संघ और संघ स्वयंसेवक को लेकर कैसे बदल गए मेरे विचार ? – (लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार जफर इरशाद )
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टिप्पणियाँ
एक पत्रकार के रूप में, मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कई गतिविधियों का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ । हालांकि प्रारम्भ में, मैं न तो उनकी विचारधारा के बारे में ज्यादा जानता था और न ही उनकी गतिविधियों के विषय में । किन्तु आज पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की यात्रा के बाद, जैसा मीडिया तूफान देखने को मिला, उससे मुझे आश्चर्य हुआ कि लोग संघ के सामाजिक कार्यों और निःस्वार्थ सेवा के बारे में कितना कम जानते हैं। मैं वह घटना सुनाता हूँ, जिसका मैं स्वयं गवाह हूं और चाहता हूँ कि वह कहानी सबको जानना चाहिए ।
उन दिनों मैं एक समाचार पत्र एजेंसी के मुख्य संवाददाता के रूप में कानपुर में तैनात था। 10 जुलाई, 2011 को, मेरे संपादक ने फोन पर मुझे बताया कि फतेहपुर के पास मालवा में एक गंभीर ट्रेन दुर्घटना हुई है। मैंने अपने सूत्रों से पहले दुर्घटना पुष्टि की और उसके बाद ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए रवाना हुआ ।
उसके बाद जो कुछ मैंने देखा, उससे मेरे विचार हमेशा के लिए बदल गए
जब मैं मौके पर पहुंचा, तो उस दुर्घटना की विभीषिका ने मुझे झकझोर दिया । रिपोर्टिंग से पहले कुछ समय तो मुझे अपने आप को शांत करने में लगा, और उसके बाद मैंने वह नजारा देखा । श्वेत शर्ट और खाकी नेकर पहने कुछ लोग ट्रेन से लाशें बाहर ला रहे थे और फिर उन मृत शरीरों को एक सफेद कपडे के कफन द्वारा ढंकने में जुटे हुए थे । मैंने आगे बढ़कर जानने की कोशिश की, कि ये लोग कौन थे? किन्तु वे लोग बिना जवाब दिए अपने काम में जुटे रहे ।
कुछ समय बाद, उन्हीं लोगों ने घायल यात्रियों और उनके परिजनों के लिए चाय और बिस्कुट की सेवा शुरू कर दी । उन्होंने मुझसे भी चाय बिस्कुट लेने का आग्रह किया । अपनी रिपोर्टिंग में व्यस्त रहते मैंने एक घूँट लिया, किन्तु मेरी उत्सुकता बहुत बढ़ गई थी । मैं इन सेवाभावी लोगों के बारे में जानना चाहता था जो बिना किसी से बात किये चुपचाप सेवा कार्य किये जा रहे थे।
मैंने उन स्वयंसेवकों में से एक का पीछा किया और उससे उसका परिचय पूछा । उसने शान्ति के साथ कहा कि अगर मुझे और चाय चाहिए, तो कृपया उस पीपल के पेड़ के पास आओ।" मुझे और चाय की आवश्यकता नहीं थी। मुझे तो इन निःस्वार्थ स्वयंसेवकों के बारे में जानने की उत्सुकता थी । मैं उस पीपल के पेड़ के नीचे पहुंचा जहाँ एक कुर्ता-पायजामा पहने हुए वृद्ध सज्जन अन्य पुरुषों और महिलाओं को निर्देश दे रहे थे। मैंने उनसे उन स्वयंसेवकों के बारे में पूछा। वह बिना जबाब दिए मुस्कुराये और अपने काम में व्यस्त रहे ।
उनकी तरफ से निराश होकर मैं भी अपने कार्य में व्यस्त हो गया और अपने समाचार पत्र के लिए रिपोर्ट तैयार करने में जुट गया । शाम को, वही वृद्ध सज्जन मेरे पास आये और एक प्लास्टिक का थैला मेरे हाथों में थमाया । मैंने पूछा – इसमें क्या है ? उन्होंने शांति से जवाब दिया - "इसमें चार चपाती और सब्जी हैं। आप लंबे समय से काम कर रहे हैं, पहले भोजन तो कर लो । "
इस बार मैं थोडा अशिष्ट बन गया और बोला कि जब तक वे मुझे अपने विषय में नहीं बताएँगे, मैं खाना नहीं खाऊंगा। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया कि मेरा नाम जफर इरशाद है।
तब उन सज्जन ने बताया कि वे संघ (आरएसएस)के स्वयंसेवक हैं । मैं दंग रह गया। मुझे कभी एहसास भी नहीं था कि जो लोग संघ से संबद्ध हैं, उनके इतने मानवीय चेहरे भी हो सकते हैं। यह मेरे लिए एक नई जानकारी थी!
मैंने उन बुजुर्ग महाशय से अनुरोध किया कि वे मुझे अपने काम के बारे में कुछ और बताएं ताकि उनकी समाज सेवा, मेरी समाचार कहानी का हिस्सा बन सके। उन्होंने इसके लिए कड़ाई से ना कहा । जब मैंने जोर दिया कि मुझे अपनी निजी जानकारी के लिए तो अपनी इस व्यवस्था के बारे में कुछ बताएं, तो उन्होंने इसे सार्वजनिक न करने की शर्त रखी और कहा कि मैं कभी भी लोगों को इसके बारे में नहीं बताऊंगा।
उसके बाद उन्होंने मुझे बताया कि जो महिलाएं चाय बना रही थीं और खाना पका रही थीं, वे सब उनके अपने परिवार की ही महिलायें थीं । और मृत शरीर के लिए वहां लाया गया कफन भी एक स्वयंसेवक लाया था, जो स्वयं एक कपडे की दुकान का मालिक था। उन्होंने मुझे फिर एक बार याद दिलाया कि मुझे इसकी रिपोर्ट नहीं करनी चाहिए, और वह चले गए।
इस घटना को सात वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु वह मंजर आज भी मुझे याद है | स्वयंसेवकों का वह मानवीय और प्रेमपूर्ण व्यवहार, जो समाचार पत्रों में तो नहीं छपा, किन्तु मेरे मन मस्तिष्क में सदैव के लिए अमिट छाप छोड़ गया । निश्चय ही स्वयंसेवक निःस्वार्थ सेवा करते हैं ।
साभार: ओर्गेनाईजर
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प्रेरक प्रसंग
Certainly that aspect of RSS doing public service needs to be appreciated. But that aspect spreading an orthodox sectarian Hindutva ideology needs to be condemned.
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