आपातकाल का पुनर्स्मरण - भाग -1 – द्वारा श्री अरुण जेटली
0
टिप्पणियाँ
1971 और 1972 के वर्ष श्रीमती इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के उच्चतम बिंदु थे । उन्होंने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और संयुक्त विपक्षी दलों को एक साथ चुनौती दी। उन्होंने 1971 के आम चुनावों में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की । अगले पांच सालों तक वे राजनीतिक शक्ति का मुख्य केंद्र थीं। अपनी पार्टी के भीतर उन्हें कोई चुनौती नहीं थी। वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में नागरिक विद्रोह हुआ, जहां आम चुनाव में शेख मुजीबुर रहमान की अगुवाई में अवामी लीग ने पाकिस्तान संसद में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया । जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी की अवामी लीग को तुलनात्मक रूप से कम सीटें प्राप्त हुईं । किन्तु पाकिस्तान यह कैसे बर्दास्त करता कि उस पर पूर्वी पाकिस्तान का प्रभुत्व हो जाए? उसने पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह की ओर अग्रसर जनादेश को स्वीकारने से स्पष्ट इनकार कर दिया। इसके बाद पाकिस्तानी सेना से लड़ने वाली मुक्ति बाहनी का गठन हुआ और पूर्वी पाकिस्तान में भारी संघर्ष हुआ । आखिरकार 3 दिसंबर, 1971 को भारत पाक युद्ध भी शुरू हो गया । 16 दिसंबर तक भारतीय सेना ने पूरे पूर्वी पाकिस्तान पर नियंत्रण कर लिया और पश्चिम पाकिस्तान में भी भारतीय सैनिक काफी आगे तक बढ़ गए । पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने भारत के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया और समूची सेना युद्धबंदी बन गई । भारत और श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए पाकिस्तान का टूटना एक प्रमुख राजनीतिक घटनाक्रम था जिसके कारण एक नये राष्ट्र - बांग्लादेश का निर्माण हुआ।
आर्थिक कुप्रबंधन, नारे बनाम नीति
अब मंच तैयार था, श्रीमती इंदिरा गांधी के भारत पर शासन करने के लिए, उनके "गरीबी हटाओ" के वायदे को पूरा करने के लिए और भारत में पर्याप्त आर्थिक विकास लाने के लिए। यह वह समय था, जब उबकी लोकप्रियता चरम पर थी । 60 और 70 के दशकों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद की औसत वृद्धि दर केवल 3.5% थी। दुनिया के अधिकांश देश अब एक विनियमित अर्थव्यवस्था से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि वह उत्पादन के लिए अनुपयोगी साबित हुई थी। यहां तक कि कम्युनिस्ट राष्ट्र भी राज्य के नियत्रण से निकलने या उसे अस्वीकार करने के कगार पर थे। एक पार्टी के शासन को बरकरार रखते हुए भी, चीन ने उदारीकृत अर्थव्यवस्था के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया। किन्तु श्रीमती इंदिरा गांधी की राजनीति की त्रासदी यह थी कि वे टिकाऊ नीतियों के स्थान पर लोकप्रिय नारे पसंद करती थीं। नतीजा यह हुआ कि एक विशाल चुनावी जनादेश के साथ गठित केंद्र और राज्यों की सरकारों ने वही आर्थिक दिशा जारी रखी जो 1960 के दशक के अंत तक प्रयोग में आ रही थी ।
