सरल वेदांत - सुख और दुःख - आचार्य रजनीश
0
टिप्पणियाँ
संसार में सब प्रकार के सुख के पीछे, उसकी छाया के रूप में दुःख रहता है | जीवन के पीछे उसकी छाया मृत्यु रहती है | वे दोनों सदा एक साथ ही रहते हैं , कारण, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे प्रथक सत्ताएं नहीं हैं, वे एक ही वस्तु के दो विभिन्न रूप हैं, वह एक ही वस्तु जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे आदि रूप में व्यक्त हो रही है | एक ही वस्तु जीवन में कभी सुख तो कभी दुःख उत्पन्न करती है | एक ही वस्तु किसी को सुख तो किसी को दुःख देती है | मांसाहारी को अवश्य मांस खाने में सुख मिलता हो, पर जिसका मांस खाया गया उसके लिए तो भयानक कष्ट है | ऐसा कोई विषय नहीं जो सबको समान रूप से सुख देता हो | अतः यह द्वैत भाव वास्तव में मिथ्या है |
तिब्बत में विवाह नहीं होता, अतः वहां प्रेमजनित ईर्ष्या नहीं पाई जाती | फिर भी हम जानते हैं की विवाह अपेक्षाकृत उन्नत अवस्था है | तिब्बती लोग पवित्रता के अद्भुत सुख को, पतिव्रता पत्नी, पत्नीव्रती पति के विशुद्ध दाम्पत्य प्रेम का सुख नहीं जानते | किन्तु साथ ही किसी पुरुष या स्त्री का पतन हो जाने से दूसरे के मन में होने बाले भयानक दुःख, अंतर्दाह को भी नहीं जानते | वे एक और सुखी होते हैं तो दूसरी ओर दुखी |
यह जगत सदा ही भले और बुरे का मिश्रण है | जहां भलाई देखो समझ लो उसके पीछे बुराई भी छिपी है | इन सब विरोधी भावों के पीछे वेदान्त उस एकत्व को देखता है | वेदान्त कहता है – बुराई छोडो और भलाई भी छोडो | उठो अपने को मुक्त करो, समस्त नियमों के राज्य से बाहर चले जाओ, क्योंकि ये नियम तुम्हारी सत्ता के अंश मात्र हैं | पहले समझ लो तुम प्रकृति के दास नहीं हो, न कभी थे न कभी होगे – प्रकृति भले ही अनंत मालूम पड़े, पर वास्तव में वह ससीम है | वह समुद्र का एक विन्दु मात्र है, और तुम्ही वास्तव में समुद्र स्वरुप हो | चन्द्र, सूर्य, तारे तुम्हारे अनंत स्वरुप की तुलना में केवल बुदबुदों के समान हैं | यह जान लेने पर तुम अच्छे और बुरे दोनों पर विजय पा लोगे | तब तुम्हारी सारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जायेगी और तुम खड़े होकर कह सकोगे – “मंगल कितना सुन्दर है और अमंगल कितना अद्भुत”|
तुम अपने ही हांथो से अपनी आँख मूंदकर कहते हो – “अन्धकार है” | हाथ हटा लो प्रकाश दीख पड़ेगा |
कठोपनिषद - मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति - “जो यहाँ नानात्व देखता है, वह बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होता है |
अतः उस एक को देखो और मुक्त हो जाओ |” इस मन को भी इतना सबल किया जा सकता है कि वह उस ज्ञान का, उस एकत्व का आभास पा सके, जो पुनः पुनः मृत्यु से हमारी रक्षा करता है |
यथोदक दुर्गे वृष्टम पर्वतेषु विधावति |
एवं धर्मान पृथक पश्यमस्तानेवानुविधावती – “जल उच्च दुर्गम भूमि में बरसकर जिस प्रकार पर्वतों में बह जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति गुणों को प्रथक करके देखता है, वह उन्ही का अनुवर्तन करता है” | अनेक के पीछे मत दौड़ो, बस उसी एक की ओर अग्रसर होओ |
