डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नेहरू मंत्रिमंडल से स्तीफा
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नेहरू लियाकत समझौते के विरोध में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 8 अप्रैल 1950 को केन्द्रीय उद्योग और आपूर्ति मंत्री पद से त्यागपत्र के समय दिए गए बयान के कुछ अंश –
मैं कभी पाकिस्तान के प्रति हमारे द्रष्टिकोण से प्रसन्न नहीं रहा | यह बहुत ही कमजोर, लडखडाता हुआ और असंगत प्रतीत होता है | हमारी निष्क्रिय अच्छाई को पाकिस्तान कमजोरी मानकर और अधिक दुराग्रही होता जा रहा है और हम अधिकाधिक पीड़ित | यहाँ तक कि हम अपने ही लोगों की नज़रों में गिर गए हैं | हर महत्वपूर्ण अवसर पर हम बचाव की मुद्रा में रहते हैं तथा पाकिस्तान की कुटिलता को बेनकाब करने में असफल और प्रतिक्रियाशून्य रहते हैं |
मैं आज भारत और पाकिस्तान के सामान्य संबंधों की बात नहीं कर रहा हूँ, पाकिस्तान में विशेषकर पूर्वी बंगाल में हिन्दुओं के साथ हो रहे व्यवहार ने मुझे त्यागपत्र देने के लिए विवश किया है | मुझे जोर देकर कहना है कि बंगाल की समस्या कोई प्रांतीय समस्या नहीं है | यह अखिल भारतीय स्वरुप का गंभीर मुद्दा है तथा इसके समुचित समाधान पर ही सम्पूर्ण राष्ट्र की आर्थिक और राजनैतिक शान्ति और समृद्धि निर्भर है | अल्पसंख्यकों की समस्या के प्रति भारत और पाकिस्तान के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण अंतर है | भारत की अधिकाँश मुस्लिम आवादी साम्प्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन चाहती थी, यद्यपि मैं सहर्ष मानता हूँ कि कुछ देशभक्त मुसलमानों ने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी और इस कारण कठिनाईयों का भी सामना किया | और दूसरी ओर हिन्दुओं ने लगभग निश्चित रूप से विभाजन का विरोध किया था | किन्तु जब भारत विभाजन अपरिहार्य हो गया, तब मैंने बंगाल के विभाजन के पक्ष में जनमत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि मैं यह मानता था कि अगर यह नहीं किया जाता तो पूरा बंगाल या शायद असम भी पाकिस्तान के हिस्से में चला जाता |
उस समय थोड़ा जानते हुए भी मैं पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अन्य लोगों के साथ शामिल हो गया, और पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं को आश्वासन दिया कि यदि वे भविष्य में पाकिस्तान की सरकार के हाथों प्रताड़ित होते हैं, यदि वे नागरिकता के प्राथमिक अधिकार से बंचित होते हैं, अगर उनके जीवन और सम्मान पर हमला होता है और वह संकट में पड़ता है, तो स्वतंत्र भारत मूक दर्शक नहीं रहेगा और उनकी न्याय पूर्ण मांगों पर भारत सरकार तथा देश की जनता निर्भयता पूर्वक समुचित कार्यवाही करेगी | किन्तु पिछले ढाई वर्षों के दौरान उनके कष्टों की पराकाष्ठा हुई है | आज मुझे यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि मेरे भरपूर प्रयासों के बाबजूद मैं अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं कर पाया |
इस मुद्दे पर मैं स्वयं को अकेला महसूस करता हूँ | मेरे साथ कोई नहीं है | अतः इस सरकार के साथ और लम्बे समय तक जुड़े रहने का मुझे कोई नैतिक अधिकार नहीं है | पूर्वी बंगाल में हाल ही में घटित घटनाओं ने अतीत में हुए अमानवीय अत्याचारों और मुसीबतों को भी पीछे छोड़ दिया है | हमें बताएं कि क्या पूर्वी बंगाल के हिन्दू मानवीय संवेदनाओं और संरक्षण के हक़दार नहीं हैं ? अपने संकीर्ण हितों पर भविष्य पीढी की खुशियाँ कुर्बान कर देना क्या उचित है ? जिन हुतात्माओं ने भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता और बौद्धिक प्रगति की नींव बिछाने का आधार बनाया, उनके कष्ट और बलिदान क्या हम भूल गए हैं ? जिन युवाओं ने न्याय और स्वतंत्रता के लिए हंसते हंसते फांसी के फंदे चूमे, वे आज हमसे पूछ रहे हैं |
