गुरू शिष्य परंपरा - साक्षात्कार श्री ओमप्रकाश “अग्गी”
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(श्री ओमप्रकाश अग्गी जी का जन्म 1928 में तत्कालीन लायलपुर जिले के टीका तेजसिंह नामक ग्राम में हुआ था ! वर्तमान में यह इलाका पाकिस्तान में है तथा लायलपुर का नाम बदलकर फैसलाबाद हो गया है ! 1947 में भारत विभाजन के दौरान अग्गी जी भारत आये तथा 1948 में संघ के प्रचारक बने ! 1965 में आप भारतीय मजदूर संघ के पंजाब प्रांत संगठन मंत्री बने ! 1970 में जब क्षेत्रीय संगठन मंत्री बने तो मुख्यालय दिल्ली हो गया ! बाद में अग्गी जी को मजदूर संघ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री का दायित्व सोंपा गया !
2008 से वे लगातार वनवासी कल्याण आश्रम से सम्बद्ध हैं ! वर्त्तमान में वे अखिल भारतीय जनजाति हितरक्षा सह प्रमुख का दायित्व निर्वहन कर रहे थे व उनका मुख्यालय भोपाल था ! जिन दिनों श्री ओमप्रकाश अग्गी जी मजदूर संघ में कार्यरत थे, उन्हें विश्व के 30 से अधिक देशों में जाने तथा मजदूर समस्याओं को समझने व उन पर विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त हुआ ! वे दत्तोपंत जी ठेंगडी के साथ चीन भी गए तथा लेबर आर्गेनाईजेशन के जिनेवा सम्मेलन में भी भाग लिया !
7 नवम्बर 2018 को अग्गी जी की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा पूर्ण हुई | दिनांक 16 जुलाई को गुरू पूर्णिमा के अवसर पर हरिहर शर्मा द्वारा उनसे लिया गया यह साक्षात्कार उनकी वैचारिक स्पष्टता का परिचायक है !)
प्रश्न – क्या अन्य देशों में भी भारत के समान गुरू शिष्य परंपरा है ?
उत्तर – दुनिया के कुछ देशों में मार्गदर्शक या इंस्ट्रक्टर अवश्य हैं तथा उनके प्रति सम्मान का भाव भी है, किन्तु इसे पुरातन भारतीय गुरू शिष्य परंपरा के समान नहीं कहा जा सकता ! हमारे यहाँ शिक्षक या गुरू आश्रम बनाकर रहता था तथा निस्वार्थ भाव से समाज के प्रति अपना कर्तव्य मानकर ज्ञान दान करता था ! जबकि विदेशों में यह कार्य एक व्यवसाय है !
इस भाव के अंतर के कारण ही भारत में गुरू के प्रति पूज्य भाव था ! अन्यान्य देशों में यह भाव होना संभव ही नहीं है !
प्रश्न – भारत में यह परंपरा कब से है ?
उत्तर – यह बता पाना बहुत मुश्किल है ! काल गणना में इस परंपरा को कुछ इतिहासकार हजारों वर्ष, तो कुछ लाखों वर्ष का अनुमान करते हैं, तो कुछ इसे सृष्टि के प्रारम्भ से अनुमान करते हैं ! संक्षेप में कहें तो यह गणनातीत है ! जैसे कि पाश्चात्य इतिहासकार वेद को 5000 से 7000 वर्ष प्राचीन मानते हैं, किन्तु अभी वैज्ञानिकों ने रामसेतु निर्माण की काल गणना 8 लाख वर्ष पूर्व की मान्य की है, तो स्वाभाविक ही वेद तो उससे प्राचीन हैं ही ! अतः यह कहना कि हमारी परम्पराएं कब से प्रारम्भ हुईं, यह कहना अत्यंत कठिन है ! और फिर गुरू तो हर पूजा पद्धति में आवश्यक रहता आया है, अतः जब से हमारी संस्कृति तब से ही गुरू शिष्य परंपरा !
प्रश्न – गुरू की श्रेष्ठता क्यों और कितनी थी ?
