संघ सुगन्ध के विस्तारक - पूर्व प्रांत प्रचारक - शरद मेहरोत्रा



कन्नौज (उ.प्र.) के प्रसिद्ध इत्र निर्माता व नगर संघचालक श्री हरिहर नाथ एवं श्रीमती सरला के घर में 20 अक्तूबर, 1942 को शरद जी का जन्म हुआ। संघचालक होने के कारण संघ के कार्यकर्ताओं का प्रायः उनके घर आगमन होता था; पर वे अपनी किताबों में डूबे रहते थे। इस कारण कन्नौज में वे संघ से नहीं जुड़ पाये। सेठ वासुदेव सहाय इंटर कालिज से इंटर और फिर विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर से उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए किया।

कानपुर में 1962 में उनका सम्पर्क फरुखाबाद जिला प्रचारक श्री शिवप्रसाद जी के माध्यम से विभाग प्रचारक श्री अशोक सिंघल से हुआ। उस समय रज्जू भैया और भाऊराव देवरस भी कानपुर आते रहते थे। इनके सान्निध्य ने शरद जी के जीवन में संघ की लौ जला दी। इसका परिणाम यह हुआ कि 1964 में 22 वर्ष की अवस्था में एम.ए करते ही वे प्रचारक बन गये।

प्रचारक के नाते सर्वप्रथम उन्हें मथुरा भेजा गया। मथुरा की मस्ती उनके स्वभाव के अनुकूल थी, इसलिए वे वहां रम गये। वे अत्यन्त सम्पन्न परिवार के थे, जबकि प्रचारक को सादगी से रहते हुए अपने व्यय का हिसाब प्रति माह व्यवस्था प्रमुख को देना होता है। शाही खर्च के आदी शरद जी को इससे कठिनाई होती थी; पर धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को इस अनुसार ढाल लिया।

वे आगरा, अलीगढ़ और एटा में जिला व विभाग प्रचारक रहे। मथुरा में दीनदयाल जी के पैतृक ग्राम फरह में शरद जी ने उनके जन्मदिवस पर मेला प्रारम्भ कराया। ऐसे कई अभिनव कार्यक्रमों से उन्होंने सैकड़ों नये कार्यकर्ताओं को संघ से जोड़ा।

शरद जी बहुत सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति थे। आपातकाल में वे जब जेल में थे, तो उनके परिवारजन जेलर के माध्यम से प्रायः उनसे मिल लेते थे। शरद जी ने इसके लिए उन्हें डांटा। 1977 में जब प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो कल्याण सिंह उसमें स्वास्थ्य मंत्री थे। शरद जी के परिजनों ने उनसे मिलकर और शरद जी का नाम लेकर अपने एक संबंधी का स्थानांतरण रुकवा लिया। इससे भी शरद जी बहुत नाराज हुए।

1981 में वे मध्यभारत में सहप्रांत प्रचारक और 1985 में प्रांत प्रचारक बने। वहां उन्होंने अपने परिश्रम से शाखाओं का भरपूर विस्तार किया। श्री रामजन्मभूमि आंदोलन में पूरे भारत की भांति मध्यभारत प्रांत भी सक्रिय रहा। साहित्य निर्माण, विद्यालयों का विस्तार, धर्म जागरण से लेकर सेवा तक सब कामों में उन्होंने नये आयाम स्थापित किये। उन दिनों म0प्र0 में भाजपा का शासन था। ऐसे में सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए संगठन और सत्ता में तालमेल बनाये रखने में भी वे सफल हुए।

बचपन से ही शरद जी का जबड़ा कुछ कम खुलता था। उसे सक्रिय रखने के लिए वे प्रायः कुछ चबाते रहते थे; पर यही आगे चलकर मुख कैंसर में बदल गया। मुंबई में टाटा अस्पताल की जांच से जब यह पता लगा, तब तक बात बहुत आगे बढ़ गयी थी। कई तरह के इलाज किये गये; पर रोग बढ़ता गया।

उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि चार-छह माह का जीवन बढ़ाने के लिए औपरेशन, रेडियेशन या कीमोथेरेपी आदि का प्रयोग वे नहीं करेंगे। धीरे-धीरे उनका मुंह बिल्कुल बंद हो गया और वे लिखकर बात करने लगे। उन्होंने स्वयं को प्रभु चरणों में समर्पित कर दिया और आयुर्वेदिक दवा लेते रहे।

कैंसर में रोगी को अत्यन्त शारीरिक पीड़ा होती है; पर शरद जी ने किसी को इसका अनुभव नहीं होने दिया। जब तक संभव था, वे बीमारी में भी प्रवास करते रहे। इसी प्रकार समय निकलता गया और 30 जनवरी, 1993 को सुंगध नगरी के इस सुगंधित पुष्प ने स्वयं को भारतमाता के चरणों में विसर्जित कर दिया। देहांत से एक घंटे पूर्व उन्होंने श्री माणिक चंद्र वाजपेयी को स्लेट पर लिखकर एक संदेश दिया, जो सब कार्यकर्ताओं के लिए आज भी पाथेय है।
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