बलिदान, शौर्य और महानता की त्रिवेणी - तीसरे से आठवें सिक्ख गुरु
1
टिप्पणियाँ
1 सितम्बर, 1574 को अमृतसर में गुरू अमरदास जी के देहावसान के बाद उनके दामाद रामदास जी सिक्खों के चौथे गुरु बने। गुरु रामदास के समय में ही लोगों से 'गुरु' के लिए दान लेना शुरू हुआ। वे बड़े साधु स्वभाव के व्यक्ति थे, इस कारण सम्राट अकबर भी उनका सम्मान करता था। कहा जाता है कि गुरु रामदास के कहने पर अकबर ने एक वर्ष पंजाब से लगान नहीं लिया। गुरु रामदास के बाद से ही गुरु की गद्दी वंश-परंपरा से चलने लगी और उनके बाद उनके पुत्र अर्जुन देव गुरु नियुक्त हुए ।
एक बार चुगलखोरों की शिकायत पर दिल्ली से सुलही खां गुरू अर्जुनदेव जी को अमृतसर से निकालने को रवाना हुआ | उसके आने का समाचार सुनकर गुरूजी अमृतसर से बडाला चले गए | किन्तु सुलही खां जब रास्ते में अपने एक मित्र प्रथ्वीसिंह के पास ठहरा, तो बहीं ईंटों के सुलगते आबे को देखते समय घोड़े समेत उसमें जा गिरा और मर गया | यह घटना सुनकर गुरू जी के मुख से शब्द निकले –
तुमरे दोखी हरि आप निवारे अपदा भई वितीत
अर्थात प्रभु ने दुःख देने वालों को स्वयं समेट लिया है, और विपत्ति टल गई है | बडाली से वापस आकर हरमिंदर साहब का निर्माण पूर्ण हुआ तो भाई बुड्डा जी तथा भाई गुरुदास जी ने मार्गदर्शन चाहा कि हर मंदिर में कोई न कोई मूर्ति होती है, इस मंदिर में कौनसी मूर्ति स्थापित की जाए | गुरू जी ने फरमाया कि यह तो निर्गुण स्वरुप अकाल पुरुष का हरि मंदिर है अतः इसमें तो गुरुओं की उपदेशमई वाणी का निवास कराना ही उत्तम होगा | इसलिए आज ही सारे सिख मंडलों में सभी सिखों को हुकुम नामे भेज दिए जाएँ कि जिसके पास भी गुरु नानकदेव जी, गरु अंगद देव जी, गुरू अमरदास जी की कोई भी वाणी लिखी हो, वह सब लेकर अमृतसर पहुँच जाएँ, अगर जवानी याद हो तो वह भी स्वयं लिखकर या किसी से लिखवाकर भिजवाई जाए | इसके बाद जब सब तरफ से गुरुवाणी पहुँच गईं, तब गुरूजी स्वयं व भाई गुरुदास जी ने एकांत में बैठकर प्रत्येक वाणी को शब्द छंद, अष्टपदी, सोहिले, वारां आदि व्यवस्थित रूप प्रदान किया | इस प्रकार प्रथम ग्रन्थ साहब का प्रकाश हरमिंदर साहब में सम्बत १६६१ की भाद्रपद सुदी एकम को हुआ | बाबा बुड्डा जी प्रथम ग्रंथी नियुक्त हुए |
सिक्खों का संप्रदाय शांत, विनम्र एवं भावुक संतों का सम्प्रदाय था, किन्तु एक घटना ने उन्हें सामरिक बना दिया | हुआ कुछ यूं कि जहाँगीर ने जब अपने भाई खुसरो को मारने के लिए खदेड़ा, तब वह जान बचाते हुए गुरू अर्जुनदेव जी की शरण में पहुंचा और कुछ आर्थिक मदद की याचना की | दया कर गुरू जी ने उसे पांच हजार रुपये दिए | एक चुगलखोर ने यह कहानी जहाँगीर तक पहुंचा दी | जहाँगीर ने इन्हें लाहौर बुलाकर दो लाख रुपये का जुरमाना, साथ ही ग्रन्थ साहब में से वे सभी पंक्तियाँ निकालने का हुकुम दिया, जिनसे इस्लाम का थोडा भी विरोध प्रगट होता है | किन्तु गुरू अर्जुनदेव जी ने दोनों ही आज्ञा मानने से इंकार कर दिया | इस पर जहाँगीर ने गुरू जी पर भयंकर अत्याचार किये | उनके ऊपर गर्म की हुई रेत डाली गई, जलती हुई लाल कडाही पर बैठाया गया और उन्हें उबलते हुए गर्म जल से नहलाया गया | गुरू महाराज ने सब कुछ सहन किया और मुंह से आह तक नहीं निकाली | फिर राबी के तट पर उनकी जीवन लीला समाप्त हुई | तो यह था जहाँगीरी न्याय, जिसकी शान में बड़े कसीदे स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों ने गढ़े और पढ़े |
