राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक दिल्ली का तीन मूर्ति स्मारक, किन्तु कृष्णमेनन मार्ग राष्ट्रीय शर्म |



देश की राजधानी दिल्ली में करीब दो दर्जन सड़कों के नाम ऐसे विदेशी लोगों के नाम पर है जिन्हें आम जनता जानती तक नहीं है। जैसे सिमोन बोलिवर मार्ग, वेनिती हुआरेज मार्ग वगैहर। इतना ही नहीं तो सेना भवन के पास ही कृष्ण मेनन मार्ग है जहां उनकी मूर्ति भी लगी हुई है जिसे देखकर हर देशभक्त का खून खौलता है। 

कृष्ण मेनन ने वह सब किया जो कि औरंगजेब भी नहीं कर पाया। जब औंरगजेब ने ज्यादतियां की थी तब वह इस देश का बादशाह था मगर कृष्ण मेनन ने तो आजाद देश की ऐसी तैसी करवाई और उनके किए को देश आज तक भुगत रहा है। उन्हें इस देश में भ्रष्टाचार के लिए तेल बोने वाला माली कहा जा सकता है। वे कभी ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त भी थे। उन्होंने सेना के लिए सैकेंड हैंड जीपे खरीदी। इनमें से आधी जीपे कभी भारत पहुंची ही नहीं व आधी के इंजन व दूसरे कलपुर्जे गायब थे। यह आजाद देश का पहला रक्षा खरीद घोटाला था। जब इसका खुलासा हुआ तो सरकार ने एक जांच समिति बैठाई मगर उसकी रिपोर्ट को दबा दिया। इसके बदले उन्हें उनकी इस सेवा के लिए पुरूस्कृत करते हुए देश का रक्षा मंत्री बना दिया।

जब वे रक्षा मंत्री थे तब आर्डिनेस फैक्टरी में बम, कारतूस नहीं बल्कि क्रीम लिपिस्टिक तैयार किए जाते थे। उन्होंने एक योजना तैयार की थी जिसके तहत वे चाहते थे कि सैनिको को सड़के व मकान बनाने के काम में मजदूरों की तरह लगाया जाए। गनीमत यह रही कि उनकी यह योजना लागू नहीं की गई। ये ही वे शख्स थे जिन्होंने नेहरू व देश को गुमराह करके चीन के साथ युद्ध किया। इसमें हमें मुंह की खानी पड़ी व लाखों किलोमीटर जमीन पर चीन ने कब्जा कर लिया। फिर भी जिदंगी भर मौज करते रहे और मरने के बाद उनकी प्रतिमा स्थापित कर दी गई। जब रूस में स्टालिन की, ईराक में सद्दाम हुसैन की प्रतिमाएं हटाई जा सकती है तो औरंगजेब को भी मात देने वाले कृष्ण मेनन की प्रतिभा क्यों न हटाई जाए?

बहरहाल आजादी मिलने के बाद दिल्ली में ब्रिटिश नाम वाले स्मारको के नाम बदलने का सिलसिला चालू हुआ जो कि आज तक जारी है। जैसे कि वायसराय हाउस का नाम राष्ट्रपति भवन कर दिया। कांस्टीट्यूट एसेंबली संसद भवन कहलाने लगा। किंगस्वे को राजपथ व क्लेसवे को जनपथ के नाम से जाना जाने लगा। किंग जार्ज एवेन्य राजाजी मार्ग कहलाने लगा। आल इंडिया वार मेमोरियल का नाम इंडिया गेट कर दिया गया ।

इंपीरियल सर्विस केवली ब्रिगेड मैमोरियल को तीन मूर्ति का नाम दे दिया गया। शायद इसे भी कोई और नाम दे दिया गया होता अगर ये मूर्तिया भारतीय सैनिको की नहीं होती। लेकिन कोई नहीं जानता कि ये तीन मूर्तियाँ हैं किनकी ? इसका रहस्योद्घाटन पिछले दिनों हुआ, भाजपा नेता बलवीर पुंज द्वारा | आईये तीन मूर्ति का इतिहास हम भी जानें |

