एक विराट व्यक्तित्व के धनी - संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार !



पिता उस जमाने में जनसंघ से विधायक थे और परिवार हरियाणा के कैथल शहर के सबसे धनाढ्य परिवारों में एक. उसी परिवार से 10 साल की छोटी उम्र का एक बच्चा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाना शुरू करता है, संघ शाखा में जाने के साथ-साथ पढाई में भी अव्वल ये बालक इंजिनीयरिंग करने गया तो वहां भी अपनी योग्यता के झंडे गाड़ दिए और जब वहां से निकला तो मैकेनिकल इंजिनियरिंग में अपने बैच का गोल्ड मेडलिस्ट था.

डिग्री मिलने के बाद अब मैकेनिकल इंजिनियरिंग के इस टॉपर के सामने दो रास्ते थे, परिवार का जमा-जमाया व्यवसाय संभाले या फिर कहीं अच्छी सी नौकरी करे और उसके बाद गृहस्थी बसाये पर उसने ये रास्ता नहीं चुना. उसने खुद को देश और धर्म की सेवा में झोंक दिया और 1970 में संघ के प्रचारक बन गये. पिता ने खुशी में पूरे मोहल्ले को भोज दिया कि उनके बेटे ने खुद के लिये जीने की बजाये देश के लिये जीने की राह चुनी है.

प्रचारक बने तो संघ ने दिल्ली में काम करने का दायित्व सौंपा तो 1970 से 1983 तक अलग-अलग दायित्वों में दिल्ली में काम करते रहे. अपने इन दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्हें आपातकाल के दंश से लेकर, सिख विरोधी अभियान तक के विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा पर उन्होंने इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिन्दू समाज का कुशल मार्गदर्शन किया, इसी दौरान दिल्ली में माँ झंडेवाली मंदिर की जमीन को भी असामाजिक तत्वों के कब्जे से मुक्त कराया. असाधारण योग्यता को देखते हुए संघ ने इन्हें बिलकुल प्रतिकूल जगह भेजने का निर्णय लिया और उन्हें संघ कार्य को विस्तार देने के लिये कश्मीर और हिमाचल प्रदेश भेज दिया. नब्बे के शुरूआती दशक में जब पूरा कश्मीर हिन्दू विरोधी और राष्ट्र विरोधी आग में जल रहा था तब ये शख्स वहां के संतप्त हिन्दू समाज के बीच अविचलित हुए बिना काम कर रहा था. कश्मीर की एक इंच भूमि भी ऐसी नहीं है जो इस शख्स की हिन्दू समाज के लिये की गई मेहनत का इंकार कर सके. जिस समय देश के नेता और अधिकारी कश्मीर के हिन्दुओं को उनके हाल पर छोड़कर किसी चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे थे उस समय ये वहां के गाँव-गाँव में बिना किसी सुरक्षा के घूम रहे थे. कई बार आतंकियों ने अपहरण और हत्या की कोशिश की, धमकियाँ भेजी पर ये डिगे नहीं. 17 साल वहां काम करने के बाद संघ ने इनको अखिल भारतीय अधिकारी का दायित्व सौंपा, फिर तो इनके चमत्कारिक व्यक्तित्व के कई और आयाम देश के सामने आने लगे.

