कारगिल युद्ध का परमवीर योद्धा - योगेन्द्र सिंह यादव !
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पाकिस्तान न सुधरा है न सुधरेगा | सेवानिवृत्त जनरल जी डी बक्षी की माने तो भारत का यह संकट तब ही दूर होगा, जब इसके अभी चार और टुकडे हो जायेंगे | तब तक यह मानने वाला नहीं है | 1999 में दिल्ली लाहौर बस सेवा शुरू कर तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल जी ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, किन्तु नतीजे में हमें मिला कारगिल युद्ध |
यह कारगिल युद्ध किन भीषण परिस्थितियों में लड़ा गया उसकी कहानी है ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव की अनुपम शौर्य गाथा | 10 मई 1980 को जन्मे इस शूरमा ने 5 मई 1999 को अपने नए जीवन का शुभारम्भ किया, उनकी शादी हुई | शादी के बाद 20 मई को जब वे वापस अपनी ड्यूटी पर कश्मीर पहुंचे, तो उन्हें बताया गया कि उनकी बटालियन 18 ग्रेनेडियर द्रास सेक्टर की तुरोलिन पहाडी पर लड़ाई लड़ रही है | इनके पहुँचने के बाद 12 जून को उस पहाडी पर तो तिरंगा फहरा ही दिया गया और एक नयी चुनौती इस दल को मिली और वह थी द्रास सेक्टर की सबसे ऊंची और दुरूह चोटी “टाईगर हिल” को दूश्मन के कब्जे से आजाद करने की |
इस बटालियन के कमांडर कर्नल खुशाल चन्द्र ठाकुर ने अपनी बटालियन के सात चुनिन्दा जांबाज कमांडो को चुनकर उन्हें टाइगर हिल के अतिमहत्वपूर्ण दुश्मन के तीन बंकरों पर कब्ज़ा करने का दायित्व सौंपा । योजना यह बनी कि 18000 फीट की ऊंचाई वाली टाइगर हिल के उस तरफ से ऊपर चढ़ना है, जिधर से दुश्मन कल्पना भी न कर पाए।
चढ़ाई दुर्गम थी। 100 फीट से ज्यादा की खड़ी चढ़ाई चढ़ने की थकान को नजरअंदाज करते हुए सैनिकों को गोला बारूद से लैस प्रशिक्षित आतंकियों से भरे उन बंकरों पर हमला करना था, जो दूसरी तरफ से आगे बढ़ने वाले भारतीय सैनिकों को बिना कठिनाई के मार रहे थे।
ग्रेनेडियर यादव इस टुकड़ी में सबसे आगे रहने का उत्तरदायित्व संभाल रहे थे, जिसमें उन्हें सबसे पहले पहाड़ पर चढ़कर अपने पीछे आ रहे अपने साथियों के लिए रस्सियों का क्रम स्थापित करना था। रात का समय था और जिस मार्ग पर ये लोग आगे बढ़ रहे थे, उसके दोनों ओर नाला था | अँधेरे के कारण ये लोग नहीं देख पाए कि दुश्मन के बंकर इनके बिलकुल सामने हैं | किन्तु दुश्मन ने इनको देख लिया और फायर खोल दिया | एक साथी तो इस आक्रमण में वीरगति को प्राप्त हो गया किन्तु शेष जवानों ने जबाबी गोलाबारी शुरू कर दी |
अँधेरे ने जहाँ नुक्सान पहुंचाया वहां एक फायदा भी हुआ कि दुश्मन को इनकी संख्या का अनुमान नहीं लगा | इन लोगों का जबाबी आक्रमण इतना जबरदस्त था कि उनको लगा कि भारत की पूरी बटालियन ही मैदान में आ गई है | दुश्मन के 27 सैनिक इनके जबाबी हमले में मारे गए |
सुबह होते ही इन लोगों ने फायरिंग रोक दी | लगभग दस बजे सुबह पाकिस्तान के दस सैनिक यह जानने को आये कि वास्तव में कितने भारतीय सैनिक इस अभियान में शामिल हैं | उन्हें आता देखकर ये लोग पत्थरों के पीछे छुप गए और उनके नजदीक आने का इन्तजार करने लगे | जैसे ही वे इनकी रेंज में आये इन रणबांकुरों के आक्रमण कर दिया | दस में से आठ पाकिस्तानी सैनिक तो मारे गए किन्तु दो केवल घायल होकर वापस लौट गए और उन्होंने ऊपर अपनी चौकी के कमांडर को जानकारी दे दी कि महज छः सात भारतीय सैनिक ही मौके पर हैं |
स्वाभाविक ही एक पाकिस्तानी टुकड़ी इन लोगों को निबटाने के लिए बढी | संख्या की अधिकता के कारण उनके हमले में हमारी इस भारतीय टुकड़ी के पांच जवान तो शहीद हो गए, किन्तु इकलौते योगेन्द्र सिंह यादव गंभीर घायल अवस्था में जिन्दा बचे | हालांकि इन्हें भी पंद्रह गोलियां लगी थीं | एक हाथ पूरी तरह क्षत विक्षत हो चुका था | नजदीक आये पाकिस्तानी सैनिकों ने अपनी आदत के अनुसार मृत शरीरों पर भी गोलियां बरसाईं, गालियाँ दीं, बूटों से ठोकरें मारीं |
