उन्होंने दशकों से सिंधिया को वोट दिया, लेकिन बदले में मिली केवल मुफलिसी और गरीबी !



आज न्यूज़ लौंड्री नामक अंग्रेजी वेव साईट ने शिवपुरी गुना संसदीय क्षेत्र में सिंधिया जी के विकास कार्यों की शोध परक पोल खोली है | लेख का शीर्षक ही बहुत कुछ कह देता है - 

उन्होंने दशकों से सिंधिया को वोट दिया, लेकिन बदले में मिली केवल मुफलिसी और गरीबी ! 

तो प्रस्तुत है आलेख का हिन्दी भावान्तर - 

हर चुनाव में सिंधिया परिवार द्वारा विकास के लम्बे चौड़े वादे किये जाते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि गुना संसदीय क्षेत्र गरीबी, बेरोजगारी और विश्वासघात की जीती जागती मिसाल है । 

ग्वालियर के पूर्ववर्ती शाही परिवार के वंशज, ज्योतिरादित्य सिंधिया को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली युवा नेताओं में से एक माना जाता है। पिछले 17 वर्षों से, वे गुना निर्वाचन क्षेत्र से सांसद चुने जाते रहे हैं, जो ग्वालियर से लगभग 200 किमी दक्षिण में स्थित है। पिछले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन काल में उन्होंने ऊर्जा, सूचना प्रौद्योगिकी और वाणिज्य जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाले । 

लेकिन विकास और प्रगति के उनके चुनावी वादे कभी कागजों से जमीन पर नहीं उतरे। 

2018 NITI Aayog की रिपोर्ट के अनुसार, गुना देश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। सिंधिया के निर्वाचन क्षेत्र में अशोक नगर जिला और शिवपुरी सहित गुना जिलों के कुछ हिस्से आते हैं। विकास से बहुत दूर, यह निर्वाचन क्षेत्र 2002 से ज्योतिरादित्य सिंधिया को सत्ता की चाबी सोंपता आया है और इससे पहले उनके पिता स्व. माधवराव सिंधिया यहाँ की जनता के वोट पाते रहे | इसके बाद भी नतीजा यह है कि यहाँ के लोग अशिक्षा, कुपोषण से होने वाली मौतों, पेयजल की बेहद कमी, गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ेपन जैसे बुनियादी मुद्दों से जूझ रहे है। और यह तो केवल हिमशैल का एक छोर है। 

इस निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी है सहरिया जनजाति की, जो सरकारी उदासीनता का एक ऐसा ही शिकार है । आदिवासी विकास योजनाओं पर करोड़ों खर्च किए जाने के बावजूद, यह जनजाति अभी भी गरीबी रेखा के बहुत नीचे है। लेकिन इसके बावजूद यह अंतर्विरोध है कि सहरिया लोग सिंधियाओं को ही वोट देते हैं, क्योंकि ग्वालियर राजघराने को वोट देना उनकी आदत में शुमार हो चुका है – महाराजा की बेचारी भक्त प्रजा । 

कुछ साल पहले शिवपुरी के मझेरा गांव में सिलिकोसिस और तपेदिक जैसी बीमारियों के कारण 92 सहरिया पुरुषों की मौत के बारे में मीडिया रिपोर्ट सामने आई थी। अधिकांश पीड़ित पत्थर की खदानों में बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते थे । शिकवे शिकायतों के बाद खदानें बंद कर दी गईं, किन्तु इन बेचारों का दुर्भाग्य यह कि उसके बाद ये लोग रोजगार के अभाव में भुखमरी के कगार पर पहुँच गए । मजबूरी में इन लोगों को जंगल की ओर मुंह करना पड़ा, जहां से वे अपने उदर पोषण के लिए विभिन्न जड़ी-बूटियों और पत्तियों को इकट्ठा करते हैं। उनमें से कई खाने योग्य नहीं होतीं। ” 

ऐसी ही जहरीली पत्तियां खाने के कारण एक लड़की की मौत हो गई । जंगल जिसे ये अपना घर मानते हैं, वहां प्रवेश करना भी इन लोगों के लिए आसान नहीं है, क्योंकि वन रक्षक हर तीन से छह महीने में इन महिलाओं से पैसे लेकर ही जंगल में प्रवेश करने की अनुमति देते हैं। 