उनका मानना था कि भारत की धीमी आर्थिक वृद्धि तस्करी और आर्थिक अपराधों के कारण थी। उन्होंने तस्करी से निपटने के लिए एक निवारक हिरासत कानून COFEPOSA अधिनियमित किया। उनका मानना था कि तस्करों की संपत्ति जब्त करने से भारत को एक बड़ा संसाधन मिल सकता है और इसलिए सैफमा अधिनियमित किया गया था। उनका यह भी मानना था कि अर्थव्यवस्थाओं पैमाने पर जिन्हें बड़े उद्योग कहा जाता है, उन्हें रोका जाना चाहिए, इसलिए एमआरटीपी अधिनियम को और अधिक कडा बना दिया गया । उनका मानना था कि आकार के मामले में भूमि नियम स्वामित्व शहरी क्षेत्रों पर भी लागू होना चाहिए और इसलिए शहरी भूमि सीलिंग कानून लागू किया गया । इससे आवासीय निर्माण और अपार्टमेंट के विकास की गति रुक गई, क्योंकि शहरी भूमि के बड़े हिस्से थम गए । केवल राज्य विकास प्राधिकरणों को भूमि विकसित करने की अनुमति थी। उनका मानना था कि व्यवसाय का आउटसोर्सिंग हानिकारक था और अनुबंध श्रम उन्मूलन अधिनियम लाया गया । उन्होंने बीमा और कोयला खनन व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण किया। उन्होंने अप्रबंधनीय मुद्रास्फीति से निपटने के लिए गेहूं व्यापार के राष्ट्रीयकरण को बढ़ावा दिया (बाद में उलटा) । इससे अधिक मुद्रास्फीति हुई। इससे समाज और व्यापार संघ अशांत हुआ, जहां बड़ी संख्या में मानव-दिवस खो गए। पहले तेल झटके का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । पाकिस्तान की ओर झुकाव के कारण, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत की बहुत सारी सहायता निलंबित कर दी। 1974 में मुद्रास्फीति 20.2 प्रतिशत तक पहुंच गई और 1975 में तो यह 25.2 प्रतिशत तक पहुंच गई। श्रम कानूनों को और अधिक कठोर बना दिया गया और इससे आर्थिकी का लगभग पतन हो गया। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढी और अभूतपूर्व मूल्य वृद्धि हुई । अर्थव्यवस्था में निवेश ने अंतिम पायदान पर पहुँच गया । फेरा क़ानून लागू होने के बाद मामला और बिगड़ गया । 1975 और 1976 में विदेशी मुद्रा संसाधन केवल 1.3 अरब डॉलर थी।
28 फरवरी 1974 को वित्त मंत्री श्री वाई.बी. चव्हाण ने बजट प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने कहा था, "जैसा कि सदन को पता है कि सरकार पिछले दो वर्षों से अर्थव्यवस्था में तीव्र मुद्रास्फीति दबाव को लेकर अत्याधिक चिंतित है, यह बड़े अफसोस का विषय है कि तमाम उपायों के बावजूद कीमतें बढ़ती जा रही हैं, 1972-73 में कृषि उत्पादन में आई 9 .5% की भारी गिरावट के कारण मांग और आपूर्ति का संतुलन गड़बड़ा गया है, प्राप्त संकेतों से पता चलता है कि 1972 में औद्योगिक उत्पादन के विकास की दर में कोई वृद्धि नहीं हुई है "।
राजनैतिक प्रतिष्ठा में कमी –
1975-76 के बजट भाषण में, वित्त मंत्री सी सुब्रमण्यम के शब्दों ने भी इसी स्थिति को प्रतिबिंबित किया "मुद्रास्फीति फैल रही है और राष्ट्रीय सीमाओं को पारकर इसका विनाशकारी प्रभाव ने भारत जैसे विकासशील देशों पर बोझ और कठिनाइयां डाल दी हैं, जिसे सहन करने के लिए हम पहले से तैयार नहीं थे । हमारे लोगों के जीवन स्तर पर और देश के भीतर वास्तविक आय के पैटर्न पर इसका असर काफी गंभीर रहा है "।
1973 तक यह स्पष्ट हो गया कि सरकार ने जिस विनाशकारी अर्थव्यवस्था के मार्ग पर चलना शुरू किया है, उसे बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है । सरकार के लिए उसकी राजनैतिक रणनीति मुख्य थी, परिणाम स्वरुप उसने बुद्धिजीवियों की सहानुभूति खो दी । सरकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ गोलक नाथ के फैसले को उलटवाने के लिए लड़ती रही, किन्तु यह प्रयास विफल रहा, क्योंकि अधिकांश न्यायाधीशों ने केशवनंद भारती मामले में सरकार के खिलाफ फैसला दिया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस शेलाट, जस्टिस ग्रोवर और जस्टिस हेगड़े की वरिष्ठता को दरकिनार कर न्यायमूर्ति ए. एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया । तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने इस्तीफा दे दिया। अदालत में अब सरकार के पसंदीदा न्यायाधीश विराजमान थे । कानून मंत्री एचआर गोखले और इस्पात और खान मंत्री मोहन कुमारमंगलम द्वारा एक खतरनाक सिद्धांत प्रचारित किया गया कि न्यायपालिका को सरकार के सामाजिक दर्शन का पालन करना होगा और न्यायाधीशों की नियुक्ति भी उसी सामाजिक दर्शन के आधार पर की जाना चाहिए।