उत्तर – गुरू का व्यक्तित्व, अनुभव, जानकारी, ज्ञान, चरित्र, स्वभाव हर दृष्टि से इतना श्रेष्ठ होता था कि बड़े से बड़े राजा महाराजा भी उनके सामने नतमस्तक होते थे ! शिक्षा देना केवल पढ़ाना मात्र नहीं था, व्यवहार तथा योग्यतानुसार कौशल की शिक्षा भी इसमें सम्मिलित थी ! और सबसे बड़ी बात यह कि यह कोई व्यापार या व्यवसाय नहीं था, आय का साधन भी नहीं था ! कर्तव्य बुद्धि तथा धर्म भाव से की गई एक प्रकार की तपस्या थी !
प्रश्न – वर्तमान में तो यह परंपरा आपने प्राचीन रूप में नहीं है, आखिर इसमें क्षरण कब से हुआ ?
उत्तर – गुरू परंपरा में क्षरण का सबसे पहला उदाहरण महाभारत काल में द्रोणाचार्य का है ! वे अपने एकमात्र पुत्र को दूध के लिए बिलखते हुए नहीं देख पाए और राज्य सत्ता की शरण में गए ! उनके पूर्व तक गुरू राजा की शरण में नहीं, बल्कि राजसत्ता गुरू की शरण में आती थी ! यही कारण रहा कि एकलव्य जैसी विकृति का जन्म हुआ ! उस समय के पूर्व तक छोटे बड़े का भाव या जातिगत दुराव भेदभाव भी नहीं था ! तब से ही भेदभाव रहित शिक्षा व्यवस्था खंडित हुई !
प्रश्न – कृपया गुरू शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध को कुछ और अधिक स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर - गुरू शिष्य परंपरा में राजा का पुत्र हो या निर्धन का बालक, सभी आश्रम में साथ साथ रहकर अध्ययन करते थे | ज्ञान प्राप्ति उपरांत वे अपने जीवन व समाज की संरचना करते थे | शिष्यों ने मानवीय मूल्यों को कितना धारण किया है, गुरू उसकी परीक्षा लेते थे | गुरू अपने सम्पूर्ण ज्ञान का समर्पण करता था | उसे सर्वोत्तम सुख तब मिलता था, जब उसे लगता था कि उसका शिष्य उससे एक कदम आगे निकल गया | गुरू परशुराम और शिष्य भीष्म जब किसी कारण आमने सामने आये, तब पराजित होने पर भी परशुराम गदगद हो गए | उन्होंने भीष्म को युगों युगों तक अक्षय कीर्ति का आशीर्वाद दिया | यही परम्परा भारतीय सांस्कृतिक चेतना के मूल तत्वों में से एक है |
इस परंपरा में परस्परावलंबन था, सह अस्तित्व था | गुरू शिष्य एक दूसरे के पूरक होते थे | इसका सर्वोत्तम आधुनिक उदाहरण हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद | नरेन से पहली बार मिले तो उन्हें गले लगा लिया | अगली बार मिले तो अपने हाथों से उन्हें प्रसाद का भोजन कराया | उस शिष्य में उन्हें भविष्य दिख रहा था | बाद में विवेकानंद जी ने कहा कि मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मेरी माँ भुवनेश्वरी देवी मुझे भोजन करा रही हों | विवेकानंद जब मूर्तिपूजा विरोधी ब्रह्म समाज के संपर्क में आ गए तो उन्हें वहां से बापस लाने के लिए स्वामी रामकृष्ण कार्यक्रम स्थल पहुँच गए | वहां उन्हें अपमानित होना पड़ा किन्तु वे लगातार नरेंद्र से आग्रह करते रहे | नरेंद्र को उनका अपमान सहन नहीं हुआ और उनका ब्रह्म समाज से सम्बन्ध सदैव के लिए समाप्त हो गया |
प्रश्न – यह तो ठीक है कि गुरू कर्तव्य भाव से ज्ञान दान करते थे, किन्तु शिष्य बदले में जो दक्षिणा देते थे, वह आप कैसे देखते हैं ?
