ईसाई नव वर्ष की मदिरा पियें या स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संस्मरण का रसास्वादन करें ?


ईसाई कैलेंडर के पहले दिन को नव वर्ष मानना और उसे उत्सव की तरह मनाना, केवल और केवल मानसिक और सांस्कृतिक दासता है, और कुछ नहीं ! जिन ईसाई अंग्रेजों ने 200 वर्ष धर्म, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, आत्म सम्मान के साथ साथ सम्पूर्ण समाज पर कहर ढाया, हम स्वतंत्र भारत में भी उनके पर्व एक जनवरी को उनके ही ढंग से मनाते हैं, जो हमें देता है मात्र सांस्कृतिक प्रदूषण । शायद इसी मनोवृत्ति की रोकथाम के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनुयायियों ने बेल्लूर मठ में आज के दिन को कल्पतरु दिवस या कल्पतरु उत्सव के रूप में मनाना प्रारम्भ किया है !

बेल्लूर मठ –

स्वामी विवेकानंद का आंकलन था कि बर्बर इस्लामी आक्रमण के बाद भारत के 60 करोड़ हिन्दुओं में से 20 करोड़ को मुसलमान बनाया गया, जबकि अंग्रेजों के आगमन के बाद 2 करोड़ हिन्दू ईसाई धर्म में परिवर्तित किये गए । इसी तारतम्य में स्वामी विवेकानंद ने वस्तुतः हिन्दू समाज की रक्षा के लिए ही रामकृष्ण मठ और मिशन की स्थापना की और 1897 में बेलूर के श्री रामकृष्ण मठ की आधारशिला रखी ।

स्वामीजी उत्कट देशभक्त थे, साथ ही वे मुसलमानों और ईसाइयों को भी भारत के सांस्कृतिक रंग में रंगना चाहते थे । वे मुक्ति की भारतीय अवधारणा के आधार पर सामाजिक परिवर्तन चाहते थे। स्वामीजी की मान्यता थी कि इस्लामी बर्बरता और ईसाई षड़यन्त्र के हमले से हिंदू लोगों की रक्षा के लिए ही स्वामी रामकृष्ण परमहंस ईश्वरीय अंश के रूप में अवतरित हुए हैं !

कल्पतरु दिवस 

आईये इस कल्पतरु दिवस के इतिहास पर एक नजर डालें ! स्वामी रामकृष्ण के अनुयाईयों का मानना है कि 1 जनवरी, 1886 को परमहंस को आत्मबोध हुआ था ! बात उन दिनों की है जब कोस्सिपुर उड्डयन वटी में स्वामी रामकृष्ण केंसर के अंतिम चरण में शांतिपूर्वक उपचार ले रहे थे । तभी उनके कुछ भाग्यशाली शिष्यों के सम्मुख एक अद्वितीय चमत्कार हुआ ।

कहा जाता है कि उनके एक शिष्य रामचंद्र दत्ता के सम्मुख, जिस वृक्ष के नीचे रामकृष्ण बैठे थे, वह उनके प्रभाव से कल्पतरु (सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष) बन गया । उसके कुछ महीने बाद ही 16 अगस्त, 1886 को स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने लौकिक देह का त्याग कर दिया, किन्तु उनके शिष्यों ने इस अविस्मरणीय घटना की स्मृति को "कल्पतरु दिवस" के रूप में मनाना प्रारम्भ कर, चिर स्थाई बना दिया । 

1 जनवरी: श्री रामकृष्ण के आत्म प्राकट्य का दिवस ।

(स्वामी निखिलानंद की THE GOSPEL OF SRI RAMAKRISHNA की प्रस्तावना का अंश)

स्वामी जी ने कहा - " इसके पूर्व कि मैं प्रस्थान करूं, मुझे कुछ बातें सार्वजनिक करना होगी ।“ वे 1 जनवरी, 1886 को कुछ बेहतर महसूस कर रहे थे और टहलने के लिए बगीचे में आ गये थे । दोपहर के लगभग तीन बजे का समय था । लगभग तीस शिष्य हॉल में या पेड़ों के नीचे बैठे हुए थे। श्री रामकृष्ण ने गिरीश (घोष) से ​​कहा, 'ठीक है गिरीश, तुम्हें मुझमें क्या दिखाई देता है ? क्या सबके समान मुझमें भी ईश्वर का अंश है ?' गिरीश जल्द ही अचंभित हो जाने वाला व्यक्ति नहीं था । उसने स्वामी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा कि मुझ जैसा तुच्छ व्यक्ति आप जैसी महान विभूति के विषय में क्या कह सकता हूँ, जिनकी महिमा व्यास और वाल्मीकि जैसे संतों के समान है? 

स्वामी आध्यात्मिकता की गहराई में डूब गए । उन्होंने कहा: 'मैं और अधिक क्या कहें? आप सब का कल्याण हो । आप सब प्रकाशपुंज बनें ! [तोमादेर की आर बोली ? अमी तोमादेर सकलके आशीर्वाद कोरी, तोमादेर सकलेर चैतन्या होक !]

उनके इन शब्दों को सुनकर भक्तगण भावविभोर हो गए और उनके चरणों में गिर गये। स्वामीजी ने सभीको स्पर्श किया और आशीर्वाद दिया। प्रत्येक शिष्य अपने गुरू के स्पर्श से मानो परमानंद के सागर में डुबकी लगाने लगा । कुछ हँसे, कुछ रोने लगे, कुछ ध्यानमग्न हो गए, कुछ प्रार्थना करने लगे। कुछ को दिव्यज्योति दिखाई दी तो कुछ को अपने आदर्श और कुछ अपने शरीर के अन्दर आध्यात्मिक शक्ति अनुभव करने लगे । सच में वह एक विलक्षण अनुभूति थी !"

स्वामी स्वामी सारदानन्द लिखित SRI RAMAKRISHNA, THE GREAT MASTER के अंश 

"निस्वार्थ भाव से ह्रदय की गहराईयों से दिए गए इस आशीर्वाद के इन शब्दों ने सीधे भक्तों के दिलों में प्रवेश किया और वे आनंद की सर्वोच्च स्थिति में पहुँच गए । वे समय और अंतरिक्ष को भूल गए, वे स्वामी जी की बीमारी को भूल गये और वे अपने उस संकल्प को भी भूल गए जो उन्होंने बीमारी ठीक न होने तक स्वामी जी को स्पर्श न करने का लिया था ! उस समय उनकी नजर में उस माँ की तरह थे, जिसकी गोद में बच्चे हर दुःख दर्द से कष्ट से सुरक्षित रहते हैं ! प्रेम, दया, करुणा और सहानुभूति से उनका ह्रदय आप्लावित हो गया । "

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