प्रेस को भी नहीं बख्सा गया । मीडिया को नियंत्रित करने का एक तरीका था मीडिया की जेब काटना। इसलिए, सरकार ने अख़बारों के विज्ञापनों की संख्या पर प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया। प्रमुख समाचार पत्रों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के सामने इसे चुनौती दी गई । सौभाग्य से, एक के विरुद्ध चार के बहुमत से संविधान बेंच ने सरकारी कार्रवाई को अनुचित माना। न्यायमूर्ति के.के. केशवनंद भारती मामले में केवल एक न्यायाधीश मैथ्यू ने सरकार का समर्थन करते हुए, मीडिया पर लगे प्रतिबंधों का पक्ष लिया ।
दो तुगलकी फरमान
इस दौरान 1973 में एक साथ दो हैरान कर देने वाली घटनाएं घटीं । अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज में छात्रावास के मेस में अभूतपूर्व मूल्य वृद्धि के कारण असंतोष भड़का । और दूसरा समाजवादी नेता राज नारायण द्वारा दायर चुनावी याचिका में श्रीमती इंदिरा गांधी का 1971 का चुनाव इलाहाबाद उच्च ने रद्द कर दिया । राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने शुरुआत में इन घटनाओं को सरकार और श्रीमती गांधी के खिलाफ सामान्य घटनाक्रम ही माना ।
छात्रावास के भोजन की कीमतों में बढ़ोतरी जैसे अल्प महत्वपूर्ण आंदोलन ने गुजरात के सभी शहरों को अपनी चपेट में ले लिया और यहाँ तक कि मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के लिए सामाजिक अशांति का प्रबंधन करना असंभव हो गया । यह एक स्वतः स्फूर्त जन आंदोलन बन गया। संपूर्ण नागरिक समाज सड़कों पर था। गुजरात के छात्रों ने आंदोलन का नेतृत्व किया। अनुभवी नेता मोरारजी देसाई आमरण अनशन पर बैठ गए, जब तक कि विधानसभा भंग नहीं होकर नए चुनाव की घोषणा नहीं हो गई । सरकार को विवश होकर गुजरात विधानसभा को भंग कर जून 1975 में नए चुनाव कराने का निर्णय लेना पड़ा ।
गुजरात में हुए इस घटनाक्रम ने देश के अन्य हिस्सों में भी इसी तरह की भावनाओं को जन्म दिया। बिहार में नौजवान, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मुद्रास्फीति से निराश थे ही, फलस्वरूप छात्र संघर्ष समिति ने राज्य में जन आंदोलन शुरू कर दिया । श्री जयप्रकाश नारायण (जेपी) जो सक्रिय सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्त हो चुके थे, इस आंदोलन में कूद गए। उन्होंने न केवल बिहार में बल्कि पूरे देश में इसी तरह के विरोधों को व्यवस्थित करने के लिए छात्रों को प्रेरित किया। 1974 में दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष के रूप में, मैंने जेपी के साथ दो दिवसीय समन्वय समिति की बैठक हेतु पूरे देश से छात्र नेताओं को बुलाया। मैंने जेपी से दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में एक जन रैली को संबोधित करने का अनुरोध किया, जिसमें अभूतपूर्व जोश देखा गया। जेपी ने भारत के कई हिस्सों का दौरा किया। छात्र संगठन और राजनीतिक दल, विशेष रूप से जनसंघ, कांग्रेस (ओ) स्वतंत्र पार्टी, समाजवादी सभी इस आंदोलन में शामिल हो गए। आंदोलन में गांधीवादी और सर्वोदय नेता भी सक्रिय हो गए। अकाली दल गुरुद्वारा राजनीति से बाहर निकल आया। सरदार प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में, वे बड़े पैमाने पर जेपी आन्दोलन में शामिल हो गये। तो दिग्गजों में बीजू पटनायक और आचार्य कृपलानी ने भी यही किया।
