“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – 10
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गतांक से आगे ....
‘आत्मनः तुष्टि’ और ‘स्वस्य-आत्मनः प्रियम’ का स्पष्टीकरण –
धर्म का चौथा मूल्स्त्रोत ‘आत्मा की संतुष्टि’ और ‘अपनी आत्मा का प्रिय’ कार्य है ! इस स्त्रोत की स्पष्ट परिभाषा विचारणीय है ! यहाँ प्रश्न उठता है कि सभी व्यक्तियों की आत्मा का प्रिय कार्य धर्म है अथवा एक स्तर विशेष की सीमा तक के व्यक्तियों की आत्मा का प्रिय कार्य ? उत्तर में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि हर किसी की आत्मा का प्रिय कार्य धर्म नहीं अपितु वेदानुकूल आचरण वाले सदगुणसंपन्न, धार्मिक, पवित्रात्मा विद्वानों की उनकी अपनी आत्मा की संतुष्टि, प्रसन्नता और प्रियता के अनुकूल जो कार्य है वही धर्म है ! हर किसी के प्रिय को धर्म मानने में निम्न आपत्तिय आती है –
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चारों धर्म के स्त्रोतों की उच्चता, गंभीरता का स्तर सामान्यप्रायः होना चाहिए ! यह नहीं कि एक अत्युन्नत स्तर का हो और एक निम्नतम ! एक और वेद धर्म के स्त्रोत है और दूसरी और हर किसी की आत्मा ही प्रमाण है ! इस प्रकार तो व्यक्तियों की संख्या के अनुसार आत्मा के प्रिय कार्य भी पृथक पृथक हो जायेंगे !
अगर यह कहें कि ‘आत्मा की प्रसन्नता’ का अभिप्याय यह है कि ‘मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे कष्ट दे तो मुझे भी ओरों के साथ कष्टदायक व्यवहार नहीं करना चाहिए !’ तो यह बात उन व्यवहारों में तो लागू हो जाती है जिनमे भय, शंका,लज्जा, पीड़ा का सम्बन्ध है, अन्य व्यवहारों में नहीं ! इसमें अव्याप्ति दोष आता है ! जैसे कोई व्यक्ति संध्योपासना, अग्निहोत्र, विध्याप्राप्ति, शुद्धि आदि कर्त्तव्य पालन नहीं करता और अतिइन्द्रियाशक्ति, अंधविश्वास, अन्धमान्यता आदि से ग्रस्त है तो वह चाहेगा कि में इन बातों के सन्दर्भ में किसी को कुछ नहीं कहता तो दुसरे मुझे भी न कहे ! दूसरों के कहने से वह पीड़ा अनुभव करेगा ! जब की धर्म विहित बात अवश्य कथनीय और पालनीय होती है ! उनको दंडपूर्वक भी कराने का विधान है !
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इसी प्रकार जो दुष्टसंस्कारी, राक्षससंस्कारी, तमोगुणी प्राणी है, बाल्यकाल से ही जो जीवहत्या, मांसभक्षण आदि कार्य करते आ रहे है, उनमे इन कार्यों के प्रति भय, शंका, लज्जा की अनुभूति दृष्टिगोचर नहीं होती ! अतः उनकी ‘आत्मा के प्रिय’ को धर्म नहीं माना जा सकता !
इन आपतियों के होने से यह कहा जा सकता है कि सभी की आत्मा का प्रिय धर्म नहीं, अपितु सदगुणसंपन्न, धार्मिक, पुण्यात्मा विद्वानों की आत्मा के प्रिय कार्य ही धर्म है !
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आत्मा का प्रिय क्या है ?
जिस कार्य में आत्मा को भय, शंका, लज्जा का अनुभव न हो ऐसे कर्म ही वस्तुतः आत्मा के प्रसन्नताकारक कर्म है ! इससे भिन्न कर्म ‘आत्मा के प्रिय’ नहीं कहे जा सकते [८|९६] और ऐसे कर्म केवल सात्विक कर्म है ! इनसे विपरीत रजोगुणी और तमोगुणी कार्य आत्मा में प्रसन्नता नहीं करते ! यदि प्रसन्नता अनुभव होती है तो वह वास्तविक नहीं है ! मनु ने स्वयं स्पष्ट करते हुए कहा है –
“सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः” ||१२|३८||
वे सतोगुण निम्न है –
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम् ||१२|३१||
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इस प्रमान्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि सतोगुणी कार्यों से ही ‘आत्मा की प्रसन्नता या संतुष्टि’ होती है ! सतोगुणी व्यक्तियों की प्रसन्नता ही धर्म का लक्षण हो सकता है ! अतः श्लोकोक्त अर्थ ही मनुसम्मत है !
यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वेद से उत्तरवर्ती सभी धर्मस्त्रोतों में वेदानुकूलता का होना मनु ने अनिवार्य माना है ! मनु ने प्रत्येक धर्म को श्रुतिप्रामाण्य के आधार पर ग्रहण करना विहित किया है –
सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा |
श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ||१|१२७(२|८)
‘धर्म क्या है’ इसके ज्ञान के लिए १|२ की समीक्षा देखिये | (धर्म की समीक्षा जानने हेतु इस लिंक पर क्लिक करें http://www.krantidoot.in/2016/04/Manu-Smruti-Lesson-1-Part-1.html )
[इन सभी बातों पर विस्तृत विवेचन ‘मनुस्मृति-अनुशीलन’ में भी दृष्टव्य है]
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आत्मनुकूल धर्म का ग्रहण –
सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा |
श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै ||१|१२७(२|८) (६४)
अर्थात - (विद्वान्) मनुष्य (इदं सर्वं तु निखिलं समवेक्ष्य) सम्पूर्ण शास्त्र वेद, सत्पुरूषों का आचार, अपने आत्मा के अविरूद्ध विचार कर (१।१२५ में वर्णित) ज्ञानचक्षुषा ज्ञान नेत्र करके श्रुतिप्रामाण्यतः श्रुतिप्रमाण से स्वधर्म वै निविशेत स्वात्मानुकूल धर्म में प्रवेश करे ।
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श्रुति-स्मृति-प्रोक्त धर्म के अनुष्ठान का फल –
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं अनुतिष्ठन्हि मानवः |
इह कीर्तिं अवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ||१२८|| [२|९] (६५)
अर्थात - क्यों कि मानवः जो मनुष्य श्रुति – स्मृति – उदितम् वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरूद्ध स्मृत्युक्त धर्मम् अनुतिष्ठन् धर्म का अनुष्ठान करता है, वह इह कीत्र्ति च प्रेत्य अनुत्तमं सुखम् इस लोक में कीत्र्ति और मरके सर्वोत्तम सुख को अवाप्नोति प्राप्त होता है ।
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श्रुति और स्मृति का परिचय –
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः |
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ||१२९|| [२|१०] (६६)
अर्थात - श्रुतिः तु वेदः विज्ञेयः श्रुति को वेद समझना चाहिए, और धर्म – शास्त्रं तु वै स्मृतिः धर्मशास्त्र को स्मृति समझना चाहिए ते ये श्रुति और स्मृति शास्त्र सर्वार्थेषु सब बातों में अमीमांस्ये तर्क न करने योग्य हैं अर्थात् इनमें प्रतिपादित बातों का तर्क के द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए हि क्यों कि ताभ्याम् उन दोनों प्रकार के शास्त्रों से धर्मः धर्म निर्बभौ उत्पन्न हुआ है ।
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अनुशीलन –
वेद और श्रुति नाम के कारण –
वेदों के वेद और श्रुति ये दो नाम क्योँ पड़े, इसके उत्तर में महर्षि दयानंद लिखते है –
“(प्रश्न) वेद और श्रुति यह दो नाम ऋगवेदादि संहिताओं के क्योँ हुए है ?
(उत्तर) अर्थ भेद से, क्यूंकि एक विद धातु ज्ञानार्थक है, दूसरी विद धातु सत्तार्थक है, तीसरे विद का लाभ अर्थ है, चौथे विद का अर्थ विचार है ! इन चार धातुओं के करण और अधिकरण कारक में ‘घज’ प्रत्यय करने से वेद शब्द सिद्ध होता है ! तथा (श्रु) धातु श्रवण अर्थ में है ! जिनके पढने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है , जिनको पढके विद्वान होते है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक ठाक सत्य सत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इसके ऋक संहिता अआदी का वेद नाम है ! वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यंत और ब्रह्मा आदि से लेके हम लोग पर्यंत जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते है, इससे वेदों का नाम श्रुति पड़ा है !” (ऋ.भू. 20-21)
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‘जैसे छंद और मंत्र ये दोनों शब्द एकार्थवाची अर्थात संहिता भाग के नाम है, वैसे ही निगम और श्रुति भी वेदों के नाम है !” (ऋ.भू. ७९)
श्रुति स्मृति का अपमान करनेवाला नास्तिक है -
योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः ||
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ||१३०|| [२|११] (६७)
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