उक्त सारी बातें कमिश्नर ग्वालियर के तत्कालीन सलाहकार डॉ. मिहिर शाह ने तत्कालीन कलेक्टर एम गीता को लिखी थी | 

सिलिकोसिस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक जांच टीम की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, शिवपुरी की अपनी यात्रा के दौरान टीम ने मझहेरा और पीपलखेड़ी गांवों में लगभग 104 विधवाओं से मुलाकात की, जिनके पति की तपेदिक (टीबी) से मृत्यु हो गई थी। न्यूज़लौंड्री द्वारा की गई जांच के अनुसार शिवपुरी में लगभग 48 गाँव हैं जहाँ खदान मजदूर टीबी और अन्य श्वसन रोगों से प्रभावित हैं। जांच दल ने देखा है कि जिले के अधिकारी जानबूझकर शराब को टीबी की उच्च दर का कारण बताते हैं, जबकि उनके पास इसका कोई सबूत नहीं होता। 

सुप्रीम कोर्ट की जांच टीम की रिपोर्ट भी कहती है, "जांच दल ने देखा कि कथित शराब की लत शिवपुरी जिले के खदान मजदूरों में टीबी / सिलिकोसिस की उच्च दर के वास्तविक मुद्दे को दरकिनार करने का एक तरीका है।" 

न्यूजलौंड्री ने सिंधिया के राजनीतिक वादों और जमीनी हकीकत में अंतर की जांच करने के लिए गुना निर्वाचन क्षेत्र के कुछ गांवों का दौरा किया। 

गोपालपुर 

शिवपुरी में कोलारस ब्लॉक के गोपालपुर गांव की 48 वर्षीय रामवती आदिवासी, समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्षरत योद्धा के रूप में जानी जाती हैं। जब न्यूजलौंड्री की टीम उसके गांव में जाकर उससे मिली, तो उसने कहा, “सिंधिया ने मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझसे कहा था, तुम मेरी मां जैसी हो। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि आपके गांव की समस्याओं का समाधान किया जाए। 'लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । वे सिर्फ वादे करते है और उन्हें भूल जाते है। मैं उनसे कई बार मिली हूं और जिन्दगी भर से कांग्रेस को वोट देती आई हूँ - लेकिन हमारे लिए कुछ भी नहीं बदला है। ” 

गोपालपुर की आबादी 400 है। जब यह संवाददाता वहां पहुंचा, तो पाया कि 80 प्रतिशत घर खाली थे क्योंकि उनके निवासी राजस्थान और उत्तर प्रदेश में मजदूरी के लिए गए हुए थे। 

रामवती ने पिछले चार वर्षों में अपने सबसे बड़े बेटे राकेश को देखा तक नहीं है। वे कहती हैं, “हमारे पास कोई जमीन नहीं है और न ही हमारे पास भूमिहीन मजदूर के रूप में पर्याप्त काम है। मेरा बेटा मजदूरी करने के लिए हैदराबाद गया है ताकि कुछ पैसा कमा सके। ” 

गोपालपुर के निवासी 150 रु. दैनिक मजदूरी पर आसपास के गाँवों में काम ढूंढते हैं, और वह भी हमेशा नहीं मिलता । फिर वे रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों और राज्यों में जाने को मजबूर होते हैं । रामवती कहती है: "हमारे गाँव के 300 से अधिक लोग अपने छोटे बच्चों के साथ, रोजनदारी पर काम करने के लिए बाहर गए हुए हैं।" 

रामवती के दूसरे बेटे, 22 वर्षीय महेश ने कंप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा किया हुआ है। वह आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया क्योंकि उसके परिवार के पास उसकी पढाई के लिए पैसा नहीं था। उसे शिवपुरी में कोई काम नहीं मिला, क्योंकि सचाई यह है कि वहाँ कोई अवसर ही नहीं है। जीवित रहने के लिए उसने आगरा और धौलपुर में चल रहे निर्माण कार्यों पर मजदूरी करना शुरू किया। " 