जहाँगीर ने गुरू अर्जुनदेव जी के मात्र सोलह वर्षीय सुपुत्र हरगोबिन्द जी को भी गिरफ्तार कर ग्वालियर के किले में बंद करवा दिया | बाद में जब बाबा बुड्डा जी ने लाहौर के साईँ मियाँ मीर से संपर्क किया, व दोनों दिल्ली जाकर जहाँगीर से मिले और उसे बताया कि चुगलखोर चंदू अपनी बेटी की शादी हरगोबिन्द जी से करना चाहता था, किन्तु गुरू अर्जुन देव जी तैयार नहीं हुए, इसी कारण बदला लेने के लिए, उसने आपसे गलत बातें कीं और गुरूजी को शहीद करवा दिया | चूंकि जहाँगीर मियाँ मीर की इज्जत करता था, अतः उसने हरगोबिन्द जी को ग्वालियर से मुक्त कर दिल्ली लाने का हुक्म दिया | उस समय का ही वह प्रसंग मशहूर है कि ग्वालियर किले में बंद बावन राजाओं को भी गुरू हरगोबिन्द जी ने युक्ति पूर्वक मुक्त करवा लिया | जहांगीर का हुकुम था कि जितने राजा हरगोबिन्द जी के अंगरखे को पकड़ कर आ सकें, उन्हें मुक्त कर दिया जाए | इस लिए गुरू हरगोबिन्द जी ने विशेष रूप से बावन कलियों बाला एक अंगरखा सिलबाया, जिसकी हर कली को पकड़कर सभी बावन राजा जेल से बाहर हो गए | इस प्रसंग की याद में आज भी ग्वालियर किले पर गुरुद्वारा दाताबंदीछोड़ बना हुआ है |
गुरू अर्जुनदेव के साथ जो अमानुषिक अत्याचार हुआ, उसे भूलना किसी भी सिक्ख के लिए संभव नहीं था | इस घटना से उन्होंने यह भी समझ लिया कि केवल जाप और माला से धर्म की रक्षा संभव नहीं है, यदि धर्म को बचाना है तो उसके लिए तलवार भी धारण करनी होगी | अतः छठवें गुरू हरगोविंद जी ने सेली की जगह शरीर पर योद्धा का परिधान धारण कर लिया और आज्ञा जारी की कि अब भक्त गुरूद्वारे में चढाने के लिए द्रव्य नहीं, अश्व और शस्त्रास्त्र भेजा करें |
गुरू हरगोविंद जी संत होने के साथ साथ बड़े भारी योद्धा और पराक्रमी पुरुष थे | चुगलखोर चंदू तो मारे शरम के अपनी मौत आप मर गया, लेकिन उसका बेटा करमचंद गुरूजी के साथ हुए संघर्ष में अपनी करनी का फल पाया | मुग़ल साम्राज्य द्वारा भी सिक्ख संप्रदाय को कुचलने के लिए बार बार आक्रमण किये गए, किन्तु उन्हें हर बार मुंह की खानी पडी | सारा हिन्दू समाज उन्हें धर्म और संस्कृति रक्षक के रूप में देखने लगा और यह परम्परा चल पड़ी कि हर हिन्दू परिवार अपने एक पुत्र को गुरू की शरण में उत्सर्ग करने हेतु भेजने लगा | अभी भी पंजाब में ऐसे हिन्दू परिवार हैं, जिनका एक सदस्य सिक्ख होता है |
गुरू हरगोबिन्द जी के बाद बाबा गुरदित्ता जी के सुपुत्र हरिराय जी को गुरू हरगोबिन्द जी ने छठवे गुरू के रूप में ८ मार्च १६०४ को कीरतपुर में तिलक किया | देश काल परिस्थिति को देखते हुए गुरू हरिराय जी की दिनचर्या बिलकुल योद्धाओं जैसी थी | सूर्योदय के एक पहर पूर्व ही उठकर स्नान वा नाम स्मरण के उपरांत संगतों को उपदेश देकर सबकेसाथ प्रसाद ग्रहण करना | संध्याकाल शस्त्र लेकर अन्य घुड़सवारों के साथ जंगल में जाकर सभी को शस्त्र विद्या का प्रशिक्षण देना | वापस आकर कुछ समय कथा के उपर्रांत रात्री विश्राम |
