वीरे की वेडिंग में भारतीय माँ - बहनों की नई भूमिका - गीतिका वेदिका
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फ़न्तासी की परिपक्व चार युवरानियाँ जो हर समय रिश्तों को लेकर उलझन में हैं, रिश्ते जोड़ने को लेकर उलझन में हैं, रिश्ते तोड़ने को लेकर उलझन में हैं। बनते रिश्ते बिगाड़ने पर उतारू हैं और तिस पर विरोधाभास कहिये या महाविडम्बना; फ़िल्म का शीर्षक है 'वीरे दी वेडिंग'।
उन्मुक्तताएँ क्या इतनी व्याप जानी चाहिये कि तमाम रिश्ते और आस्थाएँ और चकनाचूर हो जाएं।
रिश्ते याने के पेरेंट्स यदि लड़-झगड़ के जैसे तैसे जीवन की गाड़ी धकेल रहे हैं तो उनका कारण जान के उनको अपने आगामी रिश्तों में सुलझाना चाहिए। न के उनमें और भी विकृति पैदा कर देनी चाहिए।
आस्थाएँ याने के मंगलसूत्र जिसे आप लड़की होकर अपनी ही गाली से नवाज़ रहे हैं तो जिनकी आस्था मंगलसूत्र में है उनको ठेस लगा के क्या आप का मंगल हो जाएगा?
आप चाहें तो उस आस्था को स्वयं से जोड़ने पर मना कर सकते हैं, पर दूसरों की आस्था पर चोट करने का अधिकार किसे है?
यदि यह फ़िल्म नीली फिल्मों के दर्शक बटोर रही है तो कोई विवादास्पद पहलू ही नहीं, लेकिन यदि पारिवारिक मनोरंजन के लिए अपना अस्तित्व तलाश करने में यदि बॉलीवुड की 'दोस्तों पर आधारित फिल्मों' जैसे कि 'जिंदगी न मिलेगी दोबारा' 'दिल चाहता है' 'थ्री इडियट' 'रॉक ऑन' जैसी फिल्मों में अपना नाम दर्ज़ कराना चाहती है तो यह औंधे मुँह गिरी है। बॉलीवुड की नामचीन दोस्ती पर आधारित ऊपर दी गईं फिल्में भी उन्मुक्त थीं, लेकिन भावुक कर देने वाली थीं, कॉमेडी से भरी थीं तो आज भी उनके दृश्य याद आने पर गुदगुदा जाते हैं, लेकिन जीवन के सन्देश से भरपूर थीं जो समाज में है और समाज को जोड़ने की बात करता है।
क्या पुरुष की होड़ में उनसे स्त्री को स्वयं पुरज़ोर साबित करने के लिये आदमियों के मुंह की गालियाँ लपक के अपना लेनी होंगीं? फिर तो इस क्रम में औरत को खुलेआम बाज़ार, खुली सड़को, और खुले मैदान में पीठ करके बेझिझक पेशाब करने बैठ जाना चाहिए, शायद स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा मिले।
फ़िल्म का लब्बोलुबाब शादी के पहले कर चुके सेक्स और शादी के बाद बच गए सेक्स को यंत्रों की सहायता से नये फील के इर्दगिर्द ही घूमता है।
हाल ही में एक लड़की जो कि धारावाहिकों में एक्टिंग करती है, उसने फ़िल्म को बेस्ट क़रार दिया है, कहा है सिर्फ़ लड़कियों के ही लायक है लेकिन। यदि वर्ग विशेष के लिए है तो ऐसे कैसे 'बेस्ट' हुई?