वन अधिकार अधिनियम के नियमों के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसे ग्रामीण आदिवासी हैं, जिनके नाम पर कोई जमीन नहीं है। रामवती कहती है: “हमारे पूर्वज 50 साल से अधिक समय से हमारे गाँव के पास “पिसनारी की तोरिया” में खेती कर रहे हैं, लेकिन अभी भी जमीन हमारे नाम पर नहीं है। वहां पास में ही एक झील है, लेकिन केवल प्रभावशाली और बड़े किसानों को ही वहां से पानी मिलता है। वन विभाग हमें पानी लेने की अनुमति नहीं देता । रामवती कहती हैं कि अपनी फसलों की कटाई करते समय भी उन्हें विभागीय समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। जिन्हें हम अपनी फसलों की कटाई के लिए बुलाते हैं, उन ट्रैक्टर और थ्रैशर मालिकों से वे पैसे की मांग करते हैं, नतीजतन, उपकरण मालिक फसल के मौसम के दौरान हमारी मदद करने से इनकार कर देते हैं। ” 

वह कहती हैं कि उन्होंने सिंधिया को इन समस्याओं के बारे में कई बार बताया - कुपोषण से लेकर बेरोजगारी तक। हर बार हमें यही जबाब मिलता है कि आपका काम हो जाएगा । लेकिन होता जाता कुछ नहीं है। इतने बड़े नेता होने के बावजूद वे किसानों और आदिवासियों की मदद करने की केवल बात करते हैं, क्ररते धरते कुछ नहीं । 

गोपालपुर की एक और समस्या आवास की है। ग्रामीणों को कुछ साल पहले प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत घर आवंटित किए गए थे - लेकिन फिर भी, उन्हें धनराशि नहीं मिली। उनमें से एक 40 वर्षीय गौरा आदिवासी है। उनके पति एक पत्थर की खदान में मजदूरी करते थे, किन्तु तीन साल पहले तपेदिक से उनकी मृत्यु हो गई। 

गौरा अपनी मिट्टी की झोपड़ी की ओर इशारा करती है, जहां वह अपनी छह वर्षीय बेटी पिंकी के साथ रहती है। उसे दो साल पहले PMAY के तहत एक घर स्वीकृत किया गया था, 1.2 लाख की राशि भी मंजूर हुई, लेकिन मिली कुछ भी नहीं । वह कलेक्ट्रेट और कोलारस तहसील के बीसियों चक्कर लगा चुकी है, लेकिन किसी ने भी उसके आवेदन पर कोई कार्रवाई नहीं की । वहां मौजूद क्लर्क और चपरासी ने बताया कि जो पैसा उसे आवंटित किया गया था, वह किसी और के खाते में चला गया। ” 

हताश, गौरा ने सिंधिया से संपर्क किया, जिन्हें उनके निर्वाचन क्षेत्र में सिंधिया महाराज के नाम से जाना जाता है। “हमने कई बार सिंधिया महाराज को अपनी समस्याओं के बारे में बताया। हर बार, हमें उनसे केवल आश्वासन ही मिला, लेकिन परिणाम कुछ नहीं। वह इतने बड़े आदमी है, वह आसानी से हमारी समस्याओं का समाधान कर सकते है। हमने हमेशा उनके लिए मतदान किया है - और फिर से उनके लिए मतदान करेंगे- लेकिन उन्हें कम से कम हमारे लिए कुछ तो करना चाहिए। " 

अब राशन कार्ड की बात करते है। राजकुमारी आदिवासी के पति ने उसे छोड़ दिया, अब अपने पाँच और दो वर्ष की आयु के दो बच्चों की देखभाल के लिए वह अकेली है। आजकल वह अपने परिवार के लिए राशन कार्ड बनवाने को जूझ रही है । वह कहती है - “मेरे पास न राशन कार्ड है और न कोई घर या रोजगार । फसल के दौरान खेतों में मजदूरी करती हूँ - वही मेरे जीवन यापन का इकलौता साधन है। राजनेता हमारे गाँव में आते हैं, आश्वासन देते हैं, पर चुनाव खत्म हो जाने के बाद, हमारी कोई परवाह नहीं करते । ” 

राजकुमारी आदिवासी अपने बच्चे के साथ 



कुम्हरौआ कालोनी 

शिवपुरी की कुम्हरौआ कालोनी की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। कुम्हरौआ कालोनी 3-4 किलोमीटर के दायरे में बंजर भूमि से घिरा एक हैमलेट है। ज्यादातर ग्रामीण राजस्थान और गुजरात में मिलों और निर्माण स्थलों पर मजदूर के रूप में काम करने जाते हैं। 