सम्बत १७०८ में मालवे के अपने भक्त भगतू जी के स्वर्गवास होने पर गुरूजी महिराज पहुंचे | इस गाँव के लोगों ने शाहजहाँ के साथ हुए युद्ध में गुरू हरगोबिन्द जी की बहुत मदद की थी | उस समय चौधरी काला अपने दो भतीजों फूल तथा सांदली को लेकर गुरू साहिब जी के पास पहुंचा | बच्चों ने गुरूजी के सामने अपने पेट बजाये | पूछने पर काले ने बताया कि इन बच्चों के पिता रूपचंद का स्वर्गवास हो गया है, बेसहारा हैं, यही संकेत कर रहे हैं पेट बजाकर | प्रसन्न होकर गुरू हरिराय जी ने आशीर्वाद दिया कि इनकी संतान राज करेंगी और सतगुरू की कृपा से आगे चलकर फूल का बड़ा पुत्र तिलोक सिंह नाभा और जीन्द का तथा दूसरा पुत्र रामसिंह पटियाला का राजा हुआ | यह तीन रियासतें बाबा फूल के नाम पर फुलकीआं के नाम से प्रसिद्ध हैं |
दिल्ली पर क्रूर और अत्याचारी औरंगजेब काबिज हुआ तो उसने हरिराय जी को दिल्ली बुला भेजा | पर गुरूजी पिछले अनुभवों के कारण सतर्क थे, उन्होंने सावधानी बरती और अपने बड़े पुत्र रामराय जी को दिल्ली भेजा | उन्होंने कई चमत्कार दिखाकर औरंगजेब को तो प्रसन्न कर लिया, किन्तु गुरूवाणी में फेरबदल के जुर्म में हरिराय जी ने उन्हें गुरु गद्दी से बेदखल कर अपने छोटे सुपुत्र हरिकृष्ण जी को गद्दी सोंप दी |
लेकिन उस समय हरिकृष्ण जी की आयु मात्र पांच वर्ष थी | इस पर गुरु हरिराय जी के बड़े पुत्र रामराय ने औरंगजेब से शिकायत की कि आपसे मेलजोल के कारण मेरा अधिकार होते हुए भी पिताजी ने मेरे स्थान पर मेरे पांच वर्षीय भाई को गद्दी सोंप दी है, आप मेरी मदद करें | इस पर औरंगजेब ने आमेर के शासक सवाई जयसिंह से कहा कि आप जाकर बालक गुरू को दिल्ली लायें | जयसिंह दिल्ली गए और बड़े सम्मान के साथ गुरू हरिकृष्ण जी को साथ लेकर कीरत पुर से दिल्ली चले | उन्हें हतोत्साहित करने के लिए मार्ग के पंजोखरे गाँव में एक पंडित ने कहा कि इतनी छोटी उम्र में आप कैसे गुरू पद की गरिमा रखेंगे | इस पर गुरूजी ने उसी गाँव में रहने वाले अनपढ़ छज्जू झीवर से गीता के अर्थ करवाकर पंडित जी की बोलती बंद कर दी | उस स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना |
दिल्ली पहुँचने के बाद राजा जयसिंह ने जयसिंहपुरा के अपने जिस बंगले में उस समय गुरू जी के रुकने की व्यवस्था की थी, बहां आज गुरुद्वारा बंगला साहिब विद्यमान है | दिल्ली में उस समय हैजे की बीमारी फैली हुई थी, अनेक श्रद्धालु उनके दर्शनों को आने लगे और रोग मुक्त होने लगे | इस चमत्कार के कारण ही दशम गुरू गोबिंदसिंह जी ने अरदास करने की बिधि में उल्लेख किया –
श्री हरिकृष्ण धिआईये,
जिस डिठे सब दुःख जाई |
महज आठ वर्ष की आयु में ही गुरू हरिकृष्ण जी का शरीर शांत हो गया | अंतिम समय में उन्होंने अगले गुरू का संकेत देते हुए संगत के समक्ष पांच पैसे और नारियल मंगवाकर फरमाया –
गुरू बाबा बकाले
उस समय बाबा गुरुदित्ता जी के छोटे भाई तेग बहादुर जी अपनी माता नानकी जी सहित अपने ननिहाल के गाँव बकाला में ही निवास करते थे | स्वाभाविक ही वे गुरु हरिकृष्ण जी के बाबा भी थे, अतः संगत को यह समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि गुरू हरिकृष्ण जी का इशारा किनकी ओर है | बड़ों का नाम लेना अपराध माना जाता है, इसलिए गुरूजी ने बिना नाम लिए ही संकेत किया |
Tags :
इतिहास
Sir I would like to be in contact with you because you have inspired me a lot. I'm a journalist presently associated with Times of India and a scholar of history and sociology.
जवाब देंहटाएंMy contact no is 7509075096. Kindly let me know how I should contact you