मराठा साम्राज्य को पुनः उत्कर्ष पर पहुँचाने वाले पेशवा माधव राव
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पानीपत के युद्ध में पेशवा परिवार के दो सदस्यों सदाशिवराव भाऊ और पेशवा नाना साहब के युवा पुत्र विश्वास राव की मृत्यु और उसके कुछ समय बाद ही २३ जून १७६१ को पेशवा नाना साहब की मौत के बाद आम व्यक्ति को लगने लगा था कि अब मराठा राज्य के पतन के दिन आ गए | लेकिन उनके १६ वर्षीय तरुण पुत्र माधवराव के अल्पकालीन नेतृत्व ने ही यह धारणा बदल दी और वस्तुतः उन्होंने अपने अल्पकालीन ग्यारह वर्षीय शासन में ही मराठा साम्राज्य को उत्कर्ष के शिखर पर पहुंचा दिया था | यूं तो पेशवा माधवराव पर केन्द्रित एक विडियो हम पूर्व में बना चुके हैं, लेकिन सुधी दर्शक बंधुओं का आग्रह था कि, उनके विषय में विस्तार से बताया जाए | अतः कुछ नए प्रसंगों के साथ आपके सम्मुख हूँ |
जिस समय माधवराव पेशवा बने, उनके सामने चुनौतियां ही चुनौतियाँ थीं | ना केवल मुग़ल बल्कि दक्षिण के निजाम और हैदर अली ने उनके इलाकों पर कब्ज़ा जमा लिया था, इसके अतिरिक्त घर में भी फूट थी | पेशवा को कमजोर मानकर जहाँ नागपुर के भोंसले और कोल्हापुरकर उनकी खुली अवहेलना पर उतारू थे तो काका रघुनाथराव को भी अपने भतीजे का प्रभुत्व पसंद नहीं था। एक कमजोर और अस्थिर राज्य व्यवस्था को सुदृढ़ रूप देने वाले इस महानायक को महाराष्ट्र में आज भी सम्मान से याद किया जाता है | आईये आज इतिहास के उसी कालखंड पर एक नजर डालें | कैसे थे पेशवा माधव राव ?
सोलह वर्षीय पेशवा, अधरों के ऊपर अभी श्याम रंग भी नहीं आया था, गौरवर्ण, लम्बी, इकहरी किन्तु कसी हुई देहयष्टि, सर पर पगड़ी में हीरों का शिरपेंच, कानों में कुंडल, गले में मोतियों का हार, शरीर पर अंगरखा, वीरासन में सिंहासन पर बैठे माधव राव ने दरबार की कार्यवाही शुरू करने का आदेश दिया | कार्यवाही चलने लगी, जब समाप्ति की और थी तभी दिनकर राव महादेव खड़े हो गए और बोले – कसूर माफ़ किया जाये, श्रीमंत की जितनी सेवा संभव थी, आज तक की, अब कार्यमुक्त होना चाहता हूँ | मुझे जवाहरखाने की देखरेख से मुक्ति मिले, यही प्रार्थना है |
श्रीमंत पेशवा कुछ बोलते, इसके पहले ही रघुनाथ राव जी के बेहद नजदीकी और राज्य के व्यवस्थापक सखाराम बापू बोले - दिनकर राव, यह प्रश्न दरबार में उपस्थित करने की क्या जरूरत थी, हमें ही बता देते | हम तुम्हारी अर्जी पर विचार करेंगे और उचित समझेंगे तो सेवा से मुक्त कर देंगे | तुम्हें ध्यान रखना चाहिए कि यह पेशवाओं का दरबार है, व्यक्तिगत चर्चाओं का नहीं |
माधव राव अब तक सर झुकाए सुन रहे थे, उन्होंने सर उठाया और बोले – हम भी यही कहते हैं | बापू ने चोंककर माधवराव की तरफ देखा | पेशवा के चहरे पर आवेश था | वे तेज आवाज में बोले – सखाराम बापू, आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि जब हमारे सामने कोई अर्जी पेश हुई है, तो उसका निर्णय हम करेंगे, जरूरत होने पर आपसे सलाह मांगें, यह रीति है | हमारी उपस्थिति में हमारे निर्णय आप कैसे दे रहे हैं ?
अब पेशवा ने दिनकर राव से कहा - बोलिए आपको क्या समस्या है ?
दिनकर राव बोले – श्रीमंत पेशवाओं का जवाहर खाना बड़ी जिम्मेदारी है | वार त्यौहार पर बड़े लोगों के पास अनेक आभूषण जाते हैं, उनकी अगर लिखित पावतियाँ न आयें, तो गडबडी की संभावना रहती है | एक भी आभूषण इधर उधर हुआ, तो मुझ जैसा साधारण आदमी तो तबाह हो जाएगा |
राघोबा क्रुद्ध होकर खड़े हो गए और बोले – इस तरह घुमा फिराकर कहने की क्या आवश्यकता है, साफ़ साफ़ कहदो कि हमने पावतियाँ नहीं दी हैं |
सारा दरबार सहम कर क्रोधित राघोबा की विशाल देहयष्टि की ओर देख रहा था | सखाराम बापू धीरे से बोले – दिनकर राव तुम अर्जी वापस ले लो, नियमों के अपवाद भी होते हैं, मनुष्य देखकर ही नियमों का पालन किया जाता है |
लेकिन बापू का दिन ही खराब था, उन्हें एक बार फिर झिड़की सुननी पडी | कांपते हुए दिनकर राव की तरफ देखते हुए माधवराव खड़े हो गए और बोले – बापू यह पेशवाओं की मसनद है, लगता है आप इसे भुला बैठे हैं | यदि कोई उसका अपमान करने का साहस करेगा, तो हम अवस्था, मान या अधिकार का विचार नहीं करेंगे | दिनकर राव तुम सही कहते हो, आगे से पेशवा भी अगर लिखित पावती दिए बिना कुछ ले तो आपको अख्तियार है मना करने का |
और उसके बाद बिना एक क्षण भी रुके माधव राव दरबार से निकल गए | तमतमाए हुए राघोबा भी सीधे राजमाता गोपिका बाई के पास जा पहुंचे, लेकिन माधवराव ने भी बहां पहुंचकर उन्हें पिता समान बताकर और राज्य की व्यवस्था का हवाला देकर उस समय तो संतुष्ट कर दिया, किन्तु राघोबा के मन में स्थाई खटास आ चुकी थी | सखाराम बापू भी लगातार आग में घी डालते रहे |
कुछ तो परिवार में हुई लगातार मौतों के कारण और कुछ पारिवारिक विग्रह ने पेशवा को कुछ ज्यादा ही ईश्वर परायण बना दिया था | त्रिकाल संध्या व पाठपूजा में उनको पर्याप्त समय लगता था | उसी कालखंड में दिनकर राव जैसा ही एक प्रसंग न्यायाधीश राम शास्त्री का भी पेशवा के सामने आया | राम शास्त्री ने भी अपने पद त्याग की इच्छा जताई | बोले – श्रीमंत यह न्यायाधीश का पद काँटों का ताज है, निर्णय करने में बहुत श्रम और समय लगता है | इस झंझट में अध्ययन, पाठ पूजा और ध्यान आदि भी नहीं हो पाता है | इसलिए निश्चय किया है कि गंगा किनारे जाकर ईश्वर की सेवा में लगा जाए |
चकित भाव से पेशवा ने कहा – यह असमय निवृत्ति की बात क्यों ? आज की परिस्थिति में आप जैसे गुरुजनों का ही तो हमें सहारा है|
धीर गंभीर स्वर में शास्त्री बोले – किन्तु हम किसका सहारा ढूंढें |
पेशवा बोले – क्यों हम हैं ना ?