70 वर्षीया कालिया बाई ने न्यूज़लोंड्री से कहा, “हम सिंधिया परिवार के लिए मतदान करेंगे, लेकिन हमारे लिए यहां कुछ भी नहीं बदलेगा। हमारे पास ढंग का घर भी नहीं हैं। हमारे बच्चों को काम की तलाश में दूसरे राज्यों और कस्बों में जाना पड़ता है। हमारे पास न तो जमीन है, और न ही पानी । ” 

कालिया बाई यहां 50 से अधिक वर्षों से रह रही हैं। वह कहती हैं कि उनकी स्थिति हमेशा से ऐसी रही है, और वह भविष्य में इसे बदलते नहीं देखती। “सिंधिया महाराज हमारी स्थिति से अवगत हैं, लेकिन वह कुछ नहीं करते हैं। हम सिर्फ वोट बैंक हैं - और कुछ नहीं 

कुम्हरौआ कालोनी में 600 की आबादी के लिए एक अकेला हैंड-पंप है। दूसरा था, लेकिन यह एक साल पहले टूट गया। पंचायत को सूचना दी गई, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। कालिया बाई कहती हैं कि गर्मियों में तो यह हैंड-पंप भी काम नहीं करता है। गाँव के लोग पानी के लिए गाँव से 1.5 किमी दूर तक जाते हैं। 

एक अन्य ग्रामीण, प्रकाश सहरिया के अनुसार, सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कई नीतियां पेश की हैं, लेकिन ये नीतियां उन तक नहीं पहुंची हैं। "यहाँ कुछ घरों में बिजली के कनेक्शन प्राप्त हुए हैं और हमारे गाँव में एक पक्की सड़क है- इसे ही भले विकास कह लिया जाए । ६०० ग्रामीणों में से, २५ से भी कम लोगों के नाम पर आदिवासी पटटे (भूमि) हैं। बाकी लोग काम की तलाश में दूसरे राज्यों में जाते हैं। क्षेत्र में पानी की भारी कमी है, जिसके कारण जिन लोगों के पास जमीन है भी वे पूरी तरह से अपनी फसलों के लिए केवल बारिश पर निर्भर हैं। वह कहते हैं: "हम अभी भी उन्हें ही वोट देते हैं, यह जानते हुए भी कि वे हमारे लिए कुछ नहीं करते ।" 

सत्रह वर्षीय प्राण सिंह कहते हैं कि शिक्षकों की नियमित अनुपस्थिति के कारण उन्हें कुम्हरौआ कालोनी के सरकारी स्कूल से पढाई छोड़नी पड़ी । दो साल पहले, वह एक दाल मिल में मजदूर के रूप में काम करने के लिए जोधपुर गए। आजकल छुट्टी पर गाँव आये सिंह ने कहा, “मुझे प्रतिदिन 300 रु. मिलते हैं और पिछले दो वर्षों से वहाँ काम कर रहा हूँ । हमारे यहाँ कोई काम धंधा नहीं है; इसलिए हमें काम की तलाश में इतनी दूर जाना पड़ता हैं। ” 

प्राण की तरह, 20 वर्षीय अजमेर सिंह भी जोधपुर में काम करते हैं। वह कहता है: “मेरे जैसे अधिकांश लड़के अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सके क्योंकि शिक्षक शायद ही कभी स्कूल आते थे। कुछ अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा। लेकिन बच्चे शिक्षित होना चाहते हैं - फिर भी, उनकी रुचि तब फीकी पड़ जाती है, जब शिक्षक दिखाई नहीं देते । ”न्यूज़लौंड्री ने आठ वर्षीय लवकुश से बात की, जो गाँव के स्कूल में पढ़ते हैं। उन्होंने पुष्टि की: "हमारे स्कूल में, कुछ शिक्षक सोते हैं, और कुछ शिक्षक पढ़ाते हैं।" 

ग्रंथी आदिवासी, जिसका 19 वर्षीय बेटा कालीराम गुजरात में एक निर्माण मजदूर के रूप में काम करता है, का कहना है कि यहाँ के राजनेता केवल वोट के भूखे हैं। "वे कहते हैं कि वे आपका काम करेंगे, लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करते हैं। हमारे गाँव के लोग पीएमएवाई के तहत मकान प्राप्त करने के हकदार होने के बावजूद भी घर विहीन हैं। सिंधिया पिछले साल हमारे गांव में आए और कंक्रीट की सड़क का उद्घाटन किया। 

