अनूठे प्रसंग........ गोपाष्टमी विशेष !



पिताजी एक शिव मंदिर के पुजारी | बचपन से ही घर में गौसेवा होती रही | पिताजी के स्वर्गवास के बाद यह सौभाग्य कुछ और अधिक मिलने लगा | मेरी काली गाय जमुना ने एक कत्थई रंग की सुन्दर बछिया को जन्म दिया | शाहीवाल नस्ल की इस बछिया की सुन्दरता को देखकर हम लोगों ने उसका नाम रखा नंदिनी | प्रारम्भ से ही नंदिनी मुझ पर कुछ ज्यादा ही लाड उड़ेलती थी | मुझे भी उससे अत्यंत प्रेम और लगाव था | सानी बनाकर सामने रखते समय वह उसमें मुंह बाद में डालती पहले मेरे हाथ को अपनी जीभ से चाटती | कभी अपने दोनों पैर उठाकर मेरे कन्धों पर रख देती | बिलकुल बाल सुलभ क्रीडाएं | 

नंदिनी बड़ी हो गई | शाहीवाल नस्ल की गाय वैसे भी आकार में विशाल होती है | एक दिन का वह प्रसंग मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकूंगा | मैं नंदिनी के सामने सफाई कर रहा था | गोवर इत्यादि हटा रहा था कि तभी बचपन से पडी आदत के अनुसार नंदिनी ने अपने दोनों पैर उठाकर मेरे कन्धों पर रखने चाहे | मैं उसके सामने उकडू बैठा था | एकदम संभाल नहीं पाया और चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा | मैं नंदिनी के सामने और नंदिनी के दोनों पैर हवा में | मुझे लगा की आज जीवन की अंतिम घड़ी आ गयी | अभी नंदिनी के दोनों पैर मेरी छाती पर गिरेंगे और मेरा बोलो राम हो जाएगा | 

पर आश्चर्य नंदिनी के पैर मेरी छाती पर आने के स्थान पर मेरे शरीर के दोनों तरफ जमीन पर आये | नंदिनी ने अपने दोनों अगले पैर चौड़े करके जमीन पर लाये थे | उसने यह अदभुत कृत्य कैसे किया होगा मैं आज तक नहीं समझ पाया | उसकी समझदारी व मेरे प्रति दया और करुणा देखकर मैं रोमांचित था, भाव बिव्हल था | मैं उसके गले लगकर रो रहा था | आज भी वह प्रसंग याद आता है तो नंदिनी की जुदाई मन को कचोटती है | मेरा दुर्भाग्य है कि परिस्थितियों ने आज गौपालन के सुख से वंचित कर दिया है |

आज जब फेसबुक पर पुरानी मेमोरी देख रहा था कि तभी किन्हीं अन्य सज्जन की एक पोस्ट आँखों के सामने आई, तो सोचा क्रांतिदूत पर दोनों प्रसंगों को स्थाई रूप से सुरक्षित कर दिया जाए -

एक दिन मंगलवार की सुबह वॉक करके रोड़ पर बैठा हुआ था,हल्की हवा और सुबह का सुहाना मौसम बहुत ही अच्छा लग रहा था,तभी वहाँ एक Hundai tucson आकर रूकी, और उसमें से एक वृद्ध उतरे,अमीरी उसके लिबाज और व्यक्तित्व दोनों बयां कर रहे थे।

वे एक पॉलीथिन बैग ले कर मुझसे कुछेक दूर ही एक सीमेंट के चबूतरे परबैठ गये, पॉलीथिन चबूतरे पर उंडेल दी,उसमे गुड़ भरा हुआ था,अब उन्होने आओ आओ करके पास ने ही खड़ी बैठी गायो को बुलाया,सभी गाय पलक झपकते ही उन बुजुर्ग के इर्द गिर्द ठीक ऐसे ही आ गई जैसे कई महीनो बाद बच्चे अपने बाप को घेर लेते हैं,कुछ को उठाकर खिला रहे थे तो कुछ स्वयम् खा रही थी,वे बड़े प्रेम से उनके सिर पर हाथ फेर रहे थे।कुछ ही देर में गाय अधिकांश गुड़ खाकर चली गई,इसके बाद जो हुआ वो वो वाक्या हैं जिसे मैं ज़िन्दगी भर नहीं भुला सकता,

हुआ यूँ की गायो के खाने के बाद जो गुड़ बच गया था वो बुजुर्ग उन टुकड़ो को उठा उठा कर खाने लगे,मैं उनकी इस क्रिया से अचंभित हुआ पर उन्होंने बिना किसी परवाह के कई टुकड़े खाये और अपनी गाडी की और चल पड़े।

मैं दौड़कर उनके नज़दीक पहुँचा और बोला अंकल जी क्षमा चाहता हूँ पर अभी जो हुआ उससे मेरा दिमाग घूम गया क्या आप मेरी जिज्ञाषा शांत करेंगे की आप इतने अमीर होकर भी गाय का झूँठा गुड क्यों खाया ??उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी उन्होंने खिड़की वापस बंद की और मेरे कंधे पर हाथ रख वापस सीमेंट के चबूतरे पर आ बैठे,और बोले ये जो तुम गुड़ के झूँठे टुकड़े देख रहे हो ना बेटे मुझे इनसे स्वादिष्ट आज तक कुछ नहीं लगता।जब भी मुझे वक़्त मिलता हैं मैं अक्सर इसी जगह आकर अपनी आत्मा में इस गुड की मिठास घोलता हूँ।