निर्लिप्त भाव से राम शास्त्री बोले – श्रीमंत आप ब्राह्मण है, स्नान संध्या, ईश्वराराधन ही सच्चा ब्राह्मण धर्म है, जिसका आप निष्ठा पूर्वक पालन भी कर रहे हैं | परन्तु श्रीमंत आप ब्राह्मण होने के साथ प्रधान मंत्री भी हैं | अतः प्रजा पालन आपका कर्तव्य भी है और धर्म भी | हम जब भी आते हैं, आपको होम हवन, पूजा पाठ में लीन पाते हैं | हम जैसे अधिकारी सलाह मशविरा करें भी तो किससे |
यह चर्चा सुन रहे नाना फड़नीस स्तब्ध रह गए | स्वयं पेशवा की जबान भी लडखडा गई | बोले – हमें तो लगा था ....और उनके शब्द गले में ही अटक गए |
शास्त्री का स्पष्ट स्वर गूंजा – श्रीमंत रुक क्यों गए ? लेकिन मेरा साफ़ कहना है कि अगर आपको वेदाध्ययन, जप तप करना ही है, तो मेरी आपको स्पष्ट सलाह है कि गद्दी छोडिये, मैं भी आपके साथ गंगातट पर चलता हूँ, दोनों मिलकर वहीँ शेष जीवन बिताएं | राम शास्त्री बेधड़क बोले जा रहे थे - श्रीमंत यह हो क्या रहा है यहाँ ? जिस शनिवार भवन में अटक के पार जाने की योजनायें बनीं, जहाँ भाऊ साहब ने कुतुबशाह के अंत का बीड़ा उठाया था, जहाँ हर दिन विजय की मस्ती के नगाड़े बजते थे, उसी भवन में आज केवल होम हवन का धुंआ उठ रहा है |
नाना ने शास्त्री जी को टोकने की कोशिश की तो माधव राव ने उन्हें रोक दिया और कहने लगे – शास्त्री जी, हम मानते हैं कि हमसे भूल हुई, अब आगे ऐसा कभी नहीं होगा | अब आप भी गुस्सा भूल जाईये |
रामशास्त्री हंसकर बोले – श्रीमंत, स्वामी पर गुस्सा करके सेवक कहाँ जाएगा भला ?
यह वही रामशास्त्री थे, जिन्होंने आगे चलकर पेशवा बने रघुनाथराव को पेशवा नारायण राव की ह्त्या का दोषी सिद्ध किया था और आमजन ने उसे स्वीकार कर रघुनाथ राव को पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया था | यह प्रसंग हम पूर्व में वर्णित कर चुके हैं, उसकी लिंक विडियो के अंत में देखी जा सकती है |
राम शास्त्री से चर्चा के बाद पेशवा ने आदेश कर दिया कि शनिवार भवन में आगे से कोई धार्मिक आयोजन नहीं होंगे, भवन के बाहर नगर के मंदिरों में होंगे | यह आदेश काका रघुनाथ राव को नागवार गुजरा और उन्होंने पूछा कि तुम्हे यह बुद्धि किसने दी ? माधव राव ने जबाब दिया – निजाम ने, जिसने मराठा राज्य में बबंडर मचा रखा है और हमारा सैनिक अड्डा नलदुर्ग जीतकर, अक्कनकोट का परगना रोंदकर, सोलापुर की ओर बढ़ा जा रहा है | उसका अगला लक्ष्य पुणे ही है | पेशवाई कर्ज में डूबी हुई है, सरदारों में एकता नहीं है | आप होम हवन को लेकर संदेह पाल रहे हैं, उधर सारी बैठक आपकी प्रतीक्षा कर रही थी, किन्तु आप नहीं आये | मेरी व्यवस्था आपको अनुचित लग रही है, तो उसे भंग करिए, आप पिता समान हैं | आप होम हवन करिए, शेष सरदारों के साथ मैं जाता हूँ निजाम का मुकाबला करने | प्राणों की बाजी लगाकर भी उसे पुणे तक नहीं पहुँचने दूंगा |
राघोबा की आखें भीग गईं, बोले – माधव जिसकी तलवार अटक तक पहुँच गई, जिसने निजाम को चौदह लाख का मुल्क छोड़ने को विवश किया, उस अपने काका को तू कोरा सन्यासी समझता है | तेरे आगे मैं चलूँगा |
और युद्ध के बाजे बजने लगे |
जीत में भी हार, हार में भी जीत
जब परिवार एकजुट हो, मुट्ठी बंधी हुई हो तो कोई भी शत्रु मुकाबले नहीं ठहर सकता | काका रघुनाथराव, पेशवा माधवराव, मल्हार राव होल्कर, अच्युतराव पटवर्धन जैसे शूरवीरों के सामने निजाम भी नहीं ठहर पाया और पराजित हुआ | लेकिन इस यशस्वी अभियान के बाबजूद राघोबा और पेशवा के बीच मतभेद और भी अधिक बढ़ गए | पेशवा की इच्छा के विरुद्ध राघोबा ने निजाम से संधि कर ली, तो पेशवा द्वारा सातारकर छत्रपति की मदद करने और मिरज का शासन अपने श्वसुर से लेकर अच्युतराव पटवर्धन को सोंपने से राघोबा चिढ गए और अभियान को बीच में ही छोड़कर पुणे लौट गए | माधवराव अकेले ही अपने मामा मल्हार राव रास्ते, गोपाल राव घोरपडे आदि के साथ मैसूर की ओर बढ़ गए | वे कर बसूल कर विजय दुंदभी बजाते हुए पुणे लौटे, लेकिन पेशवा को शारीरिक व्याधियों ने घेर लिया था और ऊपर से गृह कलह भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा था | उनके बहुत समझाने के बावजूद काका पुणे छोड़कर बडगांव को चले गए | उनके विश्वस्त सहयोगी बाबा पुरंदरे और सखाराम बापू भी आगे पीछे उनके पास पहुँच गए | राघोबा को मनाने की सब कोशिशें विफल रहीं | नाना फड़नीस, मल्हार राव होल्कर ही नहीं तो स्वयं पेशवा माधव राव, उनकी मातुश्री गोपिका बाई भी उनसे मिलीं और वापस चलने का आग्रह किया | किन्तु वे टस से मस नहीं हुए | हद तो तब हुई जब उन्होंने निजाम के साथ मिलकर पुणे पर आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी | स्पष्ट ही मराठा एकता एक बार फिर टूट रही थी | विवश पेशवा ने भी सेनाएं सजाना शुरू कर दिया | दादा रघुनाथ राव ने अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए धर्मक्षेत्र पैठन को लूटा है, इस समाचार ने उनके आवेश को और बढ़ा दिया |
और फिर वह समय भी आया, कि जिस दिल्ली दरबाजे से मराठा सेनायें, दिल्ली का तख़्त तोड़ने निकलीं थीं, वहां से ही सेनायें स्वजनों से संघर्ष हेतु निकलीं | घोड़नदी के किनारे दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ | पहले दिन के युद्ध में दोनों पक्षों की हानि हुई, बढ़त भले ही पेशवा की रही हो, लेकिन यह स्पष्ट था कि सेना को आपस में लड़ना रुचिकर नहीं लग रहा था | होल्कर ने सलाह दी कि एक बार मुझे फिर कोशिश करने दो, शायद संधि का कोई मार्ग निकल आये | कुछ सरदार सहमत हुए, तो कुछ असहमत | लेकिन फिर मल्हार राव होल्कर का दोनों छावनियों में आना जाना शुरू हो गया | राघोबा ने कहा कि माधव राव अपनी सेनायें पीछे हटा लें, तब ही समझौते की चर्चा संभव है | गोपालराव पटवर्धन ने चेताया कि श्रीमंत यह चाल है, वे सामरिक द्रष्टि से महत्वपूर्ण इस स्थान से हटाकर आपको कमजोर करना चाहते हैं | किन्तु स्वजनों के रक्तपात से ऊबे माधव राव ने यह सुझाव अनसुना कर दिया और सेना ने पीछे हटकर आलेगांव के पास डेरा डाल दिया | सेना समझौते की आस में असावधान थी, भीमा नदी पर घोड़ों को नहलाया जा रहा था, सैनिक भी स्नान ध्यान में लगे हुए थे, ठण्ड पड़ना शुरू हो गई थी, श्रीमंत भी डेरे के बाहर धूप में खड़े थे, तभी अकस्मात गोपाल राव घोडा दौडाते हुए आये और बताया कि दादा ने चढ़ाई कर दी है | उहोने आग्रह किया कि पेशवा सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ और हम लोग राघोबा दादा का प्रतिकार करेंगे |