इसे दक्षिणा के स्थान पर समर्पण कहना अधिक उपयुक्त होगा ! शिष्य गुरू के लिए सर्वस्व समर्पित करता था | जैसे कि क्षत्रपति शिवाजी ने अपने गुरू समर्थ स्वामी रामदास को किया ! अपना सम्पूर्ण राज्य उन्हें अर्पित करने के बाद समर्थ का आदेश स्वीकार कर उनके प्रतिनिधि के रूप में राज्य का संचालन किया !
द्रोण और एकलव्य प्रसंग में एकलव्य के समर्पण की तो प्रशंसा होती है, किन्तु द्रोण की आलोचना की जाती है | विचार करें तो उस घटना का एक सकारात्मक पहलू भी है | जिस प्रकार ईश्वर परीक्षा लेता है, उसी प्रकार गुरू भी शिष्य की परीक्षा लेते थे | आज भी एकलव्य को दानवीर के रूप में सब स्मरण करते हैं, यदि उक्त प्रसंग घटित नहीं हुआ होता तो एकलव्य की कीर्ति होती क्या ?
आगे चलकर तो वह शिशुपाल की सेना में भरती हुआ, जो जरासंध का दामाद और कंस का मित्र था | अतः कहा जा सकता है कि द्रोणाचार्य ने पूर्व अनुमान कर लिया था कि एकलव्य आगे चलकर दुष्ट प्रवृत्तियों का सहयोगी हो सकता है, अतः उन्होंने उसे दुर्बल करने का प्रयत्न किया !
समर्पण का अर्थ है, सम्यक अर्पण, बिना अहंकार और अपेक्षा के उत्कृष्ट मनोभाव से समर्पित होना |
प्रश्न - गुरू के प्रति समर्पण के लिए गुरू पूर्णिमा ही क्यों ?
उत्तर – हमारे यहाँ मानव कल्याण के प्रत्येक कार्य को पूण्य से जोड़ दिया गया ! कोई सद्कार्य करोगे तो वह धर्म है, तथा उससे मोक्ष प्राप्त होगा, कुछ बुरा करोगे तो वह पाप है, और उसके परिणाम स्वरुप दुर्गति होगी ! यह धारणा इतनी बलवती है कि इससे साधारण व्यक्ति भी प्रेरित व उद्यत होता है ! ग्रीष्म के आतप के पश्चात वर्षाकाल स्वाभाविक ही आनंददाई होता है, उसमें भी पूर्ण चन्द्र की रात्रि अर्थात पूर्णिमा और भी अच्छी मानी जाती है !
भारतीय परंपरा में हर त्यौहार का महत्व है ! ऋषियों ने त्योहारों को समाज को जोड़ने के उपकरण के रूप में रखा ! व्यक्ति आज है, कल नहीं, किन्तु परंपरा बन गई तो वह चिरस्थाई !
विद्याध्ययन की कठोर साधना के बाद सांसारिक कर्तव्य पालन हेतु जाते शिष्य अपनी सामर्थ्यानुसार गुरू के प्रति श्रद्धा से समर्पण करते थे ! यद्यपि गुरू कुछ मांगता नहीं था, किन्तु उनकी इच्छा का अनुमान कर अधिकतम देने की इच्छा रहती थी शिष्य की ! चूंकि यह भुगतान नहीं समर्पण था, अतः लोंग इलायची या स्वर्ण भण्डार में कोई अंतर नहीं था ! ऐसी अनोखी थी यह परंपरा, जिसमें भाव मुख्य था, बस्तु गौण !करोडपति ने अगर पांच लाख दिए और गरीब ने तो आनुपातिक रूप से गरीब ही श्रेष्ठ सिद्ध होगा !
प्रश्न – आपकी दृष्टि में आदर्श गुरू कौन हुए ?
उत्तर – महाभारत काल तक तो इस गुरू परंपरा में सभी आदर्श थे, विपरीत आचरण वाले तो गिने चुने मिलेंगे ! हालांकि बाद में भी आदर्श गुरू हुए, किन्तु क्षरण हुआ ! शायद यही कारण रहा कि गुरू गोबिंद सिंह को कहना पड़ा कि मेरे बाद किसी को गुरू नहीं मानना ! इसलिए पूर्व के गुरुओं ने जो उपदेश दिए, उनका संकलन कर गुरू ग्रन्थ साहब को गुरू मानने का उन्होंने निर्देश दिया ! अनुयाइयों के इसका कडाई से पालन भी किया ! आज इसके परिणाम स्वरुप सारे गुरुद्वारे समाजसेवा के केंद्र के रूप में विकसित हो गए हैं !