मैं अब भी नहीं समझा अंकल जी आखिर ऐसा क्या हैं इस गुड में ???वे बोले ये बात आज से कोई 40 साल पहले की हैं उस वक़्त मैं 22 साल का था घर में जबरदस्त आंतरिक कलह के कारण मैं घर से भाग आया था,परन्तू दुर्भाग्य वश ट्रेन में कोई मेरा सारा सामान और पैसे चुरा ले गया।इस अजनबी शहर में मेरा कोई नहीं था,भीषण गर्मी में खाली जेब के दो दिन भूखे रहकर इधर से उधर भटकता रहा,और शाम को जब भूख मुझे निगलने को आतुर थी तब इसी जगह ऐसी ही एक गाय को एक महानुभाव गुड़ डालकर गया,यहाँ एक पीपल का पेड़ हुआ करता था तब चबूतरा नहीं था,मैं उसी पेड़ की जड़ो पर बैठा भूख से बेहाल हो रहा था,मैंने देखा की गाय की गाय ने गुड़ छुआ तक नहीं और उठ कर चली गई,मैं कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़सोचता रहा और फिर मैंने वो सारा गुड़ उठा लिया और खा लिया।मेरी मृतप्रायः आत्मा में प्राण आ गये।

मैं उसी पेड़ की जड़ो में रात भर पड़ा रहा,सुबह जब मेरी आँख खुली तो काफ़ी रौशनी हो चुकी थी,मैं नित्यकर्मो से फारिक हो किसी काम की तलास में फिर सारा दिन भटकता रहा पर दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था,एक और थकान भरे दिन ने मुझे वापस उसी जगह निराश भूखा खाली हाथ लौटा दिया।शाम ढल रही थी,कल और आज में कुछ भी तो नहीं बदला था, वही पीपल,वही भूखा मैं और वही गाय।कुछ ही देर में वहाँ वही कल वाले सज्जन आये और कुछेक गुड़ की डलिया गाय को डालकर चलते बने,गाय उठी और बिना गुड़ खाये चली गई,मुझे अज़ीब लगा परन्तू मैं बेबस था सो आज फिर गुड खा लिया मैंने और वही सो गया,सुबह काम तलासने निकल गया,आज शायद दुर्भाग्य की चादर मेरे सर पे नहीं थी सो एक ढ़ाबे पे पर मुझे झूँठे बर्तन धोने का काम मिल गया।

कुछ दिन बाद जब मालिक ने मुझे पहली पगार दी तो मैंने 1 किलो गुड़ख़रीदा और किसी दिव्य शक्ति के वशीभूत 7 km पैदल चलकर उसी पीपल के पेड़ के नीचे आया नज़र दौड़ाई तो गाय भी दिख गई,मैंने सारा गुड़ उस गाय को डाल दिया,इस बार मैं अपने जीवन में सबसे ज्यादा चौंका क्योकि गाय सारा गुड़ खा गई,जिसका मतलब साफ़ था की गाय ने 2 दिन जानबूझ कर मेरे लिये गुड़ छोड़ा था,मेरा हृदय भर उठा उस ममतामई स्वरुप की ममता देखकर,मैं रोता हुआ ढ़ाबे पे पहुँचा,और बहुत सोचता रहा,फिर एक दिन मुझे एक फर्म में नौकरी मिल गई,दिन बे दिन मैं उन्नति और तरक्की के शिखर चढ़ता गया,शादी हुई बच्चे हुये आज मैं खुद की फर्म का मालिक हूँ,जीवन की इस लंबी यात्रा में मैंने कभी भी उस गाय माता को नहीं भुलाया,

मैं अक्सर यहाँ आता हूँ और इन गायो को गुड़ डालकर इनका झूँठा गुड़ खाता हूँ,मैं लाखो रूपए गौ शालाओं में चंदा देता हूँ, परन्तू मेरी मृग तृष्णा यही आकर मिटती हैं बेटे।मैं देख रहा था वे बहुत भावुक हो चले थे,समझ गये अब तो तुम,मैंने सिर हाँ में हिलाया,वे चल पड़े,गाडी स्टार्ट हुई और निकल गई,मैं उठा उन्ही टुकड़ो में से एक टुकड़ा उठाया मुँह में डाला सचमुच वो कोई साधारण गुड़ नहीं था उसमे कोई दिव्य मिठास थी जो जीभ के साथ आत्मा को भी मीठा कर गई।

जय श्री कृष्णा .... 

देश की प्राथमिकता कब बनेगी "गौ संरक्षण" ? 

दुर्भाग्य कि अभी तो गोपाष्टमी जानी जाती है केवल इंदिरा जी के शासनकाल में गौभक्तों के नृशंस संहार के लिए ! वह सुबह कब आयेगी, जब गोपाष्टमी गौसेवा का पर्याय बनेगी ?
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