माधवराव खिन्न होकर मुस्कुराए और बोले – आपको मौत के मुंह में छोड़कर मैं भाग जाऊं, इतना मूल्यवान नहीं रह गया यह जीवन | जाईये युद्ध की तैयारी कीजिए | छावनी से माधवराव का घोडा दौड़ते हुए देखकर निराश सैनिकों में भी जोश का संचार हुआ और वे भी अपने पेशवा के पीछे हर हर महादेव का जयघोष करते दौड़ पड़े | किन्तु असावधान सेना को एकत्रित होने का भी अवसर नहीं मिला और राघोबा के घुड़सवारों ने आकर मारकाट मचा दी | शाम को जब युद्ध रुका, तब तक पेशवा के पक्ष का काफी नुक्सान हो चुका था | निराश पेशवा ने अपने सरदारों को दूसरे दिन अपने आत्म समर्पण का निर्णय सुना दिया | बफादार योद्धा अपने आंसू नहीं रोक पा रहे थे, कईयों ने उनके साथ चलने का आग्रह किया | किन्तु माधव राव अडिग रहे, बोले मैं अकेला ही जाउगा, जो छावनी छोडकर जाना चाहें वे जाने को स्वतंत्र हैं | अपने डेरे पर राघोबा ने देखा कि अपने बफादार सेवक श्रीपति के साथ सर झुकाए घोड़े पर बैठे माधवराव टीले से नीचे आ रहे हैं | दो सौ घुड़सवार मंथर गति से उनके पीछे हैं |
राघोबा अन्दर डेरे में चले गए | निर्भय सर उठाये माधवराव छावनी में पहुंचे तो सैनिक स्वतः उनको मुजरा करने लगे | सबको जबाब देते वे अपने काका के डेरे के सामने रुके | जूते उतारकर अन्दर प्रवेश किया और श्रीपति जूतों के पास किसी पुतले की तरह खड़ा हो गया | पैर छूते माधवराव से राघोबा ने व्यंग से पूछा – कहो पेशवा क्या आदेश है ? जबाब ने माधव राव बोले – शरणागत होकर आया हूँ, आज्ञा तो आप देंगे और मैं पालन करूंगा |
राघोबा के तीखे तेवर अभी बरकरार थे, बोले, हमें भरोसा नहीं हो रहा, सही नहीं लगती बात | माधवराव तो मानो विनम्रता की हर सीमा लांघ जाना चाहते थे, उन्होंने पेशवा की पगड़ी राघोबा के सामने जमीन पर रख दी, और उनके जूते उठाकर अपने सीने से लगाकर बोले – काका यह पेशवाओं का सिरपेंच हैं, इसलिए आपके सामने गलीचे पर रखा है, अन्यथा चरणों में रखकर आपको भरोसा दिलाता |
राघोबा की ममता का बाँध फूट पड़ा, चिल्लाए – माधव क्या करता है, जूते नीचे रख | लेकिन माधव तो इस समय कुछ सुनना नहीं सुनाना चाहते थे, बोले – मेरे पिता मेरा हाथ आपके हाथ में सोंपकर गए थे, अतः काका आप मेरे लिए पिता तुल्य ही हैं | एक बार नहीं कई बार मैंने आग्रह किया कि आप पेशवा का पद संभाल लें और मुझे मुक्त करें, किन्तु आपको तो मुझ पर भरोसा ही नहीं था | यह सिरपेंच सामने है, जैसे चाहें उसकी व्यवस्था करें, जो चाहें वह दंड मुझे दें, किन्तु गृहकलह के कारण जन्मजात शत्रु निजाम को घर में न लायें | बस यही एक प्रार्थना करने आपके जूते उठाये आपके सामने खड़ा हूँ |
राघोबा आवेश में आगे बढे और माधव राव को अपने आगोश में ले लिया, उनकी आँखों से निकले आंसू माधव राव के सर का मानो अभिषेक कर रहे थे | वे बोले - माधव एक शब्द भी मत कहो, अभी अपनी छाबनी में वापस जाओ | हम संध्या तक अपनी छावनी यहाँ से हटाकर तुम्हारी छावनी में आयेंगे, तभी आगे बात होगी | पेशवा वापस जाने को मुड़े तो राघोबा ने रोका और अपने हाथ से पगड़ी उनके सर पर रख दी |
माधव राव के जाते ही चतुर सुजान सलाहकारों की मंडली दादा के आसपास जुट गई | भावुकता की जगह कूटनीति हाबी हो गई | आम सहमति थी कि दादा को पेशवा कोई स्वीकार नहीं करेगा, न शिंदे, ना होलकर, न पुणे वासी | अच्छा होगा कि पेशवा माधव राव को ही रहने दिया जाए और सत्ता सूत्र अपने हाथ में लिए जाएँ, और पहले पेशवा के विश्वासपात्र सरदारों को कमजोर किया जाये |
इस सलाह पर अमल शुरू हो गया | निजाम को उसके सहयोग के बदले, दौलताबाद का दुर्ग दे दिया गया, सिंहगढ़ सखाराम बापू को देने भर से उनका मन नहीं भरा तो छत्रपति राजाराम द्वितीय को हटाकर उनके स्थान पर जानोजी भोंसले को छत्रपति बनाने का अभियान भी शुरू कर दिया | व्यथित माधवराव को एक बार फिर ज्वर आने लगा | मानसिक संताप ने शरीर को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था |
छः महीने आलेगांव में ही रुकने के बाद दादा ने अपना पहला निशाना बनाया माधवराव के विश्वस्त गोपालराव पटवर्धन को और मिरज पर चढ़ाई कर दी | दो महीने मुकाबला करने के बाद पराजित गोपाल राव ने जाकर निजाम की शरण ले ली | यह कष्ट माधवराव के लिए मर्मान्तक था | काका ने गोपालराव जैसे स्वामीभक्त और प्रतापी योद्धा को शत्रु पक्ष में जाने को विवश कर दिया था, यह राज्य के लिए कितना हानिकर है, इसका अंदाज उन्हें था | परिणाम भी शीघ्र सामने आ गया, जिस निजाम को मित्र बनाकर काका राघोबा ने पेशवा माधवराव को नीचा दिखाया था, और जिन जानोजी भोंसले को राघोबा छत्रपति बनाने के मंसूबे बाँध रहे थे, उन दोनों में समझौता हो गया और वे संयुक्त रूप से पुणे पर चढ़ाई को तत्पर हो गए | होलकर को भेजे गए खलीते का जबाब भी नकारात्मक आ गया, उन्होंने आने में असमर्थता जता दी | सचमुच राघोबा ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और माधवराव के प्रति ईर्ष्या में अंधे होकर राज्य को गंभीर संकट में धकेल दिया था |
उनके सलाहकारों के भी हाथपांव फूल गए और वे निजाम से समझौते की सलाह देने लगे, जिसके लिए स्वाभिमानी राघोबा कतई तैयार नहीं हुए | उन्होंने विवश होकर माधवराव से ही सलाह मांगते हुए भी व्यंग में कहा – तुम्हें तो बड़ी ख़ुशी हो रही होगी, मुझे विवश और कमजोर देखकर | पेशवा माधवराव का जबाब आज के स्वार्थान्ध राजनेताओं के लिए मार्गदर्शक है, उन्होंने कहा – अगर घर में खटमल हो जाएँ, तो घर को आग नहीं लगाई जाती | इस समय राज्य पर संकट है, आपसी झगड़े का समय नहीं है | होलकर काका को सन्देश भेजो कि अब बागडोर हमारे हाथ में है, देखें वे कैसे नहीं आते | यह समय शिवाजी महाराज की छापामार शैली अपनाने का है, सीधे युद्ध का नहीं | निजाम पुणे की तरफ आ रहा है, तो हमें उसका मुकाबला करने के स्थान पर उसके औरन्गावाद पर चढ़ाई करना चाहिए |
कर्तव्यनिष्ठा के कारण मां से अलगाव
जिस समय मराठा सेना मिरज से औरन्गावाद की तरफ कूच करने की तैयारी कर रही थी, उसी समय राघोबा पर बज्रपात हुआ | उनके सबसे प्रिय पुत्र भास्करराव की एक दुर्घटना में मृत्यु का समाचार आया | दादा एकदम टूट से गए | सांत्वना देने पहुंचे माधवराव से बोले – माधव मेरा भास्कर चला गया, मेरे जीवन में तो अब अँधेरा ही अँधेरा है | रुंधे कंठ से माधव राव उनके कंधे पकड़कर बोले – काका जबतक मैं हूँ, ऐसी बात न बोलिए | यह समझिये कि भास्कर नहीं माधव चला गया और मैं भास्कर आपके सामने खड़ा हूँ | आप आँखों में आंसू न लाईये, आपको मेरी शपथ है | अभियान दो दिन के लिए रोक देते हैं |
ऑंखें बंद कर राघोबा बोले शपथ वापस लेले रे माधव, और अभियान रोकने की भी जरूरत नहीं है, यह समय सूतक मनाने का नहीं है दादा राघोबा, पेशवा, सखाराम बापू, नारों शंकर आदि के नेतृत्व में सेना ने भोंसले के अधिकार क्षेत्र का बराड़ लूट लिया | अपने प्रान्त की रक्षा के लिए भोंसले निजाम का साथ छोडकर उधर आया, तब तक यह सैन्य दल हैदरावाद की तरफ बढ़ गया | मल्हारराव होल्कर भी उनके साथ आ मिले | पैठन, नलदुर्ग, उदगीर, मेदक और हैदरावाद एक के बाद एक लुटे जा रहे थे | भोंसले और निजाम दोनों त्रस्त हो गए |