इजरायल की राजधानी से 90 किलोमीटर दूर स्थित है एक समुद्री बंदरगाह वाला शहर हाफिया | हाफिया का अर्थ होता है नाजुक। मगर इससे जुड़ी कहानी बेहद कठोर है। बात उस समय की है, जब ना तो भारत आजाद हुआ था और ना ही इजराईल अस्तित्व में आया था | 

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1918 में कुछ भारतीय सैनिक अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए फिलिस्तीन की हाफिया पोस्ट पर पहुंचे ये सैनिक ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाही न होकर तीन रियायतों हैदराबाद, जोधपुर व मैसूर लांसर के सिपाही थे। जोधपुर की सैनिक टुकड़ी में पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह के पिता ठाकुर सरदार सिंह राठोड़ भी शामिल थे।

वहां इन लोगों का मुकाबला टर्की की आटोमन साम्राज्य की सेनाओं से हुआ जिनको जर्मन व आस्ट्रिया की सेनाओं की भी मदद हासिल थी। उन्होंने युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई और 12 सितंबर 1918 को हाफिया पर जीत हासिल की। इस युद्ध में उन्होंने दुश्मन के 700 सैनिको को बंदी बनाया। उसकी 17 तोपे व 11 मशीनगन छीनने में सफल हुए। इसमें 8 भारतीय सैनिक मारे गए 23 घायल हुए। इस घुड़सवार ब्रिगेड के 60 घोड़े मारे गए व 83 बुरी तरह से जख्मी हो गए।

प्रथम विश्वयुद्ध में करीब 14 लाख भारतीय सैनिको ने ब्रिटेन की तरफ से लड़ाई लड़ी थी। हाफिया के युद्ध की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि जहां तुर्की सैनिको के पास मशीनगन व तोपे थे वहीं भारतीय सैनिको के पास भाले व तलवारें थी। उनकी जीत की बड़ी वजह उन लोगों का घोड़ों पर सवार होना था। इस युद्ध में जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व कर रहे मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे। उन्हें बाद में ब्रिटिश सरकार ने मिल्टिरी क्रास प्रदान किया।

तब से लेकर आज तक भारतीय सेना 23 सितंबर को हर साल हाफिया दिवस मनाती है। आजादी के पहले तीन मूर्ति भवन का नाम फ्लैग स्टाफ हाउस था। वहां ब्रिटिश भारतीय सेना के प्रमुख रहा करते थे। जब इस भवन के सामने यह स्मारक बनाया गया तो इसको इंपीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड मैमोरियल के नाम से जाना जाता था। तीन सैनिको की मूर्तिया तीन राज्यों के सैनिको का प्रतिनिधित्व करती थी।

इसे देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाए कि अल्पसंख्यक वोट बैंक कहीं नाराज न हो जाए, इस भय से देश के दस्तावेजों में भी कहीं भी हाफिया के युद्ध व उसमें शाहदत देने वाले भारतीय जवानों का जिक्र नहीं किया गया। अंग्रेंजो ने तो हाफिया के युद्ध में वीरता दिखाने वाले सैनिको की याद में तीन मूर्तियां स्थापित की, किन्तु हमारी सरकार ने उन वीरो को याद करना तक उचित नहीं समझा। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात कि इजराईल में इस लड़ाई को इतनी अहमियत दी जाती है कि इस प्रकरण को वहां पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। हर साल वहां हाफिया दिवस पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। हाफिया में भारतीय सैनिको की शहादत की याद में एक स्मारक भी बनाया गया है । वहां युद्ध में मारे गए सैनिको का अंतिम संस्कार करके उनकी अस्थियां भारत भेज दी गई इजरायल के स्कूली बच्चों की पाठ्यक्रम में इस तरह की कहानी पढ़ाई जाती है। इजरायल स्थित भारतीय दूतावास वहां हर साल 12 सिंतबर को विशेष कार्यक्रम आयोजित करता है। हालांकि इस युद्ध के 30 साल बाद इजरायल अस्तित्व में आया था मगर इसके बावजूद भी दोनों देश इन वीर सैनिको की शहादत को भूले नहीं है।

साभार आधार – रिपोर्टर डायरी “नया इण्डिया”

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