स्वर्ग के सम्बन्ध में धारणा थी कि वह दुःख शून्य सुख है; अर्थात हम ऐसा स्थान चाहते हैं जहां संसार के सभी सुख हों, और दुःख बिलकुल न हों | यह है तो अत्यंत सुन्दर धारणा और बिलकुल स्वाभाविक भी, किन्तु है पूर्णतः भ्रमात्मक | क्योंकि पूर्ण सुख या पूर्ण दुःख नामकी कोई वस्तु है ही नहीं |
रोम में एक बड़ा धनी व्यक्ति था | उसे एक दिन ज्ञात हुआ कि उसके पास अब केवल दस लाख पौंड शेष रहे हैं | उसने कहा - “तब मैं कल क्या करूंगा ?” और ऐसा कहकर उसने उसी समय आत्महत्या कर ली | दस लाख पौंड उसके लिए दारिद्र्य थे | भले ही दस लाख पौंड हमारे लिए जीवन भर की आवश्यकताओं से भी अधिक हों | अब तुम कौन से सुख को पकडे रहोगे ? मैंने एक ऐसा व्यक्ति देखा है जो प्रतिदिन अफीम का गोला खाए बिना सुखी नहीं होता | उसके कल्पना के स्वर्ग की मिट्टी भी अफीम की बनी होगी | पर यदि मुझे ऐसे स्वर्ग में भेज दिया जाए तो मेरे लिए तो वह नरक होगा | हम लोग बारम्बार अरबी कविता में पढ़ते हैं कि स्वर्ग अनेक प्रकार के मनोहर उद्यानों से परिपूर्ण है, उसमें अनेक नदियाँ बहती हैं | किन्तु मैं बचपन से ऐसे स्थान में रहा हूँ जहां जल प्रचुर मात्रा में था, प्रतिवर्ष बाढ़ से तवाही मचती थी | अतः स्वाभाविक ही मेरा स्वर्ग नदी और उद्यान से पूर्ण नहीं हो सकता | जो विषय भोग को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं वे ही इस प्रकार के स्वर्ग की प्रार्थना करते हैं | इसका कारण यह है कि यथार्थ आनंद क्या है, यह तुम जानते ही नहीं हो | वास्तव में दर्शन शास्त्र में आनंद को त्यागने का उपदेश नहीं दिया गया है | यथार्थ आनंद क्या है, उसमें यही समझाया गया है |
नार्वे वासियों की स्वर्ग के सम्बन्ध में धारणा है कि वह एक भयानक युद्धक्षेत्र है – जहां सब लोग जाकर ‘ओडिन’ देवता के सम्मुख बैठते हैं | कुछ समय के बाद जंगली सूअर का शिकार प्रारम्भ होता है | बाद में वे आपस में ही युद्ध करते हैं और एक दूसरे को खंड खंड कर डालते हैं | किन्तु उसके कुछ देर बाद ही उनके घाव भर जाते हैं | तब वे एक बड़े कमरे में आकर उस सूअर के मांस को पकाकर खाते तथा आमोद प्रमोद करते हैं | दूसरे दिन वह सूअर फिर से जीवित हो जाता है और फिर उसी तरह शिकार आदि होता है | हो सकता है हमारी धारणा नर्वे वासियों से कुछ परिष्कृत हो, किन्तु उसमें भी विषय भोग की ही प्रधानता है |
दर्शन शास्त्र के मत में एक ऐसा आनंद है जो निरपेक्ष और अपरिणामी है | इस जगत में जो कुछ आनंदकारी है, वह उस प्राकृत आनंद का अंश मात्र है, क्योंकि केवल उस आनंद का ही वास्तविक अस्तित्व है | उस ब्रह्मानंद को हमें सत्यालोक में समझना होगा | पहले अज्ञान का – मिथ्या का त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को स्वतः प्रकाशित करने लगेगा | प्रत्येक के भीतर अवस्थित सत्य तो वही एकमात्र अनंत, नित्यानन्दमयी, नित्य शुद्ध, नित्य पूर्ण ब्रम्ह है | वही यह आत्मा है | किसीके भीतर वह अधिक प्रकाशित है, और किसी के भीतर कम | एक व्यक्ति के वस्त्रों में से उसके शरीर का अधिकाँश भाग दिखाई देता है, किन्तु दूसरे व्यक्ति के वस्त्रों में से अल्पांश ही | किन्तु इससे शरीर में किसी प्रकार का भेद नहीं हो जाता | केवल शरीर को आवृत करने बाले वस्त्रों का ही अंतर है | आवरण अर्थात देह और मन, के तारतम्य में ही आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित होती है |
Tags :
ओशोवाणी
एक टिप्पणी भेजें