेना नायक की। जो संत तुकाराम ने शिवाजी को इनके पास भेजकर पूरी कर दी।
शिवाजी जब ऐसे समर्थ
स्वामी रामदास के शिष्य बने, तब उसके बाद समर्थ ने किस प्रकार उन्हें तराशा सुयोग्य नायक
बनाया इसके दो प्रसंग उल्लेखनीय हैं। समर्थ के अनेकों शिष्य थे, किन्तु शिवाजी सबसे
प्रिय थे। अन्य शिष्यों को सहज ईर्ष्या होने लगी। शिष्यों में जैसे शिवाजी
सेनानायक शाहजी के पुत्र थे, उसी प्रकार अन्य शिष्य भी अनेक प्रभावशाली लोगों की संतान
थे। समर्थ ने इस ईर्ष्या को दूर कर अपने शिष्यों में शिवाजी के प्रति आदर भाव
जागृत करने के उद्देश्य से एक नाटक रचा। वे कराहते हुए छटपटाने लगे। सबने पूछा
क्या हुआ। समर्थ ने कहा पेट में बड़ी जोर से दर्द हो रहा है। शिष्य दवा इत्यादि
लेने दौडने को उद्यत हुए, तो उन्हें रोककर समर्थ ने कहा - रुको रुको, यह सामान्य दवाओं से ठीक
होने वाला रोग नहीं है, इसके लिए तो एक विशेष ही दवा की जरूरत है। जो कोई ला नहीं पायेगा और मुझे कष्ट से मुक्ति
मिलेगी नहीं।
सभी शिष्यों ने आग्रह
किया - गुरूजी बताइये तो सही, हम लेकर आएंगे। गुरूजी ने कहा यह दर्द दूर करने की एक ही
दवा है, और
वह है शेरनी का दूध। यह सुनते ही सभी शिष्यों के होंसले पास्ट हो गए। अकेले शिवाजी
उस बरसाती रात में घटाटोप अँधेरे के बीच शेरनी का दूध लेने जंगल में जा पहुंचे। अब
इसे गुरू की कृपा कहें या शिवाजी का प्रारब्ध -एक शेरनी अपने बच्चों के साथ तेज
वर्षा से बचने के लिए उसी पेड़ के नीचे शरण लेने आ पहुँची, जहाँ शिवाजी भी खड़े थे। जैसे बाढ़
के दौरान सांप और नेवला भी एक पेड़ पर प्राणरक्षा के लिए शरण ले लेते हैं, यह भी बैसी ही स्थिति
थी। शिवाजी को अवसर मिल गया, जब बच्चे दूध पी रहे थे उसी दौरान शिवाजी ने भी एक पात्र
में धीरे से शेरनी का दूध दुह लिया और उसे लेकर गुरू के आश्रम में जा पहुंचे। जब सब नाटक था तब गुरू जी पीड़ा तो ठीक होनी ही
थी, हाँ
शिष्य मंडली में शिवाजी नायक के रूप में स्थापित हो गए।
शिवाजी को सफल होना ही
था,हो गए।
वे क्षत्रपति शिवाजी महाराज बन गए। उसके बाद भी समर्थ की नजर उन पर रही। समर्थ को
लगा कि शिवाजी महाराज में थोड़ा सा अहंकार आ रहा है, मैं कुछ कर रहा हूँ, मैं कुछ विशिष्ट हूँ। यह
भांपकर समर्थ स्वामी रामदास जी ने शिवाजी महाराज की उपस्थिति में एक मजदूर को एक
चट्टान तोड़ने की आज्ञा दी। मजदूर ने जैसे ही चट्टान पर घन पटका, चट्टान टूटी तो उसके
अंदर एक पोली जगह दिखाई दी, जिसमें जल भरा हुआ था और एक मेंढक भी वहां से फुदक कर बाहर
आ गया। समर्थ हंसकर शिवाजी महाराज से बोले -क्यों शिवा इस मेंढक के ज़िंदा रहने की
व्यवस्था भी तुमने ही की होगी। शिवाजी समझ गए। उसके कुछ समय बाद ही उन्होंने अपना
समस्त राज्य एक दानपत्र द्वारा समर्थ के चरणों में अर्पित कर दिया, और फिर उनके आदेश पर
उनके प्रतिनिधि के रूप में राजकार्य किया। समर्थ स्वामी रामदास जी द्वारा समय समय
पर दिए गए उपदेश जिस दासबोध में संकलित हैं, उसे महाराष्ट्र में गीता के समान
ही आदर प्राप्त है।
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Tags :
महापुरुष जीवन गाथा
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