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने जब गुरूपूर्णिमा उत्सव मनाना तय किया, तो अधिकाँश लोगों का भाव गुरू के रूप में उनके प्रति ही था ! किन्तु डॉ. साहब ने चिरंतन त्याग तपस्या व बलिदान के प्रतीक भगवा ध्वज को गुरू के रूप में सम्मुख रखा ! उसके पीछे भी यही भाव था कि व्यक्ति में क्षरण संभव है, किन्तु तत्व में नहीं !
प्रश्न – आज के समय में गुरू पूर्णिमा पर्व की प्रासंगिकता क्या ?
उत्तर –इस समर्पण पर्व की महिमा अगर कुछ लोग भी अंगीकार कर पायें, हृदयंगम कर पायें तो त्यौहार सार्थक ! अतः प्रासंगिकता तो आज भी है ! समर्पण का भाव मुख्य है ! समर्पण धन का ही नहीं, समय का भी, और जीवन का भी ! संघ में तत्व के लिए, विचार के लिए, देश और समाज के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन खपाने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं, यह समर्पण की पराकाष्ठा है ! भावना की ही तो बात है !
प्रश्न - आपकी दृष्टि में आदर्श समर्पण क्या है ?
उत्तर – जिसके प्रति समर्पण का भाव है, उसके लिए क्या करना उचित है, वह अनुमान कर, उसके लिए करना ! समर्पण का मूर्तिमंत उदाहरण हैं राधा ! द्वारका में कृष्ण के कई रानियाँ थीं, किन्तु वे सदा गोकुल की राधा का स्मरण करते थे, इससे रानियों के मन में द्वेष था ! कृष्ण ने रानियों को शिक्षा देने के उद्देश्य से एक नाटक रचा ! वे सुबह उठे नहीं और कारण पूछने पर पेट में दर्द की शिकायत की ! वैद्य बुलाये गए, औषधि दी गई, पर दर्द होता तो ठीक होता ना ? कृष्ण का दर्द का नाटक चालू रहा ! तभी देवर्षि नारद वहां आये और भगवान की लीला का अनुमान कर रानियीं के सामने ही प्रश्न किया, भगवन आप तो सर्वज्ञ हो, आप ही बताओ कि आपका दर्द कैसे ठीक होगा ?
भगवान ने कहा कि कोई भक्त अगर अपने पाँव धोकर मुझे पिलाएगा तो ही यह दर्द ठीक होगा ! किन्तु कोई भी रानी इसके लिए तैयार नहीं हुई ! भला कौन नारी यह पाप कर नरक का भागी बनेगी ? भगवान की इच्छा जानकर नारद गोकुल गए तथा राधा जी को भगवान के कष्ट व उपचार की जानकारी दी ! राधा ने तुरंत अपने पैर धोकर उन्हें दे दिए और आग्रह किया कि जाकर जल्द कृष्ण को पिला दें ! उन्हें अपने नरकगामी होने की चिंता नहीं, अपने प्रियतम के कष्ट का ही ध्यान रहा ! यही है समर्पण !
चित्तोड़ में भामाशाह का मंदिर है | निजी जीवन में वे अतिशय कंजूस थे | बेटे अगर कुछ माँगते तो दस बार पूछते | किन्तु जब राष्ट्र को आवश्यकता हुई तो जीवन भर का संचित धन २५ हजार स्वर्ण मुद्राएँ और २५ लाख रुपये महाराणा प्रताप को सैन्य बल पुनर्गठन हेतु समर्पित कर दिए | राणा प्रताप ने कहा मैं राजा हूँ किसी से दान नहीं ले सकता | तो तर्क किया, यह दान नहीं समर्पण है | दान देने वाले का हाथ ऊंचा और लेने वाले का नीचे रहता है | जबकि समर्पण विनम्रता से चरणों में होता है |
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