यदि फ़िल्म में दर्शक को जोड़े रहने की दम नहीं। हर सीन के बीच में तीसरा-चौथा दर्शक पर्दे से नज़रें इधर-उधर करता नज़र आता है तो विदेशी लोकेशन्स, मंहगी ड्रेसस और अर्धनग्न बल्कि अर्ध से ज्यादा ही अंग दिखाऊ वस्त्र कुछ नहीं कर सकते।
कुतर्कनी स्वरा ने पहले ही अपने उद्घोषों में अच्छी खासी इमेज का भट्टा बैठा दिया है। कालिंदी बनी करीना ने जो इमेज 'तलाश' और 'चमेली' में बनाई थी वह धुल-निचुड़ कर आँगन में सूख रही है। शिखा तलसानिया ने एक यूट्यूब के शॉर्ट में सम्भोग के अहसास की बानगी दिखा ही रखी है, रही सोनम कपूर सो वे 'तलाक़ स्पेशलिस्ट' हैं ही सो अपनी सहेलियों को फिर से सिंगल होने के मजे दिलवा देंगीं। ज्ञातव्य हो कि सोनम कपूर कुछ दिनों पहले खुला ख़त लड़कियों को जिस ग्लैमर से बचाने के लिये लिखती नज़र आईं थीं, उन्होंने इस बौद्धिकता को अपने गले में मंगलसूत्र को गले में फाँसी के सदृश्य बताते हुए बेहद बुरी गाली देते हुए अपनी छवि को धो दिया है।
सनद रहे; संवादों में गालियाँ न सशक्त करतीं हैं ना ही सम्वेदनाएँ जगाती हैं। वे सिर्फ़ एक खिसियानी हँसी की जन्मदात्री बन के रह जाती हैं।
जहाँ सम्वाद लेखक को ही नहीं पता कि चरमसुख़ चरमसुख होता है चरमसुख़ नहीं। इनका वश चलता तो ये चर्मसुख कर डालते, के अनावश्यक सम्वादों के लिखने वाले का ज्ञान कितना चलताऊ होगा? उच्चारण के जानकारों को ये फालतू के सम्वाद निरीह बना देते हैं, मतलब कमज़ोर संवादों की मारी हुई फ़िल्म है। और उसी पर हिंदुओ के इष्ट 'जगन्नाथ भगवान' का लोकप्रिय सम्वाद 'अपने हाथ जगन्नाथ' जिसे श्रम के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है, आस्थावान लोकोक्ति के दुरुपयोग होने से वाले समय में कष्टकारक होने के आसार भी हैं फ़िल्म पर। जबकि तमाम इंग्लिश डायलॉग्स की भरमार मची पड़ी है ऐसे में 'सेल्फ सर्विस' उठा लेना क्या बुरा था? इसके साथ ही आमजन के जन्मजन्मांतर के जुड़ाव का सूचक मंगलसूत्र जिसे बहन की गाली से भिगो कर फाँसी के सदृश्य बताया है। राहु की महादशा और केतु की अंतर्दशा प्रारम्भ हो रही है। राहु सफलता के नवम घर पर वक्र दृष्टि रख रहा है। तिस और शनिचर की चढ़ती साढ़ेसाती सफ़लता को घनघोर असफ़लता में बदल देती है।
कुल मिला के फ़िल्म एक बाइब्रेटर है जो कुछ सेकेंड्स का सुख़sss उस अलीट वर्ग को दे सकती है जो प्राकृतिक प्रेमयुक्त संभोग से अघा चुका हो। इसलिए इस कुछ सेकेंड्स के सुख के लिए दो घण्टे और दो घण्टे के टिकिट के पैसे न खर्चे जाएँ तो ही बेहतर है। क्योंकि फ़िल्म घण्टा नहीं घण्टी है।
(हैरत इस बात की भी है कि महारानी पद्मिनी के कुछ दृश्यों पर समूचे भारत को हिला देने वाला तबका, समूची भारतीय नारी की अस्मिता को तार तार कर देने वाली इस फिल्म पर मौन है | साथ ही इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि आखिर सेंसर बोर्ड की उपयोगिता क्या है ? क्या ऐसा ही समाज हमें अभीष्ट है ? फिल्म देखते समय सिनेमा हॉल में गूंजती सीटियाँ बताती हैं कि भारत किस दिशा में जा रहा है | बलात्कार, व्यभिचार और स्वच्छंदता ही अगर गंतव्य है तो फिर संस्कृति की बात करना ही बंद कर देना चाहिए और इन्हें अपराध मानने वाली कानून की पुस्तकों को भी रद्दी की टोकरी में फेंक देना चाहिए | धिक्कार फिल्म निर्माता और फिल्म को स्वीकृत करने वाले सेंसर बोर्ड पर | - सम्पादक)
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