आपको अगर सिर्फ सदस्य के नाते कुछ संगठनों से जुड़ने को कहा जाये तो आप कितने संगठन से जुड़ सकेंगे, दो, चार, दस, बीस यही न ? पर इस शख्स ने चालीस से अधिक संगठनों की स्थापना की. समाज, राष्ट्र और हिन्दू से जुड़ा कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसके लिये इस आदमी ने काम न किया हो. आप पर्यटन की बात करेंगें तो इन्होंनें पवित्र सिन्धु नदी से जुड़ी "सिन्धु दर्शन यात्रा" शुरू की फिर पूर्वोत्तर के ओर पहुंचे और तवांग यात्रा का आयोजन किया. आज भी हर वर्ष ये दोनों यात्रायें होतीं हैं. ये देश के पहले इंसान है जिन्होनें धार्मिक यात्रा के साथ-साथ देश-प्रेम यात्रा का आयोजन शुरू किया. अपने एक संगठन "फिन्स" (फोरम फॉर इंटीग्रेटेड नेशनल सिक्यूरिटी) के बैनर तले "सरहद को प्रणाम" नाम से एक यात्रा शुरू करवाई जिसमें लाखों युवक और युवतियों ने देश के सीमावर्ती क्षेत्रों की यात्रा की और सरहद तक पहुँचे. हर वर्ष दिसंबर के अंतिम सप्ताह में अंडमान में भी ऐसी ही यात्रा का आयोजन होता है जहाँ लोग सेलुलर जेल जाकर अपने महान बलिदानियों को नमन करतें हैं. सीमा की सुरक्षा केवल सरकार की नहीं बल्कि समाज की भी जिम्मेदारी है इसलिये इस शख्स ने "सीमा जागरण मंच" नाम से एक संगठन बनाया है जो भारत के सीमवर्ती इलाकों भी सजग और मुस्तैद है. देश की आंतरिक सुरक्षा पर कोई आंच न आये और सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ समाज भी सजग रहे इसके लिये फिर "फैन्स" (फोरम फॉर अवेयरनेस ऑन नेशनल सिक्यूरिटी) नाम से एक संगठन बनाया जिसके कार्यक्रमों में सरकार के बड़े-बड़े मंत्री और रक्षा विशेषज्ञ आते रहतें हैं.

जो सैनिक देश के लिये अपना सबकुछ न्योछावर कर देता है, सेवानिवृति के बाद भी वो बेहतर जीवन जिये और समाज के लिये प्रेरक बन कर काम करे इसलिए इन्होंने "पूर्व सैनिक परिषद्" नाम से एक संगठन बनाया. पूंछ में जब जेहादी आँख दिखाते हुए हिन्दुओं से कह रहे थे कि निजामे-मुस्तफा में तेरा कोई स्थान नहीं तब इन्होनें वहां "बूढ़ा अमरनाथ" यात्रा की शुरुआत की और जिहादियों के मंसूबे को कुचल दिया, फिर इसके बाद हिमाचल प्रदेश में भी "बाबा बालकनाथ दियोट सिद्ध हिमालयी एकता" नाम से ऐसी ही एक यात्रा प्रारंभ करवाई. तिब्बत चीन के आधिपत्य से मुक्त हो इसके लिये भी उनका प्रयास चला और ५ मई १९९९ को उन्होंने "भारत तिब्बत सहयोग मंच" नाम से एक संगठन बनाया. कैलाश मानसरोवर चीन के कब्जे से मुक्त हो इसके लिये १९९६ में लेह में "सिन्धु उत्सव" की शुरुआत की जिसके उदघाटन कार्यक्रम में आडवानी जी जैसे बड़े दिग्गज भी थे. हिमालय प्रदूषण मुक्त और सुरक्षित हो इसके लिये "हिमालय परिवार" नाम से एक संगठन बनाया. ये संगठन वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण के कामों में बड़ा सक्रिय है. माँ गंगा फिर से कल-कल करती हुई बहे इसके लिये भी उन्होंने काम किया, आज गंगा-सफाई अभियान से जुड़े किसी व्यक्ति से इनका नाम पूछिए देखिये वो कितने गर्व से इनका नाम लेता है. पूर्वोत्तर में पर्यटन का विस्तार हो और चीन की गिद्ध दृष्टि से देश अवगत हो इसके लिये पूर्वोत्तर में तवांग यात्रा के साथ-साथ परशुराम कुंड यात्रा की भी शुरुआत की. देश का मुस्लिम समाज भी राष्ट्र की मुख्यधारा में आये और विवादित मसलों पर उनके साथ संवाद हो इसके लिये 2002 में "मुस्लिम राष्ट्रीय मंच" की स्थापना की, इसी तरह ईसाई समाज से भी संवाद हो सके इसके लिये "राष्ट्रीय ईसाई मंच" बनाया. गऊ रक्षा का विषय इनके दिल के सबसे करीब है, इनकी कोशिशों से लाखों-लाख मुसलमानों ने गो-हत्या रोकने के लिये हस्ताक्षर अभियान चलाया और मुस्लिम समाज से करीब १० लाख हस्ताक्षर करवाकर राष्ट्रपति को सौंपा.