न्यूज़ लोंड्री ने मजरा दिघोदी, शिवपुरी में एक प्राथमिक स्कूल का भी दौरा किया और पाया कि कक्षा 1 से 5 तक के बच्चे एक छोटे से कमरे में एक साथ पढ़ते हैं। कक्षा के शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हमारे पास हर वर्ग को अलग से पढ़ाने के लिए उचित बुनियादी ढांचा नहीं है। हमारे पास छात्र भी सीमित हैं, इसलिए हम उन सभी को एक ही कक्षा में पढ़ाते हैं। ” 

मजरा दिघोदी के प्राथमिक विद्यालय में एक छोटे से कमरे में कक्षा 1 से 5 तक के बच्चे एक साथ पढ़ते हैं 

मजरा दिघोदी के विद्यालय परिसर का शौचालय 


गुगवारा 

शिवपुरी के गुगवारा गाँव में पानी की किल्लत ने हालात इस कदर बिगाड़ दिए है कि ग्रामीणों का पलायन शुरू हो गया है। गुगवारा में एक भी पानी का नल नहीं है। इसके निवासी एक बड़े किसान के ट्यूबवेल से पानी भरते हैं, और उसकी उदारता के लिए आभारी हैं। 

33 वर्षीय, गीता बाई ने कहा: “गाँव का हैंडपंप सूख रहा है, जिसके कारण हम अपने गाँव से लगभग 2.5 किलोमीटर दूर एक किसान के ट्यूबवेल से पानी लाते हैं। पता नहीं इन गर्मियों में हम कैसे जीवित रहेंगे। 

गुगवारा में पहली बार दिसंबर 2018 में बिजली आई। यहाँ 350 निवासी हैं, जो ज्यादातर सहरिया जनजाति के हैं। अपने पड़ोसियों की तरह, यह बेरोजगारी सहित पानी की कमी के अलावा कई मुद्दों से जूझ रहे है। 

41 वर्षीय सुरेश आदिवासी कहते हैं, "हमारे गांव में पानी और रोजगार के अवसर नहीं हैं। यही बात हमारे लोगों को आगरा, धौलपुर और ग्वालियर जैसे शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर करती है। वे अपने परिवार के साथ जाते हैं और मजदूर के रूप में काम करते हैं। इस माइग्रेशन ने कई ज़िंदगियों को उखाड़ फेंका, लेकिन हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। अन्यथा, हमारे बच्चे भूख से मर जाएंगे। ” 

गुगवारा में, 60 वर्षीय नारायणी आदिवासी के तीन बेटे थे। उनमें से दो, रामस्वरुप और रामजीलाल, पत्थर की खदानों में काम करते समय सिलिकोसिस से पीड़ित हो स्वर्गवासी हो गए। उनकी दोनों विधवाएँ, तीसरे बेटे सुगलाल और उनकी पत्नी के साथ आगरा चली गई हैं। “वे आलू के खेतों में मजदूर के रूप में काम करते हैं। उन्हें वहां प्रति दिन 200 रु. मिलते हैं और वह काम भी कभी मिलता है तो कभी नहीं मिलता । कुल मिलाकर, हमारा पूरा परिवार साल में लगभग 15,000 रु. कमाता है। ” 

अपने पोते-पोतियों के साथ नारायणी आदिवासी 

बच्चों के माता-पिता जब काम पर जाते हैं, नारायणी अपने तीन पोते और दो पोतियां के साथ रहती हैं। वह कहती हैं, "परिवार के लिए ऐसी परिस्थितियों में जीवित रहना आसान काम नहीं है।" “राजनेता हमारे पास आते हैं, वोट के लिए हमारे सामने अपने हाथ जोड़ते हैं। लेकिन हमारी कठिनाईयों को नहीं समझते, उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं कि हम कैसे अपनी जिन्दगी गुजार रहे हैं। " 

धनवाड़ी कालोनी 

सिंधिया के संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले गुना की धनवाड़ी कालोनी में रहने वाले ग्रामीण वनोपज पर आश्रित हैं, क्योंकि उनके पास इसके अलावा और कुछ है ही नहीं । 

