एक स्वर्गीय स्वयंसेवक द्वारा स्थापित वात्सल्य मंदिर कानपुर |



हम ईश्वर को तो नहीं देख पाते, किन्तु माता पिता के रूप में ईश्वर की दिव्य उपस्थिति का अहसास किया जा सकता है, उनके ममतामय स्पर्श में ईश्वर का आशीर्वाद अनुभव किया जा सकता है | किन्तु जगत में ऐसे दुर्भाग्यशाली लोग भी हैं, जिन्होंने कभी ईश्वर के इस वरदान का आनन्द उपभोग नहीं किया | जी हाँ यहाँ बात हो रही है – अनाथ बच्चों की, जिनके दुर्भाग्य ने उन्हें बेसहारा ही पैदा किया और ईश्वर के जैविक अवतार से वे दूर रहे । जरा उनकी उदासी की कल्पना कीजिए …। जब दूसरे बच्चों को वे अपने मातापिता के साथ हंसते खेलते देखते होंगे, तब उनके दिलों पर क्या गुजरती होगी | है न? 

लेकिन ईश्वर बहुत दयालू है | हर दुखद कहानी का अंत भी दुखद हो यह आवश्यक नहीं | ईश्वर की प्रेरणा से ही कुछ लोगों ने उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में वात्सल्य मंदिर-अनाथालय प्रारम्भ किया | सोचा जा सकता है – इसमें क्या ख़ास है ? बहुत शहरों, महानगरों में अनेक अनाथालय चल रहे हैं । 

लेकिन यहाँ जिस वात्सल्य मंदिर की बात की जा रही है, वह अन्य अनाथालयों से प्रथक है | अनाथ बच्चों को विशेष रूप से जनजातीय क्षेत्रों से आये बच्चों को जो प्यार और आत्मीयता यहाँ मिलती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है | इस वात्सल्य मंदिर की स्थापना 2004 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक समर्पित स्वयंसेवक स्वर्गीय यतींदर सिंह जी ने की थी । हालांकि यतींदर जी, आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन अनाथों के प्रति उनके प्यार का प्रतीक यह वात्सल्य मंदिर सदैव उनकी स्मृति को जीवित रखेगा | जब भी यहाँ से बृजेश थारू जैसे विलक्षण प्रतिभाशाली बच्चे निकलेंगे, यतींदर सिंह जी की स्मृति ताजा हो जायेगी | इस आदिवासी बालक बृजेश थारू ने प्रतिष्ठित आईआईटी प्रवेश परीक्षा में 320 वीं अखिल भारतीय रैंकिंग प्राप्त की है | बृजेश थारू इस प्रकार के इकलौते उदाहरण नहीं हैं, एक अन्य आदिवासी बालक पवन पाल की भी लगभग यही कहानी है | ये दोनों बालक उस समय केवल चार वर्ष के थे, जब दुर्भाग्य ने उनके माता पिता छीन लिए और वे वात्सल्य मंदिर में आये । 

पंडित दीनदयाल सनातन इंटर कॉलेज के परिसर में स्थित, वात्सल्य मंदिर में बच्चों के समग्र विकास की चिंता की जाती है । सभी बच्चों के लिए कंप्यूटर शिक्षा, संगीत, कथक नृत्य, खेल और विभिन्न व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है । इस प्रकल्प को चलाने के लिए जो भी खर्च आता है, उसे स्वर्गीय यतिंदर जी के पिता श्री विरेंद्रजीत जी वहन करते हैं, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र संघचालक भी हैं । यतींदर जी के असामयिक निधन के बाद, विरेंद्रजीत जी और उनकी पत्नी नीता जी वात्सल्य मंदिर की व्यवस्था संभालते हैं। 

यहां के अधिकांश बच्चे बलरामपुर, लखीमपुर, बहराईच और माणिकपुर के सबसे पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों से हैं। ये बच्चे उन जनजातीय वर्गों से आते हैं, जिन्हें विलुप्ति के कगार पर माना जाता है, जैसे गौड, थोर और कोल | इन बच्चों को यहां वनवासी कल्याण आश्रम के स्वयंसेवकों द्वारा लाया गया था । सोनम, जो वर्तमान में पंडित दीनदयाल सनातन इंटर कॉलेज में ऑफिस स्टाफ के रूप में कार्यरत हैं, यहां आने वाले प्रारम्भिक बच्चों में से एक है। उसे अपने मातापिता की बहुत धुंधली सी ही याद है, कि वे कैसे एक जंगली भालू द्वारा गंभीर रूप से घायल होकर चल बसे थे और उस दुखद घटना के बाद उसे अपने दो भाई बहनों के साथ वात्सल्य मंदिर में शरण लेना पड़ा था । 

एक पूर्व संघ प्रचारक सुरेश अग्निहोत्री और उनकी पत्नी मीना जी ने पहले दिन से माता-पिता बनकर वात्सल्य मंदिर में आने वाले बच्चों की देखभाल की थी। वे बच्चों को मातापिता के समान ही स्नेह भी देते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें अनुशासन पालन भी सिखाते हैं। वात्सल्य मंदिर की दिनचर्या का प्रारम्भ प्रातःकाल योग सत्र से होता है। सफाई, दैनिक खरीद, रसोई संचालन और दूसरी सभी जिम्मेदारियों का निर्वाह बच्चों द्वारा स्वयं ही किया जाता है। हाल ही में वात्सल्य मंदिर के जय, पवन और संध्या नामक बच्चों ने 2000 मीटर दौड़ में पदक भी जीते। 

तो मित्रो यह है कृतिरूप संघ दर्शन | कई लोगों को हैरत होती है कि आखिर स्वयंसेवक, संघ स्थान पर दक्ष आरम और खेलकूद करते हैं, इसका समाज को क्या लाभ ? संघ स्वयंसेवक, संघ स्थान पर प्राप्त संस्कारों से समाज को जो प्रदान करते हैं, यह कथानक उसका एक छोटा सा उदाहरण भर है | मातृपितृ विहीन बच्चों को मातापिता का लाड प्यार दुलार और संस्कार प्रदान करना, क्या कोई साधारण कार्य है ? और यह कोई इकलौता कार्य नहीं है | संघ के गीतों में संघ की कार्य योजना झलकती है | जैसे -

दशो दिशाओं में जाएँ, दलबादल से छा जाएँ,
उमड़ घुमड़ का इस जगती को नंदनवन सा सरसायें |

सौजन्य: सेवागाथा
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