हाल ही में हुआ समझौता मेरे मत में मूल समस्या का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करता है | बुराई गहराई तक है, और इस प्रकार के पैबन्दों से हम शान्ति की आशा नहीं कर सकते | पाकिस्तान की स्थापना के मूल में एक समरूप इस्लामी राज्य का गठन है और हिन्दुओं व सिक्खों की बर्बादी और उनकी संपत्ति की लूट उनकी योजना, उनकी नीति है | इस नीति के परिणाम स्वरुप पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए जीवन बुरा, पशुवत और न्यून बन गया है | हमें इतिहास के सबक नहीं भूलना चाहिए | ऐसा करना जोखिम भरा होगा | मैं बहुत पीछे के समय की बात नहीं कर रहा हूँ | लेकिन अगर कोई भी पाकिस्तान के निर्माण उपरांत घटित घटनाओं का विश्लेषण करता है, तो स्पष्ट होता है कि वहां राज्य के भीतर हिन्दुओं के लिए कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है |
समस्या साम्प्रदायिक नहीं है | यह निश्चित रूप से राजनैतिक है | दुर्भाग्य से आज का समझौता एक इस्लामी राज्य के निहितार्थ को नजरअंदाज करने की कोशिश करता है | लेकिन अगर कोई भी ध्यान से पाकिस्तान की संविधान सभा द्वारा पारित संकल्प और उनके प्रधान मंत्री के भाषण को देखे तो उद्देश्य समझ में आ जाता है | एक ओर तो अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण की बात करते हैं, किन्तु दूसरी ओर सुनाई देता है कि संकल्प जोरदार ढंग से लिखित रूप में इस्लाम द्वारा प्रतिपादित विशेष न्याय के सिद्धांतों को पूरी तरह मानने की बात करता है | पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने संकल्प प्रस्तुत करते समय कहा था –
आप यह भी समझें कि राज्य एक तटस्थ पर्यवेक्षक की भूमिका भर नहीं है, जिसमें मुसलमान अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं, ऐसा ढोंग भर किया गया हो, राज्य की ओर से इस प्रकार का व्यवहार पाकिस्तान की स्थापना की मांग में अन्तर्निहित आदर्श के प्रति नकारात्मक सन्देश देगा, और ये वे ही आदर्श हैं, जो उस राज्य की नींव के पत्थर हैं, जो हम बनाना चाहते हैं | राज्य इस प्रकार की परिस्थितियाँ निर्माण करेगा जो सही मायने में इसलामी समाज की इमारत के लिए अनुकूल हों | जिसका अर्थ है कि राज्य को इस दिशा में एक सकारात्मक भूमिका निभाना होगी | आपको याद होगा कि कायदे आजम तथा अन्य मुस्लिम लीग के नेता हमेशा स्पष्ट घोषणा करते रहे हैं कि मुसलामानों द्वारा पाकिस्तान की मांग का आधार यह तथ्य है कि मुसलामानों के जीवन के अपने तरीके और आचरण संहिता है | वास्तव में इस्लाम सामाजिक व्यवहार के लिए एक विशिष्ट निर्देश देता है और दैनंदिन समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण के लिए समाज का मार्गदर्शन करता है | इस्लाम सिर्फ निजी मान्यताओं और आचरण की बात नहीं है |
मैं पूरी गंभीरता से पूछना चाहता हूँ कि इस प्रकार के समाज में हिन्दू कैसे सुरक्षित रहेंगे ? और क्या वे अपने सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों के साथ जीने की उम्मीद कर सकते हैं ? वास्तव में हमारे प्रधानमंत्री ने केवल कुछ ही हफ्ते पहले भारत और पाकिस्तान के बीच के बुनियादी अंतर का विश्लेषण संसद में किया अथा और मैं उन्हें ही दोहराता हूँ –
पाकिस्तान के लोग भी हमारे ही समान एक ही भण्डार के भाग हैं तथा हमारे गुण व असफलताएं भी समान हैं | लेकिन बुइयादी कठिनाई यह है कि धार्मिक और साम्प्रदायिक पाकिस्तान सरकार अपनी नीतियों से उन लोगों के मन में सतत असुरक्षा की भावना पैदा करती है, जो बहुसंख्यक समुदाय से नहीं हैं |
पाकिस्तान की यह प्रचारित विचारधारा ही मूलभूत समस्या है | उनकी विचारधारा का पूर्ण प्रदर्शन और इस्लामिक राज्य के कामकाज ने अल्पसंख्यकों को समय समय पर कड़वा अनुभव दिया है | यह समझौता इस बुनियादी समस्या से निपटने में पूर्णतः विफल रहा है |
(पाठकगण जरा विचार करें कि पाकिस्तान क्या जरा भी बदला है ? 1950 में जो कुछ डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था, अंदेशा जताया था, क्या वह कुछ गलत था ? हालात तो यहाँ तक बन गए कि देश के सम्मुख एक और विभाजन का खतरा मंडराने लगा !)
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