नेपाल चीन के आगोश में न चला जाये इसके लिये २००६ में "नेपाली संस्कृति परिषद्" नाम से एक संगठन बनाया, फिर बांग्लादेश में हो रहे हिन्दू दमन के खिलाफ वहां के बुद्धिजीवी आगे आयें इसके लिये उन्होंने "भारत बांग्लादेश मैत्री परिषद् नाम से एक संगठन बनाया. फिर 2006 में बौद्ध और अनुसूचित नवबौद्ध समाज से संवाद के लिये "धर्म-संस्कृति संगम" नाम से एक संगठन बनाया जिसके कार्यक्रमों के बारे में मैंने कई बार लिखा है.

ये तो मैंने बस कुछ संगठनों के नाम लिखे हैं, विस्तार भय से इनके द्वारा स्थापित सारे संगठनों की चर्चा नहीं कर पाया और ऐसा भी नहीं है कि इनके इतने सारे संगठन सिर्फ नाम के हैं, इनमें से हरेक संगठन जीवंत हैं, इन संगठनों के जनक और मार्गदर्शक किसी महामानव की तरह इन सारे संगठनों के कार्यक्रमों में लगभग रोज ही आपको दिखेंगे. जो उनको करीब से जानतें हैं उनके लिये इनकी दिनचर्या किसी चमत्कार से कम नहीं है. सुबह गुवाहाटी से कार्यक्रम निपटा कर दिल्ली, फिर दिल्ली में कार्यक्रम संपन्न कर हैदराबाद और फिर ऐसा ही क्रम रोज का होता है. इन्होनें पूरे भारत के न जाने कितने चक्कर लगा लिये होंगें. रोज़ हजारों लोग मिलतें हैं पर जिससे एक बार मिल लिया उसका नाम उन्हें याद रह जाता है और उनके जानने वाले उनके नाम के आगे स्वतः आदरणीय या माननीय शब्द जोड़ लेतें हैं.

*ऊपर जिनका उल्लेख हो रहा है वो हैं संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य और संघ के वरिष्ठ प्रचारक "इन्द्रेश कुमार"*

कभी असम के बदरुद्दीन अजमल, यू० पी० के हाजी यकूब कुरैशी जैसे कट्टरपंथी नेताओं का अनुभव भी सुनियेगा जो इन्द्रेश जी से मुलाक़ात के दौरान उन्हें हुआ था. एक कार्यक्रम में इन्द्रेश कुमार और दलाई लामा दोनों को आना था. परम पावन दलाई लामा पहुँच गये पर ट्रेन देर होने के चलते इन्द्रेश जी समय पर नहीं पहुँच पाये तो दलाई लामा से अनुरोध किया गया कि आप कार्यक्रम शुरू करिए, परम पावन दलाई लामा जी ने कहा कि जब तक *इन्द्रेश* जी नहीं आते मैं शुरू नहीं करूँगा. हीरे की परख हीरे को होती है, जाहिल और मतिमंद लोग उसे कभी नहीं परख सकते पर किसी बड़े को गाली देकर खुद को ऊँचा उठता हुआ जो महसूस करे उसकी बात और है. हो सकता है कि निरंतर प्रवासी इन्द्रेश कुमार किसी दिन आपके शहर में भी हो इसलिये कभी अवसर मिले तो *इन्द्रेश* जी के किसी कार्यक्रम में जाइये, अभी के भारत सरकार के मंत्रियों को सुनिये कि उनकी भावना *इन्द्रेश कुमार* के लिये क्या है।
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