कहावत है कि “जाको राखे साईयाँ, मार सके न कोय” | योगेन्द्र यादव के ऊपर की जेब में एक पर्स रखा था तथा उसमें पांच पांच के सिक्के भी थे | दुश्मन की गोलियां इनके बाक़ी शरीर पर तो लगीं, किन्तु दिल उस पर्स में रखे सिक्कों ने बचा लिया | गोली का धक्का अवश्य लगा, जिसके कारण योगेन्द्र कुछ समय के लिए अपनी चेतना खो गए | किन्तु उससे यह लाभ हुआ कि दुश्मन सैनिकों ने इन्हें भी मृत ही समझा |
किन्तु जल्द ही इन्हें होश आ गया और इनके कानों में पाकिस्तानी कमांडर के शब्द पड़े – वह नीचे वाली भारतीय चौकी के विषय में सूचना दे रहा था कि उस पर हमला करने का यह सही समय है | वे लोग असावधान भी हैं, और संख्या में भी कम हैं |
योगेन्द्र यादव को लगा कि वे अभी तक ज़िंदा हैं, तो इसका अर्थ यह है कि ईश्वर उनसे कुछ बड़ा काम करवाना चाहता है और मौत उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती | इसलिए उन्होंने हिम्मत जुटाई और वापस जा रहे पाकिस्तानी सैनिकों को सबक सिखाने और अपनी नीचे वाली चौकी को बचाने की ठानी | उन्होंने अपने एकमात्र हाथ से एक ग्रेनेड वापस लौटते पाकिस्तानियों की ओर फेंका, जिस सैनिक पर वह गिरा, वह तो जहन्नुम पहुँच ही गया, बाक़ी लोगों में भी अफरा तफरी मच गई | उन लोगों को लगा कि कोई हिन्दुस्तानी टुकड़ी मोर्चे पर आ गई है | क्योंकि इस टुकड़ी के सभी सदस्यों को तो वे अपने हाथों से मार ही चुके थे | योगेन्द्र यादव ने स्थिति भांपकर एक राईफल से स्थान बदल बदल कर गोलियां भी दागना शुरू कर दिया | चारों तरफ से गोलिया आती देखकर दुश्मन को यकीन हो गया कि कोई नई टुकड़ी ही मैदान संभाल चुकी है, और वे जान बचाने को भाग खड़े हुए | इस प्रकार अकेले योगेन्द्र यादव ने कई दुश्मनों को मार गिराया |
अब दूसरी बड़ी जिम्मेदारी सामने थी और वह थी, नीचे मुख्य चौकी को होने वाले आक्रमण से सावधान करने की | यादव ने अपने जख्मी हाथ पर गौर किया और कोशिश की कि अगर यह बेकार ही हो चुका है तो बेकार ढोने से क्या फायदा, इसे शरीर से अलग ही कर दिया जाए | किन्तु उनकी कोशिश सफल नहीं हुई तो उन्होंने अपने उस झूलते हुए हाथ को अपनी पीठ की तरफ लटका कर उसे बैल्ट से बांध दिया | और फिर बगल वाले नाले में फिसलते लुढ़कते यात्रा शुरू कर दी | ईश्वर का चमत्कार कि शरीर में लगीं पन्दरह गोलियों के घावों से लगातार बहते खून के बाबजूद ये होशो हवास में नीचे तक जा पहुंचे | सामने गश्त करते अपने लेफ्टिनेंट बलवान सिंह और कैप्टिन सचिन निम्बालकर को देखते ही उन्होंने आवाज लगाई | और फिर भारतीय सैनिकों ने इन्हें नाले से बाहर खींचा | इनकी ड्रेस चीथड़े चीथड़े हो चुकी थी, सारा शरीर लहूलुहान था, फिर भी अपनी तीमारदारी में लगे साथियों से योगेन्द्र ने कहा – मुझे कुछ नहीं हुआ है, मेरी चिंता छोडो हमारी एमएमजी पोस्ट पर अटैक होने वाला है |
अटैक वे क्या करते, जैसे ही सीओ खुशाल चन्द्र ठाकुर को पूरी रिपोर्ट मिली और उन्हें समझ में आया कि उनकी जांबाज टुकड़ी दुश्मन का ख़ासा नुक्सान कर आई है, उन्होंने आत्मरक्षा के बजाय आक्रमण की नीति अपनाई और बटालियन की रिजर्व कम्पनी को टाईगर हिल पर आक्रमण करने रवाना किया और उसी रात टाइगर हिल पर भारतीय तिरंगा फहरा दिया गया |
मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में अद्भुत शौर्य दिखाने वाले ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव को बाद में देश ने परमवीर चक्र से सम्मानित किया | आज वे अपनी बटालियन 18 ग्रेनेडियर में ही सूबेदार के रूप में देश रक्षा को सन्नद्ध हैं |
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