चिढ़े हुए निजाम ने इनका पीछा छोड़कर पुणे में कहर बरपा दिया | धर्मस्थान नष्ट कर दिए, धनपतियों के भवन जला दिए गए | सर्वनाश हो गया | इन समाचारों से तमतमाए राघोबा ने तुरंत पुणे की और बढ़ने का विचार किया, किन्तु पेशवा ने कहा कि यह तो आत्महत्या होगी, निजाम के जाल में फंसना होगा | हमें समय का इंतज़ार करना चाहिए | पेशवा ने जैसा सोचा था बैसा ही हुआ | निजाम ने जानोजी भोंसले की अवहेलना करना शुरू कर दी और अपनी आँखों के सामने धर्मस्थानों के विध्वंश से क्षुब्ध जानोजी का मराठा खून भी खौल उठा, उन्होंने पेशवा को सन्देश भेजा कि निजाम को सबक सिखाओ, मैं उसका साथ नहीं दूंगा | उनका संदेश मिलते ही औरन्गावाद की तरफ आते निजाम को बाढ़ से उफनती गोदावरी के तट पर घेरने की योजना बनी और राक्षसभुवन पर पेशवा सेना ने उसे घेर लिया | इस आक्रमण की भनक भी निजाम को नहीं थी, अतः उसकी आधी सेना तो गोदावरी पार कर गई और आधी ही सेना मराठा सेना के मुकाबले को शेष बची | लेकिन उसका नेतृत्व कर रहे निजाम के सेनापति बिट्ठल सुन्दर ने पेशवा सेना के छक्के ही छुड़ा दिए | वह स्वयं हाथी पर बैठकर जबरदस्त शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था | एकबारगी तो लगा कि मराठा सेना हार जायेगी | स्वयं रघुनाथ राव शत्रुदल से घिर गए और हताश मल्हार राव ने उन्हें छोड़कर पीछे हटने की सलाह दी | किन्तु जब पेशवा ने कहा कि काका को इस प्रकार घिरा हुआ छोड़कर मैं तो जा नहीं सकता, आपको पीछे हटना है तो हटिये, मैं आगे जाता हूँ, तो मल्हार राव को भी जोश आ गया और फिर तो हर हर महादेव का निनाद गुंजाते यह रणबाँकुरे दूने जोश से लौट पड़े |
और पांसा पलट गया | घोड़े पर सवार महाद जी सितोले के हाथ से छूटे भाले ने हाथी पर सवार होकर लगातार वाणवर्षा करते निजाम के सेनापति बिट्ठलसुन्दर की छाती बींध दी | उसके गिरते ही निजाम की सेना में हाहाकार मच गया, सब अनुशासन भूलकर वे अपनी जान बचाने को भागने लगे | एक ओर गर्जना करती गोदावरी की विशाल जलराशि और दूसरी ओर सपासप चलती हुई मराठा तलवारें | क्या हुआ होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है | इस विजय से पेशवा की छाती गर्व से फूल गई और उन्होंने उसी स्थान पर महादजी सितोले को मांजरी गाँव और सरदार का पद इनाम में प्रदान कर दिया | गोदावरी पार जा चुके निजाम ने भी वहां से भाग जाने में ही भलाई समझी | लेकिन पेशवा सेना ने उसे एक बार फिर औरन्गावाद में घेर लिया | विवश निजाम ने घुटने टेक दिये और भविष्य में कभी न लड़ने की कसम खाकर समझौता किया | राक्षस भुवन की विजय का समाचार पाकर सतारा में भी छत्रपति की आज्ञा से तोपें दगवाई गईं |
अपने काका से मुकाबला करने जिस दिल्ली दरबाजे से पेशवा निकले थे, वहीँ से निजाम को पराजित कर वे वापस पुणे में दाखिल हुए | शर्मिंदगी के भाव ने राघोबा को साथ नहीं आने दिया, वे सीधे आनन्दवल्ली को चले गए | पुणे में पेशवा के स्वागत की अद्भुत तैयारी की गई थी | निजाम द्वारा किये गए विध्वंश का कोई चिन्ह नजर न आये इसकी सबने चिंता की थी | पेशवा की पत्नी रमाबाई और मां गोपिका बाई को निजाम के आक्रमण के समय सुरक्षा की दृष्टि से सिंहगढ़ पहुंचा दिया गया था | वे वापस आ चुकी थीं और जब विशालकाय हाथी पर सवार माधवराव शनिवार भवन पहुंचे तब उन्होंने ही उनकी अगवानी की | स्वागत सत्कार तो हुआ, किन्तु फिर वह हुआ, जिसने पेशवा माधव राव को सदा सदा के लिए महाराष्ट्र में अमर कर दिया |
अगले दिन सुबह शनिवार भवन के सामने निजाम के आक्रमण से तबाह हुए लोगों की भीड़ जमा हुई तो माधवराव अस्वस्थ होते हुए भी बिना किसी तामझाम के उनके सामने पहुँच गए | लोगों की बर्बादी के किस्से सुनते उनकी आँखें छलछला आईं और उन्होंने राज्य के व्यवस्थापक सखाराम बापू को सबके नुक्सान की भरपाई के आदेश दिए | बापू बोले – लेकिन श्रीमंत इसमें तो खजाना खाली हो जाएगा |
माधवराव ने जबाब दिया – प्रजा राजा के बल पर ही निश्चिन्त रहती है, हम पुणे को बचा नहीं पाए, यह हमारी कमजोरी है, अतः इनके नुक्सान की जिम्मेदारी भी हमारी ही है | अगर खजाना खाली हो जाए, तो निजाम से बसूली धनराशी खर्च कर दो, फिर भी कमी पड़े तो जवाहर खाने के आभूषणों से भरपाई करो | ऐसी स्थिति में रत्नों की लडियां अपने सर पर झुलाने का हमको क्या हक़ है | जो वहां आये थे, उनके नुक्सान की ही व्यवस्था नहीं की, बल्कि शेष लोगों का पता लगाने स्वयं पेशवा पुणे नगर के भ्रमण को निकले | राह में अपने ध्वस्त मकान के आगे खडी एक वृद्धा ने उनसे घर के अन्दर चलने का आग्रह किया | पेशवा को बताया गया कि उनका नाम जिऊबाई निम्बालकर है और उनके पति तो पेशवा बाजीराव के दिल्ली अभियान के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए और तीनों बेटे अभी हाल ही में निजाम से युद्ध करते हुए स्वर्ग सिधारे | पेशवा ने वृद्धा का आग्रह स्वीकार किया और उस ध्वस्त भवन में प्रविष्ट हुए | अन्दर एकांत में वृद्धा बोली – सबके सामने नहीं कह सकती थी, अतः यहाँ आपको कष्ट दिया | पेशवा बोले – नहीं माँ कष्ट कैसा | वृद्धा ने कहा – इस भवन को निजाम के सैनिकों ने लूटा यह सच है, लेकिन इसमें धन है, इसकी जानकारी आपके मामा मल्हार राव ने दी |
पेशवा की पेशानी पर बल पड़ गए और बिना कुछ बोले बाहर निकल गए | वृद्धा का भवन पहले से अच्छा बन जाए इसके निर्देश तो दिए ही साथ साथ मामा मल्हार राव रास्ते को भी दरबार में तलब कर लिया | पेशवा के क्रोध का अनुमान कर मामा को कंपकंपी छूट रही थी | माधवराव गरजे – रास्ते आपने जो अपराध किया है, वह क्षमा योग्य नहीं है | जिस समय निजाम पुणे लूट रहा था, गाँव के मंदिर भंग कर रहा था, आप उसकी मदद कर रहे थे | हम निजाम के कृत्य को एक बार भूल सकते हैं, परन्तु आपको नहीं भूल पाएंगे | संबंधों का विचार कर हम आपको केवल अर्थ दंड दे रहे हैं | तीन दिन के अन्दर पांच हजार रूपये कार्यालय में जमा कर दें, अन्यथा आपकी स्थावर जंगम संपत्ति जब्त कर इसकी पूर्ती की जायेगी |
सरे दरबार हुई इस रुसबाई से मामा दुःख और क्रोध से भर गए | वे दरबार से सीधे अपनी बहिन अर्थात पेशवा की माँ के पास जा पहुंचे | उनकी शिकायत सुनकर गोपिकाबाई ने माधवराव को बुलाया और उनसे दंड माफ़ करने का आग्रह करते हुए कहा कि गोपाल राव पटवर्धन भी तो निजाम से जा मिले थे, उसके बाद भी तुमने उन्हें मिरज फिर से दे दिया, तो मामा का अपराध क्यूं माफ़ नहीं हो सकता ?