12 जून 1975 का दिन श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए सबसे निराशाजनक दिनों में से एक था। वह अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने में असमर्थ रही थी। साथ साथ उन्हें एक तानाशाह और विरोध को कुचलने वाले के रूप में देखा जा रहा था। विपक्ष उनके खिलाफ एकजुट होकर आन्दोलन कर रहा था । कि तभी उनके निकटतम सलाहकार श्री डी.पी. धर के निधन का बुरा समाचार आया । दोपहर होते होते गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे भी आ गए, और कांग्रेस पार्टी ने पहली बार गुजरात में पराजय का स्वाद चखा | श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन ने श्री बाबूभाई देसाई के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत हासिल किया । तभी एक आश्चर्यजनक खबर आई कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जग मोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती इंदिरा गांधी को कदाचरण से चुनाव जीतने का दोषी मानकर उनकी संसद सदस्यता रद्द कर उनके चुनाव को शून्य घोषित कर दिया। उन पर एक सार्वजनिक कार्यकर्ता यशपाल कपूर द्वारा चुनावों में तय सीमा से अधिक पैसा खर्च करने का आरोप लगाया गया था। उन्हें कदाचरण का दोषी पाया गया ।
क्या लोकतंत्र में व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं?
12 जून की शाम को ही प्रधान मंत्री के निवास के बाहर बड़े प्रदर्शन आयोजित किए गए, कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। कानून के शासन को राजनीतिक रूप से खतरनाक सिद्धांत द्वारा प्रतिस्थापित करने की मांग की गई कि इंदिरा गांधी अनिवार्य हैं। स्वाभाविक ही इस रैली के पीछे पार्टी ही थी। आनन फानन में अपील तैयार की गई और सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई। उनकी ओर से नानी पालखीवाला को उपस्थित रहने के लिए मना लिया गया । यह जून का महीना था, अतः वेकेशन जज न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर, उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अंतरिम आदेश प्राप्त करने हेतु दायर इस अपील को सुनने वाले थे । सुनवाई से पहले, कानून मंत्री गोखले ने न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर से मिलना चाहा और उनके साथ इस मामले पर चर्चा करने की इच्छा व्यक्त की । जब न्यायाधीश ने गोखले से बैठक के उद्देश्य के बारे में पूछा, तो गोखले ने उन्हें ईमानदारी से बता भी दिया । न्यायाधीश ने विनम्रतापूर्वक इस बैठक को अस्वीकार कर दिया। न्यायाधीश द्वारा बाद में लिखे अपने संस्मरणों में इस घटना का खुलासा किया ।
न्यायाधीश ने इंदिरा गांधी की ओर से पालकीवाला को और राज नारायण की ओर से शांति भूषण को सुना और चुनाव अपील में जैसा कि अमूमन होता है, सामान्य आदेश पारित किया। अपील स्वीकार कर ली गई थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बदलने का पालखीवाला का अनुरोध खारिज कर दिया गया था। आदेश के मुताबिक़ इंदिरा गांधी संसद में शामिल तो हो सकती थी लेकिन संसद सदस्य के रूप में नहीं, बल्कि केवल प्रधान मंत्री के रूप में बात कर सकती थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने उनके इस्तीफे की मांग को और तेज कर दिया। 24 जून को गांधी शांति फाउंडेशन में सभी विपक्षी नेता जेपी से मिले। युवा और छात्र संगठनों के संयोजक के रूप में, मैं पिछली पंक्ति में बैठकर तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं को रणनीति तैयार करते हुए देख रहा था। 29 जून से राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह शुरू किया जाना था। 25 जून को रामलीला मैदान में एक बड़ी रैली आयोजित की गई। इस्तीफे का दबाव बढ़ रहा था।
