पृकृति स्वयंका संरक्षण करने के लिए हमारा विनाश करने को विवश हो उससे पहले चेत जाओ !! - स्व.सुमंत मिश्रा
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भारत भाग्य विधाता सुनो !
भारतीय मनीषा ‘राजाः कालस्य कारणम्’ और ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के सिद्धांत की ओर इंगित करती है। लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप कोई आदर्श उपस्थित नहीं करता, बल्कि गरीबी, बेरोजगारी, अत्याचार, भ्रष्टाचारादि को सॆक्युलरिज्म के छ्द्म कवच से ढकने का ही प्रयास करता अधिक दीखता है।
‘सोंने की चिड़िया’ बननें के लक्ष्य नें ‘जगद्गुरुत्व’ के चिन्तन ‘सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय’ और ‘माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्याम’ की चेतना को मानों अपहृत ही किया हुआ है। प्रकॄति के संतुलित उपयोग एवं पर्यावरण को स्थिर रखते हुए सब कैसे सुख और शान्ति से रहें, भारतीय चिन्तन की यही तो मौलिकता थी। निश्चय ही इस ज्ञान को विज्ञान-दर्शन का सुचिन्तित समर्थन भी था। विश्व को दिशा देंने के बजाये हम उस व्यवस्था के अनुगामी हो रहे है जिसका आधार न्याय संगत नहीं है।
प्रगति के इस पैशाचिक अट्टहास में मशीन.विज्ञान/तकनीकी,श्रम,बुद्धि एवं पूंजी या ‘पूंजीपंचायत’के एकाधिकारवादी सोंच ने संसाधनों के अन्यायपूर्ण शोषण को जहाँ स्वीकृति दी है वहीं माफियावद,नक्सलवाद,माओवाद,आतंकवाद जैसे संस्थानों को अपनें विनाश के लिए उत्पन्न भी किया है। आमजन प्रजा था, है और रहेगा।
माल्थस के जनसंख्या के ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन की अन्तिम परणति, धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाएगी, एडम स्मिथ के उपयोगिता के ह्रास के नियमानुसार आर्थिक मंदी, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन्ध दोहन से बार-बार आयेगी और डार्विन/आइंस्टीन प्रभृतियों का विज्ञानवाद अंततः हिरोशिमा दोहरायेगा, यही तो दीवार पर लिखे सन्देश थे, जिन्हें पढ़ और समझकर ‘गाँधी’ ने ‘ग्राम स्वराज्य’ और ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ के आदर्श को देश के सम्मुख रखा था। गाँधी से पूर्णतया सहमत न होते हुए भी कुछ मिलन-स्थल हैं जो स्वीकार्य हैं।
प्राकृतिक संसाधनों में देवत्व का आधान कर और पूज्य बनाकर जिस प्रकृति का सदियों से संरक्षण किया जा रहा था, उसे, अंधविश्वास बता आधुनिक विज्ञानवादियों नें जिस भाँति उपहास का पात्र बना दिया, उससे उनके ‘विज्ञान के दार्शनिक पक्ष’ से अनभिज्ञ होंने का ही परिचय मिलता है।
‘थ्री बाड़ी मोशन’ का ही मानवजाति से सम्बन्ध है, इस अधूरे विज्ञान के संवाहको को यह नहीं मालूम की सम्पूर्ण सौर परिवार न केवल एक इकाई के रूप में काम करता है वरन आवश्यकता पड़्नें पर अपने-अपनें प्रभावों का प्रयोग कर पृथ्वी का संरक्षण भी उन्हें आता है। पिण्ड़ो के मास,गति,आकर्षण,विकर्षण एवं विचलनादि का हम भले ही अध्ययन करते रहें, उन्हे तो इन सबका अवसरानुकूल प्रयोग भी आता है।
गाँवों में रहनें लायक स्थितियों एवं व्यवस्था का निर्माण करना,वृक्षों को उनका खोया सम्मान दिलाना, नदियों, जलाशयो, झीलों एवं कुओं को उनका गौरव लौटाना, कृषि, कुटीर उद्योग को स्थापित और सम्मानित करना, सौर उर्जा का अधिकाधिक प्रयोग करना, रासायनिक उर्वरकों को विदा कर पशुधन और जैविक खाद का प्रयोग कर धरती को माँ का खोया हुआ सम्मान वापिस दिलाना- जैसे कामॊ से ही हम पितरों के ऋण से उऋण हो सकते है और भावी पीढ़ी के आदर का पात्र भी।
‘पूंजीपंचायत’ के आधार स्तम्भ विज्ञानविद समाज को दिशा दिखाने वाले अग्रचेता ऋषियों की तरह नहीं दलालों जैसा व्यवहार कर रहे प्रतीत हो रहे हैं। संहारक हथियार ही नहीं संहारक तकनीकी के प्रयोग का प्रचालन जिस भाँति बढ़ रहा है उससे उनकी स्वायत्तता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। ऎसे विज्ञानविदों के हाँथो क्या मानवता सुरक्षित है, यह हम सब को समय रहते सोंचना ही पड़ेगा?
प्रकृति अपना संरक्षण करना जानती है। करोड़ों की बलि लेकर भी वह अपना संरक्षण करेगी। उसे वर्तमान नालायक बेटों से अधिक अपनी भावी संतति की चिन्ता है। पृथ्वी को कामधेनु-वत्सला भी कहा गया है जैसे गाय अपनें ऊपर बैठे मच्छर मक्खियों को पूँछ के एक प्रहार से तितर-बितर कर देती है या पीड़ादायक ढ़ंग से दुहने वाले को लात के एक प्रहार से भू लुण्ठित कर देती है, वैसे ही एक झटके में धरती के बोझों को छिन्न-भिन्न कर देंना उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।
मोहासक्त हुए हम, समृद्धि की नाव में बैठ, सुविधा की नदी के प्रवाह में बहते हुये ५० वर्ष बाद रेत के किस बियाबान में टिकेगें, यह बता पाना अभी तो मुश्किल है। हाँ एक बात निश्चित है, नोंटों से भरे बैग वहाँ काम न आयेंगे। हजारों वर्ष पहले महर्षि वेदव्यास का शाश्वत उदघोष मानों फिर समय की आवश्यकता बन प्रस्तुत हो रहा हैः-
‘ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष, न च कश्र्चिछृणोति में। धर्म्मादर्थश्च कामश्च, स धर्म्मः किन्न सेवयते॥
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