माधवराव ने दो टूक कहा – पटवर्धन सरदार थे, हमारे रिश्तेदार नहीं, इसके साथ ही वे काका द्वारा किये गए अन्याय के कारण विवशता में निजाम की शरण गए, और वह भी खुले आम, उन्होंने मामा की तरह पीठ में छुरा नहीं मारा | जिन मामा के भरोसे हम पुणे छोड़कर गए थे, वे स्वयं निजाम से मिल गए, यह विश्वासघात है, उनकी दगाबाजी कतई क्षमा योग्य नहीं है |
माँ ने ब्रह्मास्त्र चलाया और कहा – माधव यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न है, यदि सचमुच ऐसा हो गया, तो मैं किसी को मुंह भी नहीं दिखा सकूंगी |
माधवराव का जबाब था – दंड तो माफ़ नहीं हो सकता, आप आज्ञा करें तो हम अपने व्यक्तिगत खर्च में से यह रकम जमा करवा देते हैं |
अब माँ की बारी थी, उन्होंने भी माधवराव के ही तेवर में कहा – आपको इतना उदार बनने की जरूरत नहीं है, मेरे भाई अभी इतने गए गुजरे भी नहीं है | बस इतना स्मरण रखना माधव कि इसके बाद मैं इस भवन में पानी भी नहीं पीने वाली |
माधव राव काँप उठे, वे माँ गोपिका बाई के दृढ निश्चयी स्वभाव को जानते थे, उनकी आँखें भर आईं | बोले – अगर ऐसा हुआ तो मुझसे बड़ा अभागा कौन होगा, लेकिन मां राजकाज में भावना नहीं, कर्तव्य मुख्य होता है | जरा सोचिये उस माँ को मैं क्या मुंह दिखाऊंगा जिसके पति हमारे आजो बा महान बाजीराव के उत्तर भारत के अभियान में युद्धभूमि में काम आये और उनके तीन बेटों ने हमारे राज्य की खातिर शरीर त्यागा | मैं उस मां के अपराधी को कैसे माफ़ कर सकता हूँ भला ?
मां बेटे दोनों हठ के पक्के थे, तीसरे दिन जैसे ही मामा मल्हार राव ने दंड राशि जमा कराई, गोपिका बाई भी गंगापुर चली गईं | पहले से अस्वस्थ चल रहे माधव राव का स्वास्थ्य और भी गड़बड़ रहने लगा |
हैदर का पराभव
मराठों को लुटेरे कहने वाले अंग्रेज इतिहासकारों को आईना दिखाने वाले एक प्रसंग का उल्लेख यहाँ करना उचित होगा | एक प्रभावशाली मराठा सरदार बिसाजी पन्त लेले ने अंग्रेजों के जहाज लूट लिए, तो अंग्रेज फ़रियाद लेकर न्यायाधीश राम शास्त्री के सम्मुख उपस्थित हुए | उन्होंने न्यायासन के सम्मुख बिसाजी पन्त को बुलाया, परन्तु वे नहीं आये | इस पर शास्त्री ने आदेश निकाल दिया कि उन्हें जंजीरों से जकड़कर न्यायासन के सामने लाया जाए |
विवश लेले न्यायालय पहुंचे और पूरा मामला सुनकर न्यायाधीश राम शास्त्री ने विसाजी पन्त को क्षतिपूर्ति का आदेश दिया | लेले ने नाना फड़नीस और सखाराम बापू के माध्यम से यह मामला पेशवा के सामने तक पहुँचाया और कहा कि रामशास्त्री ने स्वयं पेशवा का अपमान किया है | इस पर पेशवा का पहला सवाल हुआ कि आपको इस लूट का आदेश किसने दिया और क्या आपने यह लूट सरकारी खजाने में जमा की ?