25 जून की आधी रात
1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के बाद से ही भारत में संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित था। यह आपातकाल बाहरी आक्रामण के कारण था। दूसरा आपातकाल घोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। लेकिन सिद्धार्थ शंकर रे ने उन्हें सलाह दी कि दूसरे आपातकाल की घोषणा आवश्यक है। उन्होंने आंतरिक गड़बड़ी के कारण आपातकाल घोषित करने का तर्क दिया। तदनुसार 25 और 26 जून की मध्य रात को राष्ट्रपति ने आंतरिक आपात स्थिति की एक नई घोषणा पर हस्ताक्षर किए। अनुच्छेद 352 के साथ अनुच्छेद 359 के तहत एक और घोषणा की गई कि संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 22 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों को भी साथ में निलंबित कर दिया गया । हर भारतीय अब इस मौलिक अधिकार से रहित था। यह एक ऐसी आपात स्थिति थी जिसमें यह नीति घोषित की गई कि इंदिरा गांधी भारत के लिए अनिवार्य थीं और सभी विरोधाभासी आवाजों को कुचल दिया जाना चाहिए । संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल लोकतंत्र को संवैधानिक तानाशाही में बदलने के लिए किया गया।
26 जून की सुबह
25 और 26 जून की आधी रात को देश भर में राजनीतिक नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया । श्रीमती इंदिरा गांधी का विरोध करने वाले सभी लोग विशेष लक्ष्य थे। मैं उन लोगों में से एक था जिनके घर को 26 जून की सुबह के शुरुआती घंटों में पुलिस द्वारा घेर लिया गया था। एक वकील के नाते मेरे पिता ने मुझे हिरासत में लेने के लिए आवश्यक दस्तावेज देखने चाहे, जो पुलिस के पास नहीं थे। वे उन्हें पुलिस स्टेशन ले गए और फिर इस हिदायत के साथ वापस भेजा कि मुझे पुलिस को रिपोर्ट करनी होगी। इस बीच, मैं अपने घर से भाग गया और रात पड़ोस में एक दोस्त के घर बिताई । यह जानने के बाद कि क्या हो रहा था, मैंने 26 जून की सुबह एक विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए तैयार होना शुरू कर दिया। सुबह से मैं यह पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि देश के अन्य हिस्सों में क्या हो रहा था। ज्यादातर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था और उन्हें जेल ले जाया गया था। बहादुरशाह जफर मार्ग - दिल्ली की प्रेस स्ट्रीट का बिजली कनेक्शन काट दिया गया था, ताकि कोई समाचार पत्र प्रकाशित न हो पाए । समाचार पत्रों पर सुबह 10 बजे सेंसरशिप लगा दी गई और सेंसर का एक अधिकारी हर समाचार पत्र के कार्यालय में बैठा दिया गया । मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का विरोध प्रदर्शन आयोजित कर आपातकाल का पुतला जलाया और मैंने जो भी हो रहा था उसके खिलाफ भाषण दिया। पुलिस बड़ी संख्या में वहां पहुंची और मुझे आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के के तहत गिरफ्तार किया गया। मुझे हिरासत में लेने के बाद दिल्ली की तिहाड़ जेल में ले जाया गया । इस प्रकार मुझे 26 जून 1975 की सुबह पहला विरोध प्रदर्शत आयोजित करने का गौरव हासिल हुआ और मैं आपातकाल के विरोध में सत्याग्रह करने वाला पहला सत्याग्रही बन गया। मुझे थोड़ा भी अहसास नहीं था कि 22 साल की उस छोटी सी उम्र में, मैं उन कार्यक्रमों में भाग ले रहा था जो इतिहास का हिस्सा बनने जा रहे थे। इस घटना ने मेरे जीवन के भविष्य का पाठ्यक्रम ही बदल दिया। देर दोपहर में मुझे तिहाड़ जेल में मीसाबंदी के रूप में दर्ज किया गया ।
साभार: Organiser
एक टिप्पणी भेजें