62 साल की चयान बाई बताती हैं कि “मेरे दो बेटे हैं। वे दोनों राजस्थान के छबड़ा जिले के एक ईंट भट्ठे में काम करने गए हैं। हमारे पास यहां करने के लिए कोई काम नहीं है। हम पुतलीघाटी के जंगल से गोंद, महुआ और तेंदू पत्ता (वन उपज) इकट्ठा करते हैं और जीवन यापन के लिए इसे बेचते हैं। " 

धनवाड़ी कालोनी में भी पानी की भारी कमी है। गाँव में गर्मी के दिनों में सूखने वाले केवल दो हैंड पंप हैं, इसलिए पानी लेने के लिए उन्हें पडौस के इकोदिया गाँव जाना पड़ता है । यहाँ भी वही कहानी, जो न्यूजलौंड्री ने अन्य सभी गांवों में सुनी - सिंधिया को समस्याएं बताई गईं, आश्वासन मिला, लेकिन बदला कुछ भी नहीं । 

48 वर्षीय बादल सिंह कहते हैं, “हमारे गाँव में बच्चों के लिए स्कूल नहीं है, हमारे पास रोजगार नहीं है, न ही पानी है । हो सकता है कि लोग कहैं कि हम अपनी हालत के बारे में झूठ बोल रहे हैं, लेकिन आज आप तो अपनी आँखों से सब देख रहे हैं कि हम कैसे रह रहे हैं। ” 

2017 में, मध्य प्रदेश की तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सहरियाओं के बीच कुपोषण की जाँच करने के लिए एक नीति शुरू की थी, जिसके अंतर्गत 1,000 रु. आदिवासी महिलाओं के खातों में जमा कराये जाने थे। लेकिन धनवाड़ी कालोनी की महिलाओं को अभी तक कोई पैसा नहीं मिला । गोपालपुर, गुगवारा और कुम्हरौआ कालोनी के समान यहाँ भी सरकार की नीतियां गरीबों तक नहीं पहुंची हैं। पंचायत स्तर पर अधिकारी भ्रष्ट हैं। वे सरकार की कल्याणकारी नीतियों को आमजन तक नहीं पहुंचने देते । ” 

47 वर्षीय पतिया बाई का कहना है कि 1,000 रु. का लाभ दिलाने के नाम पर एक साल पहले पंचायत सचिव ने उनके राशन कार्ड भी ले लिए। नातो राशन कार्ड वापस आए, और ना ही खातों में एक हजार रुपये । 53 वर्षीय जीवनलाल का कहना है कि उन्होंने पंचायत अधिकारियों की बेईमानी बताने के लिए सिंधिया से मुलाकात की, एक बार नहीं कई बार मिला, कभी सीधे तो कभी उनके निजी सहायकों के माध्यम से, लेकिन लगता है उनकी व्यस्तता कुछ ज्यादा ही रही, क्योंकि कुछ भी नहीं बदला । ” 

शिवपुरी: पर्यटक नगरी बनी प्रदेश का सबसे गन्दा शहर 


2014 में, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने नगरपालिका चुनाव के दौरान शिवपुरी में एक सार्वजनिक भाषण दिया। कांग्रेस उम्मीदवार के लिए प्रचार करते हुए, उन्होंने दावा किया कि वे शिवपुरी को इस तरह से विकसित करेंगे कि "पेरिस से लोग आएंगे और शिवपुरी में हुए विकास को देखकर उसका अनुशरण करेंगे"। 

शिवपुरी शहर का दौरा करते हुए, न्यूज़लौंड्री ने व्यापक पैमाने पर खोदी गई सड़कों को देखा। सीवर लाइन प्रोजेक्ट और सिंध जलावर्धन योजना के नाम पर पूरे शहर को खोद दिया गया है और यह स्थिति कुछ समय या महीनों की नहीं है, बल्कि पिछले सात वर्षों से लगातार बनी हुई है । ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनकी भुआ, भाजपा विधायक यशोधरा राजे सिंधिया के बीच लगातार इन योजनाओं का श्रेय लेने की होड़ रही है । लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि दोनों परियोजनाएं पूरी तरह विफल हो चुकी हैं | कभी एक खूबसूरत पर्यटन स्थल रहा शिवपुरी घूरे का ढेर प्रतीत हो रहा है । 