जैसे ही लेले ने कहा – नहीं, बैसे ही पेशवा की त्योरियां चढ़ गईं, गरजकर बोले – आप राज्य के सरदार हैं, तो क्या बिना राज्य के आदेश के, आप किसी को भी लूट कर अपना घर भर सकते हैं | हम केवल शत्रु पक्ष को लूटते हैं और वह भी राज्य की कोष व्यवस्था के लिए, जबकि अंग्रेज यहाँ व्यापार करने आये हैं, और अभी तक उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिससे उन्हें शत्रु माना जाए | आपकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी, इसके बाद भी आप न्यायाधीश की शिकायत लेकर आये हैं |
शेर की तरह आये लेले भीगी बिल्ली बन गए, धीरे से मिमियाए – लेकिन उन्होंने आपका भी अपमान किया | पेशवा ने कहा इसके विषय में उनसे ही पूछा जाएगा | और पूछा भी गया तो राम शास्त्री ने बताया कि लेले जी ने भरी सभा में आपके नाम का उल्लेख करते हुए न्यायपीठ पर प्रभाव जमाने का प्रयास किया तो उन्हें समझाईस दी गई – श्रीमंत पेशवा पर आपका प्रभाव होगा, उसका उपयोग यहाँ करने का कोई कारण नहीं है | स्वयं पेशवा की सिफारिश भी आपके दंड में कोई परिवर्तन नहीं कर सकेगी |
परमानन्द में डूबे गदगद माधवराव ने अपने गले से मोतियों की माला निकालकर राम शास्त्री की तरफ बढाई और कहा – इसे ना मत कहना शास्त्री जी, यह कोई पुरष्कार नहीं है, आज के इस प्रसंग की स्मृति स्वरूप इसे सदा गले में पडी रहने दें | शास्त्री जी आपकी न्याय व्यवस्था में हम कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे |
भाव विव्हल शास्त्री बोले – आप जैसा स्वामी हो तो राम शात्री तो एक क्या, कई पैदा हो सकते हैं |
यह वह समय था जब मैसूर में हैदर अली शक्तिशाली हो रहा था, किन्तु महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज के दो वंशज सतारा और कोल्हापुर में रहते हुए, एक दूसरे के प्रति वैमनस्य पाले हुए थे तो नागपुर के भोंसले इन दोनों को हटाकर स्वयं छत्रपति बनने की उधेड़बुन में जुटे हुए थे | ऐसे में सत्ता सूत्र संभाले पन्त प्रधान पेशवा माधव राव ने ही जिम्मेदारी संभालते हुए, हैदर का मुकाबला करने की ठानी | काका रघुनाथ राव आनंद वल्ली से पुणे लौट आये थे और राग रंग में मस्त थे, उन्होंने इस मुहीम में साथ चलने में असमर्थता जताई तो पेशवा अपने विश्वस्त सरदारों गोपालराव पटवर्धन, मुरारराव घोरपडे, बिंचुरकर, नारों शंकर और छोटे भाई नारायण राव के साथ अभियान पर निकले | सतारा और कोल्हापुर दोनों जगह के छत्रपतियों और कोल्हापुर की राजमाता जीजाबाई को प्रणाम कर वे हैदर से मुकाबला करने आगे बढे | रट्टेहल्ली नामक स्थान पर हैदर ने मुकाबला करने की कोशिश की, किन्तु उसे पलायन करना पड़ा | अगर असमय आई आंधी ने उसकी मदद न की होती तो वह पेशवा सेना की गिरफ्त में ही आ जाता | उसने समीपवर्ती अनबडी के जंगलों में शरण ली | जबकि उसकी एक टुकड़ी ने पेशवा के सहयोगी साबनूर के नबाब को घेरने भेज दी ताकि मराठा सेना से उसका पीछा छूट जाए | किन्तु पेशवा ने भी तुर्कीबतुर्की जबाब दिया और उसकी घेरेबंदी जारी रखते हुए, गोपाल राव परवर्धन को साबनूर बचाने भेजा, और वे सफल भी हुए |
उसी दौरान दो विचलित कर देने वाले समाचार पेशवा को मिले | पुणे में रहते हुए काका रघुनाथ राव ने एक बार फिर सरदारों से मिलना जुलना और अपनी शक्ति बढ़ाना शुरू कर दिया था | तो उत्तर में एक शख्स ने स्वयं को सदाशिव राव भाऊ प्रचारित करना शुरू कर दिया था और वह दक्षिण की ओर सेना लेकर बढ़ रहा था | वही सदाशिवराव जिन्हें पानीपत के युद्ध में मृत मान लिया गया था, किन्तु शव न मिलने के कारण उनकी पत्नी पार्बती बाई न तो सती हुईं और ना ही उन्होंने स्वयं को विधवा ही माना | वे इंतज़ार कर रही थीं कि एक न एक दिन उनके पति भाऊ जरूर लौटेंगे | अतः ये दोनों ही समाचार पेशवा को विचलित करने वाले थे |
घेरेबंदी को चार महीने बीत गए, वर्षाकाल समाप्त हो गया, फिर स्थिति यह बनी कि वर्धा नदी के एक ओर हैदर की छावनी थी तो दूसरी ओर पेशवा सेना मोर्चेबंदी में जुटी थी | एक सुबह अकस्मात हैदर की सेना पर गोले बरसने लगे, उनमें भगदड़ मच गई | हुआ यूं कि पेशवा ने स्वयं एक ऊंची पहाडी ढूंढ निकाली थी और रातों रात उस पर तोपें पहुंचा दी थीं | इस गोलाबारी में हैदर को बहुत नुक्सान हुआ, लेकिन इसके बाद भी वह भाग निकलने में सफल हुआ | इसके बाद यह लुकाछुपी चलती रही, हैदर को घेरने के प्रयत्न में पूरा एक वर्ष बीत गया | रघुनाथ राव पीठ पीछे पुणे में कोई कूटनीति न चल दें इस संभावना को ख़तम करने को पेशवा ने उन्हें आने के लिए सन्देश भेजा, वे आये भी, लेकिन एक शर्त के साथ कि अभियान के सूत्र उनके हाथ में रहेंगे, उनकी बात मानी जायेगी | लेकिन एक बार फिर पुरानी कहानी दोहराई गई | रघुनाथ राव ने हैदर से समझौता कर लिया, विवश हैदर ने जीते हुए सारे क्षेत्र और तीस लाख रूपया दिया | लेकिन यह तो बिना रघुनाथ राव के भी हो सकता था | माधव राव एक वर्ष से जिस हैदर को पकड़ने या पूरी तरह नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे थे, उसे रघुनाथ राव ने एक प्रकार से जीवन दान दे दिया | पेशवा का मन दुखी हो गया, दोनों काका भतीजे में मतभेद फिर घहरा गए | मानसिक और शारीरिक संताप ने पेशवा को और ज्यादा बीमार कर दिया |
पुणे लौटने के बाद उन्होंने उस कथित सदाशिव राव भाऊ पर ध्यान केन्द्रित किया और जल्द ही उसे पकड़ लिया गया | वह व्यक्ति सदाशिव राव भाऊ है या नहीं, इसका निर्णय करने को उसे नागरिकों के सामने खड़ा किया गया | इससे सदाशिव राव की धर्मपत्नी अत्यंत व्याकुल हुईं | भाऊ की भुआ अनसुईया बाई घोरपडे ने उस व्यक्ति को बहुरूपिया बताया, तो माधवराव ने स्वयं जांच करने का निर्णय लिया | पर्वती के मंदिर प्रांगन में स्वयं को सदाशिवराव भाऊ बताने वाले शख्स आसन पर बैठाए गए और उनके सम्मुख गंगाजली रख दी गई | माधव राव धीर गंभीर स्वर में बोले – मुझे पक्का भरोसा है कि तुम बहुरूपिये हो | पुणे के किसी भी व्यक्ति ने तुम्हें नहीं पहचाना है | लेकिन इसके बाद भी मैं तुम्हें श्रद्धेय सदाशिवराव भाऊ के रूप में स्वीकार भी कर लेता हूँ, लेकिन क्या तुमने उस महिला का विचार किया, जिसने पानीपत के युद्ध में पति के निधन का समाचार पाकर भी उस पर विश्वास नहीं किया | उस महिला ने आज भी अपने सौभाग्य अलंकार नहीं उतारे हैं | उस पतिव्रता साध्वी का क्या तू सामना कर पायेगा ?
