नेहरू और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद - हिंदूद्रोह बनाम धर्मपरायणता |
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2014 में मोदी सरकार बनने के बाद गाहेबगाहे असहिष्णुता का राग अलापने वाले स्वयंभू बुद्धिजीवी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यवहार पर भी विचार करें | वे तो अपने ही दल के वरिष्ठ जनों के प्रति कितने कुटिल और अनुदार थे इसका रहस्योद्घाटन किया है, वरिष्ठ पत्रकार श्री विवेक सक्सेना ने नया इंडिया के अपने नियमित कोलम रिपोर्टर डायरी में –
नेहरू जी कभी भी डा राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति नहीं बनाना चाहते थे। मगर उनकी दिक्कत यह थी कि उस समय सरदार पटेल, डा राजेंद्र प्रसाद के साथ थे व उनका कद काफी ऊंचा था। नेहरू सी राजगोपालाचारी को इस पद पर बैठाना चाहते थे जो कि आजाद भारत के पहल गवर्नर-जनरल थे। उस समय कांग्रेंस संसदीय बोर्ड के तमाम सदस्य राजाजी की 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिका को लेकर नाराज थे। नेहरू द्वारा राजेंद्र प्रसाद को नापसंद किए जाने के कई कारण थे। राजेंद्र प्रसाद की छवि कट्टर हिंदू नेता की थी। वे कायस्थ होने के बावजूद शाकाहारी थे। वे सिर्फ ब्राह्मणों के हाथ का बनाया हुआ खाना खाते थे। वे पंडितों के पैर छूते और धोती कुर्ता पहनते थे। पश्चिमी देशों के प्रभाव से प्रभावित नेहरू के लिए ये सब बातें धर्मनिरपेक्षता व प्रगतिशीलता के खिलाफ सी थी।
जाने-माने पत्रकार दुर्गादास जो अपनी विश्वसनीयता के लिए चर्चित थे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू एंड अदर्स में लिखा है कि एक बार मैंने गोविंद वल्लभ पंत से पूछा कि नेहरूजी राजेंद्र बाबू को इतना नापसंद क्यों करते हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि नेहरू को आशंका है कि कहीं वे उनका तख्ता न पलट दें। वे उन्हें आरएसएस का आदमी मानते हैं। नेहरू ने उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए तमाम कोशिशें की। पहले उन्हें पत्र लिखा कि उनकी व सरदार पटेल की बात हो गई है। वे भी राजाजी को राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं। राजेंद्र बाबू ने यह चिट्ठी पटेल का सौंप दी व नेहरू की काफी फजीहत हुई। फिर नेहरू ने उनसे कहा कि आप खुद यह बयान जारी कर दीजिए कि आप राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल नहीं है और राजाजी के नाम का समर्थन करते हैं। जवाब में उन्होंने कहा कि उम्मीदवार का नाम तय करना और उसका समर्थन करने का अधिकार कांग्रेंस पार्टी के पास है। मैं कौन होता हूं इस मामले में कोई फैसला करने वाला। उन्होंने तीखे शब्दों में लिखा कि आपने शालीनता की सभी सीमाएं तोड़ दी है।
नेहरू के तमाम प्रयास असफल हुए व डा राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बन गए। नेहरू नहीं चाहते थे कि 1957 में उन्हें दोबारा राष्ट्रपति बनाया जाए। वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे जो कि राजनीतिक पृष्ठभूमि के न होने के कारण उनके लिए कोई समस्या नहीं पैदा कर सकते थे। उन्होंने 1956 में यह अभियान शुरू करवाया कि चूंकि प्रधानमंत्री उत्तर भारत से है इसलिए राष्ट्रपति दक्षिण भारत का होना चाहिए। नेहरू ने कांग्रेस शासित चार दक्षिण भारतीय राज्यो के मुख्यमंत्रियों को बुलाया और उनसे यह मांग करने को कहा पर व इसके लिए तैयार नहीं हुए। उनका मानना था कि वे ठीक काम कर रहे हैं।
नेहरू की तल्खी की एक वजह यह भी थी कि राष्ट्रपति बनने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने सरकार से यह जानना चाहा था कि उनके अधिकार क्या हैं? क्या वे सेना के तीनो अंगों के प्रमुख होने के नाते सीधे सेनाध्यक्षों से देश की सुरक्षा के बारे में राय ले सकते हैं? क्या वे सरकार के किसी भी मंत्री को बर्खास्त कर सकते हैँ? क्या जनता की भावनाओं के अनुरूप काम न करने वाली सरकार के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं? इससे नेहरू को उनकी नियत पर शक होने लगा था।
जब राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण के बाद वहां शिवलिंग को प्रतिष्ठित करने के वक्त जाने का फैसला किया तो नेहरू ने उन्हें वहां जाने से रोका। उन्होंने उनसे कहा कि एक राष्ट्रपति का धार्मिक कार्यो में सार्वजनिक तौर पर हिस्सा लेना उचित नहीं है। उन्होंने जवाब दिया कि एक राष्ट्रपति होने के कारण मैं अपना धर्म नहीं छोड़ सकता हूं। जवाब में नेहरू ने उनके इस कार्यक्रम में दिए गए भाषण व तस्वीरे जारी करने पर रोक लगा दी। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को निर्देश दिए गए कि इसकी कवरेज न की जाए। फिर राष्ट्रपति बनारस गए जहां उन्होंने गंगा के तट पर पंडितों के पैर धोए व छुए। नेहरू ने इसकी आलोचना करते हुए उन्हें पत्र लिखा तो उन्होंने जवाब दिया कि हमारे देश की एक परंपरा रही है कि ज्ञानी और पंडितों के पैर छुए जाने चाहिए। उनके आगे हर व्यक्ति को सिर झुकाना चाहिए चाहे वह कितने भी ऊंचे पद पर क्यों न बैठा हो।
नेहरू उन्हें इतना ज्यादा नापसंद करते थे कि भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति व ब्रिटिश महारानी ने राष्ट्रपति को अपने देश की यात्रा के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने दोबारा उन्हें याद दिलवाया तो राजेंद्र बाबू ने इस संबंध में नेहरू को पत्र लिखा। उन्होंने जवाब दिया कि हाल ही में तमाम मंत्री इन देशों की यात्रा करते आए हैं। इसलिए आपका वहां जाना जरूरी नहीं है। राष्ट्रपति नेहरू से टकराव नहीं लेना चाहते थे अतः उन्होंने उन्हें जवाब दिया मैं खुद यह तय करूंगा कि मुझे इन देशों में कब जाना चाहिए। हालांकि वे वहां गए नहीं।
नेहरू उनके साथ जारी अपने टकराव को इतना नीचे ले आए जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक रा्ष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की, उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे। उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे, इसलिए सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई।
क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी ‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका। नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन को पत्र लिखा कि मैं दिल्ली में न होने के कारण वहां नहीं जा पाऊंगा और मुझे लगता है कि आपको भी वहां नहीं जाना चाहिए। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। राष्ट्रपति ने अपने जवाब में कहा ‘मुझे लगता है कि मुझे उनके अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने जरूर जाना चाहिए। वे इस सम्मान के हकदार है जो कि उन्हें मिलना चाहिए। मेरा मानना है कि आपको अपने सारे कार्यक्रम रद्द करके मेरे साथ चलना चाहिए।‘
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अखबारों की कतरन
नेहरू जी ने सही तो किया। एक राष्ट्रपति को इस प्रकार का कार्य शोभा नहीं देता।
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