करीब छह महीने पहले सड़कों की हालत 


शिवपुरी में पब्लिक पार्लियामेंट नामक एक सामाजिक संगठन के सदस्य प्रमोद मिश्रा ने बताया कि शिवपुरी में सिंध जलावर्धन योजना की विफलता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ । उन्होंने बताया कि सामान्यतः नगर महानगर के रूप में विकसित होते हैं, लेकिन शिवपुरी पीछे की ओर चला गया और एक गन्दा गांव बन गया। 

वे कहते हैं: “शिवपुरी की सबसे बड़ी समस्या पेय जल है। उसके निराकरण के नाम पर शहर से 32 किलोमीटर दूर स्थित सिंध नदी से पानी लाने के लिए 2007 में सिंध जलावर्धन योजना पारित की गई थी, लेकिन भ्रष्टाचार और जन प्रतिनिधियों की अनदेखी के चलते यह बारह वर्ष से लटकी हुई है और पानी आज तक आमजन की पहुंच से दूर है ।" 

इस बीच, सीवर परियोजना 2012 में शुरू हुई, जिसके नाम पर पूरे शहर को खोद दिया। लेकिन यह योजना तो सिंध परियोजना से भी कहीं अधिक विफल है । सिंध का पानी तो देरसबेर आ भी सकता है, किन्तु इस सीवर परियोजना में लगे जनधन के करोड़ों रूपये बर्बाद ही होने हैं | मिश्रा कहते हैं: "जब भी हमने उनसे संपर्क किया, उन्होंने हमें एक ही जवाब दिया: कि इन परियोजनाओं को वे लाए हैं, लेकिन भाजपा बाधाओं का निर्माण कर रही है। वे यूपीए शासन में कैबिनेट मंत्री रहे, बहुत ही प्रभावशाली नेता है। इस तरह के जवाब केवल शिवपुरी के विकास के प्रति उनकी उदासीनता को ही दर्शाते हैं। ” 

34 वर्षीय ठेकेदार और शिवपुरी के निवासी सौमित्र तिवारी कहते हैं कि शहर की वर्तमान स्थिति तो महज छह महीने पहले ही थोड़ी बहुत सुधरी है, उसके पूर्व तो यह शहर साक्षात नरक था, भारत का सबसे गंदा शहर जहाँ धूल का स्तर इतना अधिक कि हर तीसरा व्यक्ति तपेदिक का शिकार । शिवपुरी के लोग 12 साल से पानी का इंतजार कर रहे हैं। वे पानी के संकट का सामना कर रहे हैं। परियोजनाएँ आती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी निगरानी नहीं होने के कारण इसे लागू नहीं किया जाता है। ”वे कहते हैं कि बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है। 

तिवारी कहते हैं कि शिवपुरी के कांग्रेस नेताओं के पास भी सिंधिया जी का सीधा टेलीफोन नंबर नहीं है। उन्हें भी पहले उनके निजी सहायकों को कॉल करना पड़ता है, दो तीन दिन इंतजार के बाद कहीं जाकर सिंधिया जी से बात हो पाती है । यह तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हालत है, सामान्य जन की तो बात ही करना व्यर्थ है | यदि किसी को तत्काल सहायता की आवश्यकता है, तो इस निर्वाचन क्षेत्र में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसकी सिंधिया जी तक सीधी पहुँच हो । इन राजाओं और महाराजाओं से हमारे शहर के विकास की अपेक्षा करना व्यर्थ है | ” 

31 वर्षीय रानू रघुवंशी का कहना है कि हर साल शिवपुरी में पानी के नाम पर करोड़ों का घोटाला किया जाता है। राजनेताओं के स्वामित्व वाले पानी के टैंकर करोड़ों कमा रहे हैं। 1996 में, राष्ट्रीय उद्यान की सुरक्षा के नाम पर शिवपुरी की सभी पत्थर खदानों को बंद कर दिया गया था। उस समय, एक झटके में 90,000 से अधिक लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा। तब से, कोई भी रोजगार परियोजना नहीं लाई गई। ” 

लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि – आखिर वे जीतते क्यूं और कैसे हैं ? 

हरिहर उवाच – 

उसका कारण है दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों की अनैतिक मिली जुली कुश्ती ! 

दोनों ही दलों में सिंधिया जी के संपर्क सम्बन्ध बहुत गहरे हैं और हाथ बहुत लम्बे | 

साभार आधार – 

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