क्षमा श्रीमंत क्षमा, मैं सदाशिवराव भाऊ नहीं हूँ, मैं तो बुंदेलखंड के तनोल गाँव का रहने वाला गरीब ब्राह्मण सुखलाल हूँ, जिसे नरवर के सूबेदार और गणेश संभाजी ने मना करने के बाद भी भाऊ बना दिया | आप चाहें तो मेरे गाँव में मेरे घर के लोगों से सचाई का पता लगा सकते हैं | रोते हुए पैरों पर गिरे उस व्यक्ति ने गुहार लगाई |
इस संकट से निबटकर पेशवा ने अन्य मुद्दों की तरफ ध्यान केन्द्रित किया | वे जानते थे कि उन पर खतरा तीन तरफ से है, एक निजाम दूसरे नागपुर के भोंसले और तीसरे उनके काका रघुनाथ राव | उन्होंने राघोबा को तो उत्तर में एक अभियान पर भेज दिया और फिर निजाम से आत्मीय मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये| एक माह वे उसके साथ रहे और मित्रता की भेंट के रूप में कुछ भूभाग उसे दे दिया | अब वे एक प्रकार से निष्कंटक थे, क्योंकि बिना निजाम की मदद के नातो भोंसले कुछ कर सकते थे और नाही राघोबा | यह आतंरिक व्यूह रचना करने के बाद उन्होंने फिर से एक बार हैदर का रुख किया | निजाम भी उनके साथ थे | हैदर को लगातार पीछे हटना पड़ा और स्थिति यह बनी कि हैदर के पास केवल श्रीरंगपट्टन और बिदनूर रह गए | हैदर ने समझौते का प्रस्ताव भेजा, वर्षाकाल नजदीक था, उधर राघोबा भी पुणे पहुँच चुके थे और पेशवा का स्वास्थ्य भी और बिगड़ गया था, अतः समझौता कर लिया गया, जीता हुआ सारा क्षेत्र मराठों का ही रहा और तेतीस लाख कर अतिरिक्त मिला | निजाम को उसका हिस्सा देकर संतुष्ट कर लिया गया और पेशवा वापस पुणे पहुंचे |
पुणे में काका रघुनाथ राव फिर रूसे बैठे थे, उन्होंने अपना हिस्सा माँगते हुए राज्य के दो भाग करने की मांग रख दी | हैरत से माधव राव ने पूछा – क्या यह राज्य अपना है, राज्य तो छत्रपति का है, हम लोग तो पेशवा हैं, अगर यह पद आपको लेना है तो आप ले लीजिये, उसके लिए कभी इनकार नहीं है | इतना कहते कहते माधव राव को खांसी आने लगी, वे लडखडा भी गए, राघोबा ने उन्हें संभालने की कोशिश की, तो उनके हाथ को हटाते हुए वे अपने महल की तरफ बढ़ गए |
दूसरे दिन रघुनाथ राव पुणे छोड़कर फिर आनंदवल्ली चले गए और अपने पक्ष के सरदारों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया | यह समाचार पाकर पेशवा ने भी आरपार का निर्णय कर लिया और पूरी तैयारी के साथ चढ़ाई कर दी | लेकिन युद्ध की नौबत नहीं आई, मध्यस्थों के बीच दादा का पच्चीस लाख का कर्ज चुकाने का वायदा माधव राव ने किया और दादा ने भविष्य में राजनीति न करने का वायदा किया |
सपत्नीक कारुणिक विदाई
काका सुधरने वाले नहीं थे, और माधवराव भी उनके प्रति आदर भाव नहीं छोड़ पा रहे थे | राघोबा ने एक बार फिर नागपुर के भोंसले और अंग्रेजों का साथ लेकर फ़ौज इकट्ठा करना शुरू किया | मल्हार राव होलकर का स्वर्गवास हो चुका था, अतः कोई मध्यस्थ भी नहीं बचा था, जो संघर्ष रुकवा पाता | अंततः घोडपे गाँव के निकट हुए संघर्ष में दादा ने पराजित होकर समर्पण कर दिया | उन्हें ससम्मान पुणे तो लाया गया, किन्तु उनके निवास स्थल बादामी बंगले में एक प्रकार से नजर बंद कर दिया गया | दादा के विश्वासपात्र सखाराम बापू का भी यही हश्र हुआ | उनका साथ देने वाले भोंसले और अंग्रेजों का भी मान मर्दन किया गया |
उसी समय एक घटना घटी | एक दिन जब पेशवा देवस्थल पर्वती के दर्शन कर लौट रहे थे, एक गार्दी ने अकस्मात उन पर हमला करने का प्रयास किया | स्वामीभक्त श्रीपति ने पूर्वानुमान से जोर से आवाज लगाई – श्रीमंत घात, अतः तलवार का जो वार पेशवा का सर धड से अलग कर सकता था, उससे उनका केवल कन्धा चोटिल हुआ | गार्दी तुरंत पकड़ लिया गया किन्तु हैरत की बात यह कि उससे न कोई पूछताछ स्वयं पेशवा ने की और ना ही उसे न्यायाधीश राम शास्त्री के सम्मुख पेश किया गया | उसे काल कोठरी में डाल दिया गया | पत्नी रमाबाई ने उनकी सेवा सुश्रुषा करते हुए जब इसका कारण पूछा तो निश्वास छोड़ते हुए माधव राव बोले – पूछताछ से क्या होता, उसने किसके कहने से किया, यह सबको मालूम हो जाता | जिसने करवाया क्या उसको कोई दंड दे सकता हूँ ? नहीं मुझमें यह साहस नहीं है | इसलिए वह नाम सामने न आये, इसमें ही भलाई है |
समझा जा सकता है कि कितनी विषम मानसिक वेदना में जी रहे थे पेशवा माधव राव | एक एक कर साथी भी विदा लेते जा रहे थे | गोपालराव पटवर्धन और घोरपडे अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर साथ छोड़ गए | मन व्यथित हो तो शरीर कैसे साथ दे सकता है ? लगातार आने वाला ज्वर, राजयक्ष्मा है, क्षयरोग है, धीरे धीरे सबको समझ आने लगा | वैद्यों के इलाज से कोई लाभ न पड़ता देखकर एक अंग्रेज डॉक्टर कनिंगहम ने भी उपचार शुरू किया, किन्तु कमजोरी बढ़ती जा रही थी | माधव राव निश्चिन्त भाव से मानो रोग से भी युद्ध कर रहे थे | उनका शयनागार ही उनका कार्यालय बन गया था | मैसूर का हैदर उनके मनोमस्तिष्क पर छाया हुआ था, अतः एक बार फिर अस्वस्थ अवस्था में ही सेना के साथ चल पड़े | किन्तु मिरज पहुंचने तक ही शरीर में सामर्थ्य नहीं बची तो त्रम्बक राव पेठे को कमान सोंपकर स्वयं वापस लौटे | डॉक्टर की सलाह पर वे पुणे छोडकर थेऊर पहुँच गए | पत्नी रमाबाई भी साथ थीं |
थेऊर के गजानन मंदिर में उन्होंने अपने सर की रत्न जटित कलगी देव के चरणों में समर्पित कर दी और प्रार्थना की, जितना बन सका इसका मान रखा, अब आप चाहो जैसी व्यवस्था करो | स्वास्थ तो नहीं सुधरा किन्तु चारों और से लगातार आ रहे शुभ समाचारों ने मन प्रसन्न अवश्य कर दिया | हैदर के विरुद्ध छेड़ी गई मुहीम सफल रही, नीलकंठराव ने अपनी आहुति देकर हैदर का वास्तविक पराभव किया | मराठा राज्य स्थिर हो चुका था | शिव छत्रपति के समय जितना प्रदेश था, उतना प्रदेश प्राप्त किया जा चुका था | तभी उत्तर से आये समाचार ने तो उन्हें गदगद ही कर दिया | पगड़ी पोशाक धारण कर वे भगवान गजानन के दर्शन को पहुंचे | और फिर समूचा महाराष्ट्र हर्षोन्मत्त हो उठा, किलों से तोपें गरज गरज कर उस शुभ समाचार पर प्रसन्नता का इजहार कर रही थीं | समाचार ही ऐसा था | जिन रोहिलों और पठानों ने पानीपत के युद्ध में बेशुमार मराठों को क़त्ल किया था, महाद जी शिंदे, तुकोजी होलकर, विसाजी कृष्ण बिनीबाले आदि सरदारों ने उनकी दुर्गति कर, दिल्ली की गद्दी पर शाह आलम को बैठा दिया था | स्थिति यह हो गई थी कि शाह आलम तो नाम मात्र का बादशाह था, असली सत्ता तो मराठों के हाथ में पहुँच गई थी ।
मंदिर से लौटकर पेशवा ने समाचार लेकर आये बापू और राम शास्त्री से कहा – आज हमारे आनंद की सीमा नहीं है, यह सुखद दिन कभी आएगा, इसकी कल्पना भी नहीं थी | जब राज्य का उत्तरदायित्व लिया था, तव पेशवाई कर्ज में डूबी हुई थी, श्री छत्रपति के घराने में फूट थी, कोल्हापुरकर और सातारकर में शत्रुता थी, जिन घर के लोगों पर भरोसा होना चाहिए था, उनसे शत्रुओं से अधिक भय लग रहा था, परन्तु गजानन की कृपा से आज दक्षिण में टीपू का पराभव हो चुका है, जन्मजात शत्रु निजाम अब मित्र है, दिल्लीपति आज हमारी सहायता से सिंहासन पर हैं, पानीपत की पराजय का दाग धुल गया है, राज्य का कोई स्वप्न अधूरा नहीं है |अब मृत्यु चाहे जब आ जाए हम स्वागत को तैयार हैं |
और सच ही श्रीमंत का ज्वर बढ़ने लगा | वैद्य और डॉक्टर दोनों ने मान लिया कि अब कोई आशा शेष नहीं है | श्रीमंत ने सतारा सन्देश भेज दिया कि छोटे भाई नारायण राव के लिए पेशवा के वस्त्र भेजे जाएँ | तभी एक दिन काका रघुनाथ राव भागने की कोशिश करते हुए पकडे गए और नाना फड़नीस उन्हें लेकर पेशवा के सम्मुख उपस्थित हुए | गंभीर ज्वर में भी माधव राव उठकर बैठ गए और नाना से बोले – नाना शीघ्र ही सतारा को दूसरा खलीता भेजिए कि नारायण राव की जगह काकाजी के नाम पर पेशवाई के वस्त्र भेजें | काकाजी को पेशवा पद प्राप्त होते देखने का सौभाग्य हमें जाने से पहले मिलने दो | राघोबा गिडगिडाकर बोले – नहीं माधव मुझे राज्य नहीं चाहिए | क्रोध से तमतमाए पेशवा गरजे – राज्य नहीं चाहिए, बगावत चाहिए | उत्तरदायित्व नहीं चाहिए अनुशासनहीनता चाहिए | आप तीन बार पेशवा पद ठुकरा चुके हैं | जीवन भर आपकी खुशामद ही करता रहा, अब सहन नहीं हो रहा, आप क्या समझते हैं, मुझे पता नहीं है कि उस गार्दी ने किसके कहने पर मेरी जान लेनी चाही थी ? अगर मेरी जगह कोई और होता तो हाथी के पैरों तले कुचलवा देता, सर धड से अलग कर देता | इतना कहते कहते माधव राव को खांसी आ गई और काफ के साथ खून क छींटे भी |
रघुनाथ राव रोते हुए बोले, कुछ मत बोल माधव, अब कोई चूक नहीं होगी, जो चाहे दंड दो | पेशवा ने कहा, अब कोई दंड नहीं, आप मुक्त हैं, जहाँ चाहें जाएँ | दादा नजर झुकाए बोले, तुमको इस हाल में छोड़कर मैं कहाँ जा सकता हों भला | मुझे अपने पास ही रहने दो |
चार दिन बीत गए | असह्य वेदना से कराहते माधव राव ने आदेश दिया, अब तो मुझे गजानन के मंदिर में ही ले चलो, अंतिम सांस वहां ही लेना चाहता हूँ | गजानन के श्रीविग्रह के सम्मुख पेशवा ने अपनी बसीयत लिखी | उनकी हालत देखकर पत्नी रमादेवी ने अपने विश्वस्त सेवक को सती के वस्त्र लेने पुणे भेजा | वह आनन फानन में वस्त्र लेकर लौटा, किन्तु पूरे पुणे में शोर मच गया कि पेशवा का अंतिम समय है और उनकी पत्नी सती होने जा रही हैं | सारा बाजार बंद हो गया और पूरा शहर मानो उमड़ कर थेऊर की और दौड़ पड़ा | उधर असह्य वेदना से कराहते पेशवा ने इच्छाराम पन्त से खंजर माँगा | पन्त दो कदम पीछे हट गए और बोले श्रीमंत कष्ट को सहन करें | इच्छाराम खंजर दो, पेशवाओं की आज्ञा है, इच्छाराम ने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए | अच्छा इतनी हिम्मत, श्रीपति कोड़ा लाओ, अरे जाता है या मैं ही लाऊँ |
रोते हुए श्रीपति कोड़ा लेकर आये | तो पेशवा ने हुकुम दिया – मारो इच्छाराम को, मारो मेरी शपथ है तुमको | श्रीपति ने होठों को भींचा और हाथ ऊपर उठा, कोड़ा पन्त की पीठ पर पड़ा | इच्छाराम पन्त की पीठ पर कोड़े पड़ते रहे और वे चुपचाप सहन करते रहे और माधव राव बोलते रहे और मारो, और मारो| वस्त्रों पर रक्त के धब्बे देखकर उन्हें कुछ होश आया और श्रीपति को रुकने का संकेत किया | समाचार पाकर नारायण राव भी वहां आ पहुंचे थे | पेशवा ने उन्हें पास बुलाया और उनका हाथ इच्छाराम पन्त के हाथ में सोंपकर बोले – यह पेशवाओं का उत्तराधिकारी आज तुम्हारे हाथों में सोंपता हूँ | वचन दो इसकी रक्षा का |
सामने बैठे गजानन को साक्षी कर वचन देता हूँ प्राण देकर भी छोटे श्रीमंत की रक्षा करूंगा | पन्त बोले |
तबतक बाहर से कोलाहल की ध्वनी आने लगी, तो पेशवा ने कारण पूछा | ज्ञात हुआ कि कोई थेऊर से पुणे जाकर सती के वस्त्र लाया है, इससे सारा शहर यहाँ आ पहुंचा है | माधवराव को फिर गुस्सा आ गया बोले – कौन लाया है, सामने लाओ | किसी को नहीं पता था कि कौन गया और कौन लाया, लेकिन बुजुर्ग रामजी आगे आये और बोले मैं लाया था श्रीमंत | हैरत से श्रीमंत ने पुछा – किसके कहने पर | रामजी सर झुकाकर बोले – श्रीमंत मर जाऊंगा, लेकिन नाम जुबान पर नहीं लाऊंगा | पेशवा गरजे – नाना अभी मेरे सामने इसके हाथ तोड़ो | हमारी मौत की झूठी अफवाह फैलाई है इसने |
तबतक रमादेवी वहां आ गईं और बोलीं ये मेरे आग्रह पर गए थे | उनके आते ही प्रांगण खाली हो गया और पेशवा बोले, मैं जानता था कि यही होगा, इसलिए देख लो मैंने बसीयत में सबके लिए कुछ न कुछ छोड़ा है, तुम्हारे लिए कुछ नहीं | और फिर वह कालरात्रि आ ही गई १८ नवम्बर १७१२ बुधवार कृष्णपक्ष अष्टमी | माधव राव भूमि शैया पर आ गए थे | गजानन का अखंड नाम स्मरण चल रहा था और चल रहा था अखंड अभिषेक | अचानक सब कुछ थम गया और उपस्थित जन क्रंदन कर उठे |
दूसरे दिन ओसारे में सभी सरदार उपस्थित थे, राघोबा अपनी बाहों में समाये नारायण राव के आंसू पोंछ रहे थे | तभी रेशमी श्वेत वस्त्र धारण किये रमाबाई दिखाई दीं | हाल ही स्नान करके आई थीं, मुक्त केश पीठ पर फैले थे, मस्तक पर अर्ध चंद्राकार कुमकुम रेखा के बीच हरी बिंदी, कानों में हीरों के कुंडल और गले में हीरों का हार चमक रहा था | हाथों में पन्नों के कंकण, नाक में हीरों की नथ | उपवासों से कृशकाय शरीर में से भी अपूर्व तेज दिखाई दे रहा था | वे माधव राव के सरहाने बैठकर मयूर पंख का पंखा झलने लगीं |
पारबती काकी, राघोबा, राम शास्त्री, नारायण राव सभी ने उन्हें रोकने की असफल चेष्टा भी की, किन्तु वे निर्विकार भाव से पेशवा की अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुईं | मार्ग में जो भी मिलता उसे अंजली से सिक्के प्रदान करतीं | घाट पर पैर रखने की जगह नहीं थी | चन्दन की चिता पर घी की ग्यारह आहुतियाँ देकर और प्रदक्षिणा कर रमाबाई धर्मशिला पर खडी हो गईं | स्वामिभक्त दासियों को सारे आभूषण देने के बाद उनकी देह पर सौभाग्यअलंकारों के अतिरिक्त कोई आभूषण नहीं बचा | अपार जन समुद्र की तरफ हाथ जोड़कर, माधव राव का सर अपनी गोद में लेकर, उन्होंने भी चितारोहण किया | देखते ही देखते आकाशगामी लपलपाती लपटों ने मानो परदा तान दिया |
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